भवदेव और भावदेव, बने जिनदेव
दृश्य 1
विपुलाचल पर्वत पर सुशोभित भगवान महावीर के भव्य समवसरण में दिव्यध्वनि श्रवण कर इस भारत भूमि के सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा और प्रमुख श्रोता महाराजा श्रेणिक अपनी सहधर्मिणी महारानी चेलना के साथ तत्वचर्चा कर रहे हैं। वे दोनों किस विषय में बातचीत कर रहे हैं? चलिए, यह जानते हैं!
महारानी चेलना: हे राजन! आज मैं कुछ सोच रही थी। यह मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभ है। और इसमें जीव बुरी संगति में आकर तरह-तरह के व्यसनों में, पाप में लगकर अपना भव गंवा देता है! सच में! स्थितिकरण करने वाले साधर्मी मित्र ही इस जीव को संसार रूपी जाल में फंसने से बचाने में सक्षम हैं।
महाराजा श्रेणिक: हाँ चेलना! तुम एकदम सत्य कह रही हो। मैं भी तो पहले बौद्ध धर्मी था! तुम्हारे स्थितिकरण के निमित्त से ही तो मुझे यह महान जैन धर्म मिला है। आज समवसरण में ही मुझे इस विषय की एक घटना सुनने को मिली थी, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। सुनो!
मगध देश के ‘वर्धमान’ नामक नगर में दो ब्राह्मण भाई थे भावदेव और भवदेव।
एक बार उस नगर में ‘सौधर्म’ नामक मुनिराज ससंघ पधारे। उनका उपदेश सुनकर भावदेव संसार से भयभीत हो गया। वैराग्य चित्त भावदेव सौधर्म मुनिराज के चरण कमल में सर्वकल्याणकारी निर्ग्रंथ दिगंबर दीक्षा अंगीकार करते हैं!
महारानी चेलना: धन्य हैं वे जिन्होंने इस गृहस्थपन को त्याग कर मुक्तिमार्ग का चयन किया है! हे राजन! हमें कभी ऐसा उपादान कब जागेगा?
अपूर्व अवसर ऐसा कब आएगा? कब होवेंगे बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो?
लेकिन महाराज! उस भवदेव का क्या हुआ?
महाराजा श्रेणिक: भवदेव ब्राह्मण तो नगर में बहुत प्रसिद्ध था, लेकिन विषय कषायों में तल्लीन, मोक्षमार्ग से विमुख था। कई वर्षों बाद एक बार भावदेव मुनिराज अपने गृहस्थ भाई भवदेव के यहाँ पधारे। उसी दिन भवदेव का विवाह नागश्री नाम की स्त्री के साथ हुआ था। भवदेव ने मुनिराज को नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया और उनके श्रीमुख से धर्म उपदेश भी ग्रहण किया।
महारानी चेलना: फिर क्या हुआ? भवदेव अपनी नवविवाहित स्त्री के साथ फिर भोगों आदि में लग गया?
महाराजा श्रेणिक: नहीं! आहार के बाद जब भावदेव मुनिराज जंगल की ओर वापस विहार करने लगे, तो भवदेव भी उनके पीछे-पीछे गया। वह सोच रहा था कि मुनि आज्ञा दें तो मैं अपने घर वापस जाऊँ। लेकिन मुनि तो क्या ऐसी आज्ञा देते हैं?
महारानी चेलना: मुनिराज श्री ने उस भवदेव को घर जाने के लिए क्यों नहीं कहा?
महाराजा श्रेणिक: हे चेलना! निर्ग ्रंथ मुनिराज ऐसे सांसारिक आरंभ-परिग्रह को कभी नहीं करते हैं, न कराते हैं और न उसकी अनुमोदना करते हैं। समाज के और लौकिक काम का उपदेश तो दूर, उसका विचार भी उनके लिए विष के समान है! ऐसे महापुरुष गृहस्थी में जाने का उपदेश कैसे दे सकते हैं?
