द्रव्य संग्रह
प्रस्तावना
मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या हैं? इस विश्व में क्या हैं? वह किससे बना हैं? उसका वास्तविक स्वरुप क्या हैं? मैं इस संसार में क्यों हूँ? इससे छूटने का उपाय क्या हैं?
यदि वस्तु स्वरुप का यथार्थ ज्ञान न हो तो जीव को कभी भी सच्चा सुख नहीं प्राप्त हो सकता, आत्मदर्शन नहीं हो सकता। ‘लोक स्वरुप विचारिके आतम रूप निहारी’ - अर्थात विश्व जिससे बना हैं ऐसे ६ द्रव्य का सम्यक ज्ञान करने से ही आत्मा का स्वरुप जानने में आता हैं। मैं कौन हूँ, मैं क्यों बंधा हुआ हूँ, मुक्ति का मार्ग क्या हैं इसका उत्तर ७ तत्त्वों के वास्तविक स्वरुप को जानने में ही छिपा हुआ हैं।
इसलिए जीवादि ७ तत्त्व और ६ द्रव्य का यथार्थ निर्णय, श्रद्धान को ही मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी अर्थात सम्यक्त्व कहा गया है ं। और इनके सम्यक निर्णय को इसी वजह से इनको आत्मार्थी जीव के लिए एकमात्र प्रयोजन भी बताया गया हैं!
‘द्रव्य संग्रह’ ग्रन्थ अपने आप में एक अलौकिक रचना हैं। मात्र ५८ गाथा में ६ द्रव्य, ७ तत्त्व, मोक्षमार्ग का निरूपण और ध्यान का स्वरुप जैसे मूल प्रयोजनभूत विषयों पर प्रकाश किया गया हैं। मुनि नेमीचंद सिद्धांतिदेव ने मालव देश में रहने वाले सोम नामक सेठ का निमित्त पाकर मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के मंदिर में २६ गाथा प्रमाण लघु द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करके सोम सेठ को शुद्ध आत्मज्ञान द्वारा आत्मा के सुखामृत का अनुभव किया और मोक्षमार्ग के विषय को और विशेषरूप से जानने का इच्छुक था। इसलिए फिर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने ५८ गाथा प्रमाण बृहद द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की रचना की जिसमे विशेष तत ्वज्ञान का वर्णन हैं। इस महान ग्रन्थ पर आचार्य ब्रह्मदेव जी सुरि ने टिका लिखी हैं।
ऐसे अद्भुत ग्रन्थ का स्वाध्याय करके हम भी परम भाव को प्राप्त हो जावे ऐसी मंगल भावना के साथ ग्रन्थ का संक्षिप्त वर्णन प्रारंभ करते हैं।
द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ का सार
प्रयोजन भूत तत्त्व जिन बताये हैं सात,
जीव के नव अधिकारों की जिसमे हैं बात,
अजीव तत्त्व के भेद जाने हम पांच,
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।
आस्रव बंध बताये हैं हेय सभी,
संवर निर्जरा प्रगटाने हैं योग्य कहा,
मोक्ष ही हैं तो सत शिव आनंदकार,
व्यवहार निश्चय से सुंदर निरूपण किया।
एक शुद्धात्मा ही हैं एक ही सार,
मोक्षमार्ग प्रकाशन हो मंगलकार,
व्यवहार निश्चय से दो निरूपण यह किये,
मार्ग एक ही होता, यह निश्चय से जान।
सम्यग्दर्शनज्ञानचरित महान,
तीन रत्नों को सम्यक धारण करें।
देखना हो शुद्धातम को जो यदि,
ध्यान ही तो हैं इसका मात्र साधन,
ध्यान से मोक्ष के कारण होते हैं सिद्ध,
सिद्ध होते भी तो हैं इसी ध्यान से।
राग द्वेष मोह तम नाश करें,
तो लीन भये, ध्यान ज्योति जगे,
पंच परमेष्ठी का सत रूप पिछान,
वह जानत ही निज रूप लखे,
ध्यान हो इन परमेष्ठी का ही सतत,
ध्यान ध्येय ध्याता सब एक भये।
स्थिर होना स्वयं में हैं उत्कृष्ट ध्यान,
सब विकल्प तजे, निर्विकल्प हुए,
निज आतम में ही बस रहना हैं लीन,
निज आतम का रस करना हैं पान।
श्रुत व्रत तप जिनने हैं धारण किये,
वे ही तो धारे ध्यान रथ की धुरा,
ध्यान परम हैं ये सुख शांति कर्ता,
ध्यान परम चहुँ गति दुःख को हर्ता,
ध्यान परम परम पद में हैं धरता,
ध्यान परम से होती हैं सिद्ध दशा।