मोक्षमार्ग प्रकाशक - Adhikaar 1 and 2
मंगलाचरण
मंगलमय मंगलकरण, वीतराग विज्ञान।
नमौं ताहि जातैं भये, अरिहंतादि महान ।१।
करि मंगल करिहौ महा, ग्रंथकरनको काज।
जातैं मिले समाज सर्व, पावैं निज पद राज।२।
ग्रन्थ और ग्रंथकर्ता का सामान्य परिचय
यहाँ श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के पहिले और दूसरे अधिकार का मैं संक्षिप्त वर्णन करनेका प्रयास करूँगा। जैसे इस ग्रन्थ का नाम हैं - “मोक्षमार्ग प्रकाशक” वैसा ही उसका प्रभाव मोक्षार्थी जीव के जीवन में पड़ता हैं। जो शांतचित्त से, अहोभाव से और परिक्षाप्रधानी बनकर इस ग्रन्थ को पढ़ा जाए तो मोक्षमार्ग इस जीव को निश्चय से प्रकाशित होता हैं।
इस ग्रन्थ के कर्ता आत्मज्ञानी आचार्यकल्प पंडित टोडरमल जी ने हम मंदबुद्धि जीवो पर करुणावश अनंत उपकार किया हैं। जितनी यह ग्रन्थ में गहराई और गूढ़ तत्वज्ञान का विवेचन हैं उतनी ही सुगम और लॉजिक से समाज आनेवाली पंडितजी शैली भी हैं। पंडित साहब का क्षयोपशम कुछ अलग ही था, अनेक ग्रंथो का अभ्यास था, अनेक ग्रंथ की टिका की रचना भी उन्होंने की थी, पद्य रचना में भी वह निपुण थे, करणानुयोग के ग्रंथो की उनको सूक्ष्म पकड़ भी थी और जैन व् जैनोत्तर साहित्य का भी उनको विशेष ज्ञान था। और कितना कहे? ज्ञानी के जीवन से तो सब कुछ सीखा जा सकता हैं। डॉ हुकमचंद भारिल्ल द्वारा रचित “पंडित टोडरमल: व्यक्तित्व और कर्तुत्व” में पंडित साहब के जीवन का विशेष रूप से वर्णन किया गया हैं, जो पढ़ने योग्य हैं।
मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ एक अपूर्ण ग्रन्थ हैं। इसे एक अपेक्षा से हमारा दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हम इस ग्रन्थ का पूर्ण लाभ लेने के अधिकारी न हो सके। पर जितना हमारे पास मौजूद हैं उतने पद अपने आप में पूर्ण हैं, पूर्ण दशा को प्रगट करने में कुछ कम नहीं हैं।
यह ग्रन्थ में ९ अधिकार प्राप्त हैं जिसमे उनकी विषय वस्तु इस प्रकार से हैं -
अधिकार १. पीठबंध प्ररूपक अधिकार (preface)
अधिकार २. संसार अवस्था का स्वरुप
अधिकार ३. संसार दुःख तथा मोक्षसुख का निरूपण
अधिकार ४. मिथ्यादर्श न-ज्ञान-चारित्र का वर्णन
अधिकार ५. विविधमत समीक्षा
अधिकार ६. कुदेव कुगुरु कुधर्म का प्रतिषेध
अधिकार ७. जैन मिथ्यादृष्टि का विवेचन
अधिकार ८. उपदेश का स्वरुप
अधिकार ९. मोक्षमार्ग का स्वरुप
इस प्रकार हमे इस मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त की।
अधिकार १: पीठबंध अधिकार
मंगलचरण में वीतराग विज्ञान - जो परम पूज्य हैं, जिसमे सारा जिनागम समाहित हैं, जो अरिहन्तादि पद हैं वे “वीतराग विज्ञान”-मय होने से ही स्तुति करने योग्य महान हुए हैं; ऐसे अरिहंतादि को नमस्कार करके मंगलाचरण करते हैं। ऐसा मंगल करके ग्रन्थ लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं और उसके फल में “समाज सर्व” अर्थात आत्मा के सर्व गुण की पूर्णता रूप प्राप्ति हो और निजपद की प्राप्ति हो ऐसा भाव प्रस्तुत करते हैं।
जो भी जैन कुल में जन्मा हैं उसने कुछ जाने न जाने पर “णमोकार” मन्त्र तो जानता ही हैं। मंदिर आदि में उसका उच्चारण भी करता हैं। पर पंडित साहब कहते हैं कि उस मन्त्र में जिनको नमस्कार किया हैं उनके स्वरुप को न जाने तो उत्तम फल की प्राप्ति कैसे हो? जैसे तोता “राम राम” बोलता तो हैं पर राम का अर्थ “मिर्ची” होता हैं या कुछ और? अर्थात जो बोलता हैं उसका ज्ञान नहीं हैं तो उसके “राम राम” उच्चारण करने से क्या लाभ हुआ?