महारानी चेलना: अहो! चलते-फिरते सिद्ध परमेष्ठी जैसे मुनिराजों की जय हो! लेकिन महाराज तो भवदेव फिर वहीं रहा? वह घर आया या नहीं?
महाराजा श्रेणिक: जब भावदेव मुनि अपने भाई भवदेव के साथ संघ में पहुँचे तब सभी मुनिराजों ने कहा - “हे भावदेव मुनि! आप धन्य हैं कि आप अपने भाई को भी इस मार्ग में ले आए”
वहाँ के शांत, सुखी वातावरण को देखकर भवदेव सोचने लगा कि - “मैं क्या करूँ? संयम मार्ग का चयन करूँ कि फिर संसार का? अगर घर जाऊँगा तो मुनि के वचन का अपमान होगा और अगर दीक्षा ले लूँगा तो मेरी आज ही जिसके साथ विवाह हुआ है वह मेरी प्रिय स्त्री बहुत दुखी होगी!”
आखिरकार लज्जावश होकर सौधर्म मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहण कर ली और बाल तप करने लगा।
महारानी चेलना: महाराज! यह विषय भोग बहुत ही भयानक हैं! भवदेव भले ही दीक्षित हुआ लेकिन भोग की कामना का शल्य उसे हमेशा डसता होगा। व्याकुल करता होगा! अरे! इस शरीर के भोग जीव को 84 लाख योनियों में भटकाते हैं!
महाराजा श्रेणिक: चेलना, तुम्हारी बात सही है। भवदेव भले ही मुनि हुआ था परंतु अंतर में उसे अपनी स्त्री के साथ लौकिक सुख भोगने की इच्छा हमेशा रहती थी। एक बार उनका संघ ‘वर्धमान’ नगर में फिर आया। भवदेव मुनि छल सहित उसकी पत्नी नागश्री को देखने के लिए एक जिनमंदिर में पहुँचा। वहाँ उसने एक आर्यिका संघ देखा। कपट सहित उस लंपटी भवदेव मुनि ने गोल-गोल घुमाकर आर्यिका संघ से अपनी पत्नी के बारे में पूछा।
महारानी चेलना: ह ा हा! धिक्कार है ऐसे वेशधारी को जो शुद्ध मुनिलिंग को लज्जित करता है! सच ही है! मोक्षमार्ग में पहले भाव से नग्न हुआ जाता है, फिर ही बाहर से नग्नता होती है।
मिथ्यात्व का परित्याग कर, हो नग्न पहले भाव से
आज्ञा यही जिनदेव की, फिर नग्न होवे द्रव्य से ॥७४॥
जिन भावना से रहित मुनि, भव में भ्रमें चिरकाल तक
हों नगन पर हों बोधि-विरहित, दुःख लहें चिरकाल तक ॥७५॥
महाराजा श्रेणिक: और तुम्हें पता है, जिस आर्यिका माता से यह भवदेव अपनी पत्नी के बारे में पूछ रहा था, वही उसकी पत्नी थी! भवदेव के दीक्षित होने के बाद उसकी पत्नी नागश्री ने योग्य निमित्त पाकर जिन आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। लेकिन जब उसने भवदेव मुनिराज की उसके प्रति यह विषयांध दशा देखी तो नागश्री आर्यिका को भवदेव मुनि पर बहुत दया आई और धर्मोपदेश दिया!
महारानी चेलना: अरे! संसार की विचित्रता तो देखिए! जिसके पीछे रात-दिन भाव बिगाड़े वह तो शुद्ध रत्नत्रय से शोभित थी! ओह! जिसने भाव बिगाड़े उसने अपना भव बिगाड़ा!
इसलिए हे संसार के जीवों! अपने परिणामों की संभाल रखो। यह शरीर तो नश्वर है, अपवित्र है, दुःखदायक है; इसमें कुछ भी प्रीति करने जैसा है ही नहीं!
महाराजा श्रेणिक: हे धर्मसंगिनी! तुम्हारे भाव उत्तम हैं, तुम्हारा चिंतन सुंदर है! तुम बिल्कुल सही कह रही हो। नागश्री आर्यिका का धर्मोपदेश सुनकर भवदेव फिर से जिनदीक्षा अंगीकार कर और ज्ञान, ध्यान, तप में आरक्त होकर वर्षों तक निर्दोष मुनिधर्म का पालन किया।
महारानी चेलना: भवदेव और भावदेव मुनीश्वरों का फिर क्या होता है?
महाराजा श्रेणिक: समाधि पूर्वक देह छोड़कर दोनों मुनिराज सनतकुमार स्वर्ग में 7 सागर की आयु वाले देव होते हैं।
महारानी चेलना: हे राजन! उनका फिर क्या ह ुआ?
महाराजा श्रेणिक: भावदेव का जीव देव गति से च्युत होकर महाविदेह की पुंडरीकिणी नाम की नगरी के राजा वज्रदंत का पुत्र सागरचंद्र होता है। भवदेव का जीव महापद्म नाम के चक्रवर्ती का पुत्र शिवकुमार होता है!
एक दिन त्रिगुप्ति मुनिराज का उपदेश सुनकर सागरचंद्र दिगंबर मुनिदीक्षा धारण करते हैं। इस ओर चक्रवर्तीपुत्र शिवकुमार अनेक विद्याओं के स्वामी, अनेक सुख-सामग्री के बीच अपना यौवन व्यतीत करता है।
महारानी चेलना: जैन धर्म का कर्म सिद्धांत तो कुछ अलग ही है! संसार सुख की इच्छा करने वाले दीन-दुखी होते हैं; और मोक्ष सुख की आराधना करने वालों को सांसारिक सुख सहज ही मिलते हुए देखे जाते हैं।
महाराजा श्रेणिक: हाँ प्रिये! और फिर एक बार, मुनिराज सागरचंद्र जब नगर में आहार के लिए आते हैं तब उनकी सौम्य मुद्रा के दर्शन मात्र से शिवकुमार को उसके पूर्वभव का जातिस्मरण हो जाता है! उसे अंतर में वैराग्य की गंगा बहने लगती है, रोम-रोम पुलकित हो जाता है, संसार का किनारा जब मिल गया हो वैसा आनंद आनंद अंतर में होने लगता है!
सागरचंद्र मुनिराज को देखकर ऐसी भावना होती है कि -
“निर्ग्रंथता की भावना, अब हो सफल मेरी, बीते अहो आराधना में हर घड़ी मेरी”
शिवकुमार ने भी गृहस्थ रहकर कई वर्षों तक व्रती रहकर तप किया, और अंत समय में दिगंबर दीक्षा लेकर समाधि धारण की।
महारानी चेलना: हे धर्मनायक! मित्रता हो तो ऐसी! पूर्व भव में भी जैसे भवदेव को सत्य मार्ग में भावदेव लाए, वैसे इस भव में भी मोक्षमार्ग मिलने में भावदेव का जीव ही निमित्त बना! ऐसा लगता है निश्चित ही वे दोनों निकट समय सिद्धालाय में जाकर विराजमान होंगे!
महाराजा श्रेणिक: हाँ! वहाँ से समाधिपूर्वक देह छोड़कर भावदेव का जीव यानी कि सागरचंद्र मुनि छठे स्वर्ग में प्रतिंद्र होता है और भवदेव का जीव यानी कि शिवकुमार मुनि छठे स्वर्ग में विद्युनमाली नाम का इंद्र होता है।
महारानी चेलना: यह विद्युनमाली इंद्र देवगति से अब कहाँ गए? मेरा मन यह जानने के लिए बहुत ही उत्सुक है!