इसमें एक और बात द्रष्टव्य हैं; अरिहंत भगवान के स्वरुप के लिए “विचार”, सिद्ध परमेष्ठी के लिए “ध्याते” और आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी के स्वरुप के लिए “अवलोकन” शब्द का उपयोग किया हैं।
अरिहंत परमेष्ठी का स्वरुप
- अनंत चतुष्टय प्रगट हुए हैं
- ४ घाती कर्म का क्ष य
- राग द्वेष विकारो से मुक्त
- क्षुधा आदि १८ दोष से रहित
- ३४ अतिशय से युक्त हैं
सिद्ध परमेष्ठी का स्वरुप
- ८ कर्म से रहित दशा
- शरीर को छोड़कर ऊर्ध्वगमन स्वभाव से सिद्धशिला में बिराजमान हुए हैं
- किंचित न्यून पुरुषाकार (इससे स्त्री मुक्ति निषेध की सिद्धि हुई)
- ८ गुण प्रगट हुए हैं
- भाव कर्म का भी अभाव हुआ हैं
- जिनका ध्यान करने से परद्रव्य-स्वद्रव्य व औपाधिक-स्वभावभावो का विज्ञान होता हैं
- जिनके द्वारा उन सिद्धो के सामान स्वयं होने का साधन होता हैं
- कृतकृत्य दशा को प्राप्त हैं
आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्ठी का सामान्य स्वरुप
- शुद्धोपयोग रूप मुनिधर्म
- परभावो में ममत्व नहीं करते
- अपने उपयोग को बाहर नहीं भमाते
- उदासीन होकर निश्चलवृत्ति धारण करते हैं
- अशुभ उपयोग का अस्तित्व नहीं होता
- २८ मूलगुण का पालन करते हैं
- १२ तप तपते हैं
आचार्य परमेष्ठी का स्वरुप
- मुख्य तो निर्विकल्प स्वरूपाचरण में ही मग्न रहते हैं
- करुणावश धर्मोपदेश देते हैं
- दीक्षा आदि देते हैं
- संघ का संचालन करते हैं
उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरुप
- शास्त्रों के ज्ञाता
- पठन पाठन के अधिकारी
साधु परमेष्ठी का स्वरुप
- आत्मस्वभाव के साधक
- तपश्चरण आदि क्रिया में प्रवर्तन करते हैं
पंच परमेष्ठी का स्वरुप बताकर अब पूज्यत्व का कारण बताते हैं -
पूज्यत्व का कारण
“वीतराग विज्ञान” ही पूज्यत्व का कारण हैं।
“रागादिक विकारों से और ज्ञान की हीनता से तो जीव निंदनीय होता हैं,
रागादिक विकारों हीनता से और ज्ञान की विशेषता से जीव स्तुतियोग्य होता हैं।”
अरिहंत सिद्ध - सम्पूर्ण राग की हीनता + सम्पूर्ण ज्ञान की विशेषता
आचार्य उपाध्याय और स ाधु - एकदेश राग की हीनता + एकदेश ज्ञान की विशेषता
पूज्यत्व का कारण बताकर पंडित जी सर्व पूज्य पदों को नमस्कार करके मंगल करते हैं।
यहाँ हमे “प्रयोजन” की सुन्दर परिभाषा प्राप्त होती हैं -
“जिससे सुख उत्पन्न हो और दुःख का विनाश हो उसे प्रयोजन कहते हैं”
अभी कोई प्रश्न करे के “अरिहंतादिक से प्रयोजन सिद्धि कैसे होती हैं?”