महाराजा श्रेणिक: भगवान की दिव्यध्वनि में आया है कि आज से 7 दिन बाद हमारी ही राजगृही नगरी में अर्ददास सेठ के घर विद्युनमाली का जीव जन्म लेगा! हाँ चेलना! यह कोई और नहीं, बल्कि इस काल के अंतिम केवली भगवान जम्बू स्वामी ही हैं!
महारानी चेलना: ओहो! आनंद भयो! आनंद भयो! मेरा मन आज बहुत ही प्रसन्न है! आज इस कथा का श्रवण करके मन में वात्सल्य और धर्म भावना और अधिक स्फुरित हुई है। चलो आज जिनमंदिर जाकर सभी साधर्मी के साथ भक्ति करें! दान करें, पूजा करें, स्वाध्याय करें!
[ राजा श्रेणिक और रानी चेलना जिनमंदिर की ओर जाते हैं ]
दृश्य 2
Narrator: राजश्रेष्ठ सेठ अर्ददास और उनकी पत्नी जिनमती के यहाँ फागुन सुद पूनम के शुभ दिन प्रातः काल की मंगल बेला में जम्बू स्वामी का जन्म हुआ! पूरे नगर में आनंद और उल्लास से उत्सव हुआ, जय-जय कार होने लगा। सेठ अर्ददास और जिनमती दोनों बहुत ही प्रसन्न थे। और क्यों न हों? उनके घर भावी सिद्ध का अवतार जो हुआ था!
समय के साथ शुभ लक्षण वाले बालक जम्बू स्वामी; यौवन अवस्था को प्राप्त हुए। उनके यौवन की तो क्या बात करें! कभी मदमस्त हाथी को वश में लाते, तो कभी सुंदर गीत गाते, कभी दुष्टों को युद्ध में परास्त करते, तो कभी मित्रों के साथ जलक्रीड़ा करते।
4 अन्य सेठ: हे श्रेष्ठ! आप धन्य हैं। आप जगत में माननीय हैं। आपके यहाँ जगत को पवित्र करने वाले महापवित्र पुत्र जंबुकुमार हैं। हमारी सबकी प्रार्थना है कि आपके पुत्र को उचित जानकर हमारी पुत्रियों का विवाह हमें जंबुस्वामी के साथ कराना है।
[ जिनमती के साथ चर्चा करते हैं]
सेठ अर्ददास: हे सेठ जन! ठीक है! आपकी इच्छा के अनुसार जंबु स्वामी का विवाह आपकी पुत्रियों - पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री के साथ वैशाख सुद तीज यानी कि अक्षय तृतीया के शुभ दिन करेंगे। चलो, हम सब शादी की तैयारी करें!
Narrator: एक बार की बात है। एक दुष्ट रत्नचुल नामक विद्याधर ने एक नगरी नष्ट कर उस पर कब्जा कर लिया था। इस बात की जंबु कुमार को जानकारी हुई। तब उन्होंने राजा श्रेणिक के साथ उस विद्याधर को परास्त कर विजय का शंखनाद फूंका।
[ राजगृही के उपवन में सुधर्माचार्य आते हैं ]
जम्बू स्वामी: हे भगवान! हे गुरुवर! हे नाथ! आपकी जय हो! महाराज, मुझ े इस भव में किस पुण्य के उदय से इतना यश और संपत्ति प्राप्त हुई है? हे मुनिनाथ! कृपा करके मेरी यह जिज्ञासा शांत करें।
सुधर्माचार्य [male voice recording]: हे वत्स! मैं तुम्हारे पूर्वभव की कथा कहता हूँ। उपयोग लगाकर सुनना। एक भवदेव नाम का ब्राह्मण था। उसका भावदेव नाम का बड़ा भाई था। तुम दोनों ने जिनदीक्षा धारण कर समाधि के पश्चात देव हुए। फिर वहाँ से भावदेव का जीव सागरचंद्र राजा और भवदेव का जीव शिवकुमार हुआ। दोनों जीवों ने धर्म आराधना कर फिर से देव हुए।
वहाँ से भावदेव का जीव सुप्रतिष्ठित राजा और रूपवती रानी का पुत्र सौधर्म हुआ। उसके पिता सुप्रतिष्ठित दीक्षित होकर भगवान महावीर के चौथे गणधर हो गए। उसके पिता गणधर को देखकर एक दिन सौधर्म को भी वैराग्य आ गया और मुनिपद धारण कर लिया।
वही मैं भावदेव का जीव सुधर्म नाम से बैठा हूँ और तुम ही वह भवदेव का जीव हो।
जम्बू स्व ामी: हे मुनीश्वर! हे नाथ! आप मेरे अकारण बंधु के समान हैं! इस संसार सागर से तारने वाले हैं। हे स्वामी! मुझे निर्ग्रंथ दिगंबर दीक्षा लेने की आज्ञा दें।
Narrator: अवधिज्ञानधारी आचार्य सुधर्म ने वैराग्यचित्त जम्बू स्वामी को कहा कि उनके माता-पिता आदि बंधुजनों से पूछकर समाधान करके फिर वापस आकर दीक्षा लें। क्योंकि यही दीक्षा लेने का सही क्रम है। यह सुनकर जम्बू स्वामी अपने माता-पिता की आज्ञा लेने घर गए।
दृश्य 3
जम्बू स्वामी: हे माता, मुझे निर्ग्रंथ दिगंबर दीक्षा लेने का भाव हुआ है!
शेठाणी जिनमती: पुत्र! तुम ऐसे कठोर शब्द मुझसे क्यों कह रहे हो? इसके पीछे जो कारण हो वह मुझे बताओ।
जम्बू स्वामी: माता, आचार्य सुधर्म के श्रीमुख से मुझे मेरे पूर्वभव की जानकारी हुई। उससे मुझे इस क्षणभंगुर जगत के प्रति अब बहुत ही निस्सारता प्रत्यक्ष प्रतीत होती है।
सेठ अर्ददास: हे आज्ञाकारी पुत्र! अगर तुम शादी नहीं करोगे और दीक्षित हो जाओगे तो 4 कन्याएँ कभी शादी नहीं करेंगी! पुत्र, मेरी बस एक ही विनती है - तुम विवाह कर लो, उसके बाद तुम्हें जो करना हो वह करना।
जम्बू स्वामी [थोड़ा सोचकर]: हे तात! आपकी आज्ञा के अनुसार ही मैं आचरण करूँगा। आप चित्त में शोक न करें, आपकी जो इच्छा है वह पूरी होगी।
Narrator: जम्बू स्वामी को अंतर में तो वैराग्य था ही, पर पिता के वचन का मान रखकर 4 ही कन्याओं के साथ उन्होंने विधिपूर्वक विवाह किया। अब वह शयनकक्ष में अपनी पत्नियों के साथ बातचीत कर रहे हैं।
दृश्य 4
पद्मश्री: हे स्वामी! हम तो बहुत भाग्यवान हैं कि हमें इतना सुंदर शरीर, धन, संपदा सब कुछ मिला है! चलो ना, आज हम थोड़े भविष्य के सपने सजाएँ! चलो ना; थोड़ा आज जी लें!
जम्बू स्वामी: हे आत्मन! आत्मा को शरीर मानना यही तो जीव तत्व संबंधी भूल है! अगर शरीर ही मेरा नहीं है तो इसके संयोग मेरे कहाँ से होंगे?
[इतने में विद्युतचर चोर महल में प्रवेश करता है। वह आया तो चोरी करने था लेकिन उसे जम्बू स्वामी की तत्व चर्चा सुनने में रुचि हो जाती है।]
कनकश्री: पर, वह सब तो जो होता है; पर यह जीवन है बहुत छोटा। और लोग में कहा भी जाता है ना कि - “ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं”। जितना समय है उतना तो मौज करके बिताना चाहिए!