अरिहंतादिक से प्रयोजन सिद्धि
आत्मा के ३ प्रकार के परिणाम हैं
१. तीव्र कषाय रूप संक्लेश
- तीव्र कर्म बंध
- पापादि कार्यो से ये परिणाम होते हैं जिनका फल दुःखदायी हैं
२. मंदकषाय रूप विशुद्ध
- मंद कर्म बंध + पूर्व तीव्र बंध को भी मंद कर देता हैं
- पुण्य कार्य जैसे अरिहन्तादि के स्तवन से ये परिणाम होते हैं
३. कषाय रहित शुद्ध
- कोई कर्म बंध नहीं और पूर्व कर्मो की निर्जरा
- वीतराग विशेष ज्ञान इन परिणाम से प्रगट होता हैं
अरिहंत आदि के स्वरुप का विचार, आकर का अवलोकन या वचन आदि सुनने से तत्काल ही रागादि हीनता, जीवाजीव आदि के विशेषज्ञान को प्राप्त होते हैं और जो मूल प्रयोजन “वीतराग विज्ञानता” हैं वह सिद्ध होता हैं (या उसकी तरफ जीव का पुरुषार्थ उठता हैं)।
क्या अरिहंतादिक से इन्द्रियजनित सुख भी प्रगट होता हैं?
जैसे बताया, विशुद्ध परिणाम से असाता आदि मंद बंध होता हैं और पूर्व कर्म को भी मंद / संक्रमित करता हैं इस प्रकार से कह सकते हैं के उनके स्वरुप आदि का चिंतन मनन से बाहरी सामग्री भी प्राप्त होती दिखाई देती हैं। पर इन सब से कुछ अपना हित नहीं होता।
मंगलाचरण करने का कारण
मंगलाचरण = मंग (सुख) + लाति (देता हैं)
अथवा
मंगलाचरण = मं (पाप) + गालयति (दूर करता हैं)
“सुख से ग्रंथ की समाप्ति हो, पापके कारण कोई विघ्न न हो, इसलिए यहाँ प्रथम मंगल किया हैं”
अन्यमती इस प्रकार मंगलाचरण नहीं करते तो भी उनके ग्रन्थ की समाप्ति कैसे होती हैं इसका भी सुन्दर वर्णन यहाँ प्राप्त होता हैं। अनेक कर्म सिद्धांत के द्वारा इन प्रश्नों का उत्तर पंडितजी ने भली प्रकार दिया हैं।
अंत में इस विषय में वे कहते हैं कि -
“सुख होने की, दुःख न होने की, सहाय कराने की, दुःख दिलाने की जो इच्छा हैं वह कषायमय हैं, तत्काल तथा आगामी काल में दुःखदायक हैं। इसलिए ऐसी इच्छा को छोड़कर हमने तो एक वीतराग-विशेषज्ञान होने के अर्थी होकर अरिहंतादिक को नमस्कारादिकरूप मंगल किया हैं।”
ग्रंथ की प्रमाणिकता
अक्षर अनादि से हैं , स्वयंसिद्ध हैं। उन अक्षरों से उत्पन्न जो सत्यार्थ के प्रकाशक पद के समूह को श्रुत कहते हैं। जिस प्रकार स्वयंसिद्ध मोती को गूंथकर गहना बनता हैं, वैसे ही स्वयंसिद्ध सत्यार्थ पदों को गूँथ कर ग्रंथ बनाया जाता हैं।
यहाँ पंडितजी कहते हैं कि वे अपनी मति-कल्पना के आध ार से जूठे पदों को इस ग्रन्थ में नहीं गूंथेंगे।
आगम परंपरा
- अनादि से तीर्थंकर केवली होते आये हैं, उनको सर्व का ज्ञान होता हैं
- उनकी दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा उपदेश होता हैं जिससे अन्य जीवो को पदों का और अर्थो का ज्ञान हो