जम्बू स्वामी: अरे! यह आत्मा तो अनादि अनंत शाश्वत है! ध्रुव है! यह बात नहीं पता होने से यह जीव इस महादुर्लभ मनुष्य भव को विषय भोगों में बर्बाद कर नरक निगोद में चला जाता है; और अन ंत दुखी होता है। हे मोक्षार्थी! इस शरीर को आत्मा मानना यह तो अजीव तत्व संबंधी भूल है।
विनयश्री: देखिए, मुझे तो इतना पता है कि हमारे परिणामों में उतार-चढ़ाव तो आता ही रहता है। कभी अच्छे तो कभी खराब। इसमें क्या दुखी होना?
जम्बू स्वामी: शुभ-अशुभ ऐसे आश्रव भाव जो प्रत्यक्ष दुःख रूप हैं उन्हें सुखरूप मानना यह तो आश्रव तत्व संबंधी भ्रांति है! इन सब से भिन्न एक शुद्ध भाव ही सुख का कारण है!
रूपश्री: पर हम कहाँ पूरा जीवन भोगों में लगाएँगे? बूढ़े होंगे तब करेंगे ना सारी यात्राएँ, विधान और शिविर। हमें स्वर्ग तो मिल ही जाएगा!
जम्बू स्वामी: पुण्य-पाप बंध के फल स्वरूप संयोगों को अच्छा लगना और उसकी वांछा तो बंध तत्व संबंधी भूल है। अरे! वह तो संसार बढ़ाने का काम है!
[शेठाणी जिनमती विद्युतचर चोर को पकड़ लेती है]
शेठाणी जि नमती: दुष्ट! मुझे बता! तू कौन है? और यहाँ छिपकर क्या कर रहा है?
विद्युतचर चोर: मैं चोर हूँ! जगतप्रसिद्ध विद्युतचर चोर! मैं आपके यहाँ चोरी करने आया था। पर मुझे आपके पुत्र जम्बू स्वामी की बातों में रुचि हो गई।
शेठाणी जिनमती: पर तेरे वेश से लगता नहीं कि तू चोर है! सच बोल तू कौन है! वरना!
विद्युतचर चोर: हाँ, हाँ - वैसे मैं राजघराने का हूँ। मुझे सारी कलाएँ आती थीं पर बस चोरी करना ही नहीं आता था। इसलिए वह सीखने मैं बड़े-बड़े महलों में जा-जाकर चोरी करता हूँ। यह तो मेरा शौक है, शौक!
शेठाणी जिनमती: अच्छा ऐसा है…ठीक है… (अनुत्साह के साथ, मुरझाकर)
विद्युतचर चोर: पर आप दुखी लग रही हैं? कोई विशेष कारण? कोई चिंता?
शेठाणी जिनमती: अरे मैं क्या बताऊँ तुम्हें! मुझे तो मेरे पुत्र की बहुत चिंता हो रही है। वह तो संसार से वैराग्य पा गया है और वह दीक्षा लेने की बातें कर रहा है। देखो ना तुम कुछ उसे समझा सको तो?
विद्युतचर चोर: बस इतना? आप बिलकुल चिंता न करें। आज से आप मेरी बहन हैं। मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं जम्बू स्वामी को समझाकर ही रहूँगा कि वह दीक्षा न लें। और अगर मैं असफल रहा तो फिर मैं अपना सब कुछ छोड़कर जो जम्बू स्वामी करेंगे वही करूँगा!
[ विद्युतचर चोर जम्बू स्वामी के कक्ष में जाता है]
विद्युतचर चोर: जम्बू बेटा! जम्बू बेटा! बोलो कैसे हो! तुम्हें शादी की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
जम्बू स्वामी: धन्यवाद। पर क्षमा करेंगे, मैंने आपको पहचाना नहीं। आप कौन हैं?
विद्युतचर चोर: मैं तुम्हारा मामा ‘विद्युतचर’! तुम जन्मे थे ना उसके पहले ही मैं दूर देश व्यापार के लिए चला गया था। इसलिए तुम मुझे पहचानते नहीं होगे! पर मुझे यह तो बताओ कि आप सब यहाँ क्या कर रहे हैं? कुछ रोचक विषय पर चर्चा चल रही है ऐसा लगता है।
जम्बू स्वामी: अच्छा ऐसा है। मामा, हम सब तत्वचर्चा कर रहे हैं। बात यह चल रही है कि पुण्य-पाप के फल की इच्छा यह जीव को कैसे संसार में भटकाती है। आपका इस बारे में क्या मानना है?
विद्युतचर चोर: अरे पुत्र! यह तो अभी तुम्हारी कोई उम्र है यह सब सोचने की? अभी से थोड़ा सब कुछ छोड़कर सन्यास लेकर हिमालय चले जाते हैं? पूर्व भव में तुमने तप किया इसलिए तो आज इतनी सुख-सामग्री मिली है। उसे अच्छी तरह भोगो तो सही!
जम्बू स्वामी: मामा! आप यह क्या कह रहे हैं? भेदविज्ञान और तप तो सुख का कारण है, दुःख का नहीं। इससे विपरीत मानना यह तो संवर और निर्जरा तत्व संबंधी भूल है! इस जीव का मोह ही संसारमार्ग में सुख और मोक्षमार्ग में दुःख मानता है!
विद्युतचर चोर: पर प्रिय भांजे, जो सब संयोगों के सुख यहाँ प्रत्यक्ष मिल रहे हैं उन्हें छोड़कर तुम मोक्ष में सुख मिलेगा उसकी आशा क्या करने रखते हो? जितना मिला है पहले वह तो भोगो। और मोक्ष कहाँ चला जाता है?
जम्बू स्वामी: जैसा स्वभाव है वह पूर्णरूप से प्रकट होना यही तो मोक्ष दशा है! मोह राग द्वेष तो आत्मा के विभाव हैं जिनके कारण वह दुखी है। संसार में सुख लगना यह तो मोक्ष तत्व संबंधी भूल है! सच में! ऐसा कोई मूर्ख ही होगा जो अनंत सुख को छोड़कर क्षणिक सुखभास को भोगना चाहेगा!
विनयश्री: पर स्वामी, इन सात तत्वों का यथार्थ निर्णय होने से क्या होगा?
जम्बू स्वामी: अनंत संसार का पार आ जाएगा। मोक्षमार्ग शुरू हो जाएगा। अल्प काल में ही मोक्षलक्ष्मी को वरण कर यह जीव सिद्ध दशा प्रकट कर लेगा! अहो! सम्यग्दर्शन की महिमा तो अद्भुत है!
दृश्य 5
Narrator: तत्व चर्च ा करते-करते सुबह हो जाती है। जम्बू स्वामी अपने गुरु सुधर्माचार्य के पास दीक्षा लेने जाते हैं। उनके माता-पिता, चारों पत्नियाँ उन्हें रोकने, समझाने के बहुत प्रयत्न करते हैं। सम्यक रूप से वैराग्यचित्त जम्बू स्वामी इस क्षणिक संसार को उच्छिष्ट जानकर साधना के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं।
जम्बू स्वामी: हे दयासागर! मैंने इन 84 लाख योनियों में बहुत भटक लिया है। अब मुझे इस संसार समुद्र से पार उतरना है। कृपा करके मुझे संसार-हरण करने वाली पवित्र, उपादेय, कर्मक्षय समर्थ मुनिदीक्षा प्रदान करें।
Narrator: “परिग्रह पोट उतार सब लीनो चारित पंथ,
निज स्वभाव में लीन भये, जम्बू स्वामी निर्ग्रंथ”
सेठ अर्ददास: मैं भी वैराग्यवान हुआ हूँ! सारे परिग्रहों को त्याग कर मैं भी जिनदीक्षा धारण करूँगा!
शेठाणी जिनमती: एकमात्र आत्मा में ही सुख है! और कहीं नही ं। मैं भी आर्यिका दीक्षा लेकर आत्मा की आराधना करूँगी।
रूपश्री (और सभी स्त्रियाँ एक साथ): हमें पर में सुख है ऐसी भ्रांति थी। पर आज समझ आया है कि मैं तो स्वभाव से ही सुखमय हूँ! मैं तो ज्ञानानंद स्वभावी हूँ! अब मैं भी आर्यिका दीक्षा धारण करूँगी!
विद्युतचर चोर: मैंने पंच परावर्तन रूपी संसार में सारी कलाएँ सीखीं। पर कहीं भी तृप्ति नहीं मिली। वास्तव में ध्रुव स्वभाव में रमण की कला ही सच्ची कला है! बस वही है जो जीव ने अनादि से कभी सीखी नहीं है! मैं भी अब निर्ग्रंथ दिगंबर दीक्षा अंगीकार करके भगवान बनूँगा!
महाराजा श्रेणिक: अहो! यह तो कैसा अनोखा दृश्य है! मानो जम्बू मुनिराज का अनुकरण कर परिवार के सभी जीव वैराग्य को पाकर मोक्षमार्ग में आ गए! सच ही कहा है - “आराधक ही सच्चा प्रभावक होता है”
महारानी चेलना: हाँ स्वामी! आत ्मिक सुख ही तो वैराग्य का आधार है। ‘मैं परमात्मा हूँ’ इस बात की जब अंतर में प्रतीति होती है, तब सहज ही समस्त जगत के प्रपंच असार लगने लगते हैं। ऐसी उदासीनता ही सच्ची उदासीनता है! यही सच्चा वैराग्य है! जय हो! जय हो!
Narrator: थोड़े ही समय में सुधर्माचार्य को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। उनके चरण कमल में रहकर जम्बू मुनिराज ने घोर तप साधना की। और जिस दिन सुधर्मा स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति हुई, उसी दिन जम्बू मुनिराज ने 4 घाति कर्मों का नाश कर अरिहंत दशा प्रकट की।
अरे! देखिए तो सही भवदेव और भावदेव के जीव ही सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी हुए!
धन्य है गुरु-शिष्य संबंध! धन्य है यह साधर्मी प्रेम! धन्य हैं वे साधर्मी जीव जो एक-दूसरे को धर्म मार्ग में लगाते हैं! धन्य है स्थितिकरण और वात्सल्य अंग! धन्य है यह आत्म की आराधना!
और फिर, शु क्ल ध्यान की अग्नि प्रज्वलित कर जम्बू स्वामी 8 कर्मों को भस्म कर विपुलाचल पर्वत पर से ध्रुव अचल और अनुपम दशा प्राप्त की!
तो बोलिए;
भगवान सुधर्मा स्वामी की - जय हो!
इस काल के अंतिम अनुबंध केवली; भगवान जम्बू स्वामी की - जय हो!
पात्र (Characters):
- महाराजा श्रेणिक
- महारानी चेलना
- जम्बू स्वामी
- सेठ अर्ददास
- शेठाणी जिनमती
- रूपश्री
- कनकश्री
- विनयश्री
- पद्मश्री
- विद्युतचर चोर
- Narrator
प्रॉप्स (Props):
- स्क्रीन विजुअल्स (Screen visuals)
- बैकग्राउंड इफेक्ट्स (Background effects)
- बैठने के लिए पाट (Seats for sitting)
स्क्रिप्ट लेखक (Script by): सोहम शाह, वस्त्रापुर, अहमदाबाद
संदर्भ (Reference): श्री जम्बू स्वामी चरित्र, प. राजमाल जी