- गणधरदेव अंगप्रकीर्णकरूप ग्रन्थ गूंथते हैं
- उनके अनुसार अन्य आचार्य आदि नानाप्रकार से ग्रन्थ की रचना करते हैं
इस काल में
- भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि से
- गौतम गणधर ने अंगप्रकीर्णकरूप ग्रन्थ की रचना की
- ३ अनुबद्ध केवली
- ५ श्रुतकेवली
- आचार्य आदि द्वारा अनेक ग्रन्थ लिखे गए
ग्रन्थ की व्युच्छिति के कारण
- दुष्टों द्वारा नाश
- महान ग्रंथो के अभ्यास न होने से
- बुद्धि की मंदता से अभ्यास नहीं हो पाने से
इसके पश्चात पंडित जी अपने स्वाध्याय आदि की चर्चा भी करते हैं।
असत्यपद रचना प्रतिषेध
- असत्या र्थ पद की रचना तीव्र कषाय के बिना नहीं हो सकती, और जैन कुल में ऐसे तीव्र कषायी नहीं होते। अरिहंत, सिद्ध तो पूर्ण ज्ञानी हैं; आचार्य, उपाध्याय और साधु को तीव्र कषाय का अभाव हैं तो वह असत्य पद रचना कैसे करेंगे? और जो श्रद्धनी गृहस्थ हैं जो ग्रन्थ बनाता हैं वह जैनधर्म में रुचिवन्त हैं तो फिर वह तीव्र कषायी कैसे होगा?
- जो कोई जैनाभासी होकर असत्य पद मिलाये तो उसे जैसे माला में से जोहरी असत्य मोती कोई पहचान कर निकाल देता हैं, वैसे ही भविष्य में ज्ञानी होंगे जो असत्य पद का निषेध करके उनकी परंपरा आगे नहीं बढ़ने देंगे
- जो कोई अन्यथा अर्थ भासित हो और उससे असत्यार्थ पद मिलाये तो आचार्य आदि मूल परंपरा अनुसार हैं सम्यग्ज्ञान सहित होने से अन्यथा ग्रन्थ नहीं बनाते। जिस विषय का ज्ञान न हो, उसकी रचना नहीं करते। जो कुछ असत्यार्थ भासित हो तो उसका सही अर्थ करके असत्य का निषेध करते हैं
इस प्रकार शास्त्र की प्रामाणिकता का निर्णय करने का बोध प्राप्त हुआ।
वांचने सुनने योग्य शास्त्र
- जो शास्त्र मोक्षमार्ग का प्रकाशक करे
- एक वीतरागभाव का पोषण करे
- अतत्वश्रद्धानका पोषण करके मोहभाव का प्रयोजन करे वे शास्त्र नहीं शस्त्र हैं
वक्त का स्वरुप
- जैन श्रद्धा में दृढ हो (श्रद्धान ही सर्व धर्म का मूल हैं)
- व्यवहार-निश्चय आदि व्याख्यान के अभिप्राय को पहचानता हो
- सूत्रविरुद्ध उपदेश न दे
- शास्त्र वांचकर आजीविका नहीं चलाता हो
- तीव्र क्रोध-मान आदि नहीं हो
- लोकनिंद्य कार्य नहीं करता हो
- विशेष लक्षण का धारी हो
- अध्यात्मरस द्वारा यथार्थ अपने स्वरुप का अनुभव हुआ हो (आत्मज्ञानी हो)
श्रोता का स्वरुप
- स्वरूप का चिंतवन करने वाला हो
- अतिप्रीतिपूर्वक शास्त्र को सुनता हैं
- पूछनेयोग्य पूछता हैं
- गुरुओ के कहे अर्थ को अंतरंग में बारम्बार विचार करता हैं
- जैन धर्म का गाढ़ श्रद्धनी
- धर्मबुद्धि से निंद्य कार्यो के त्यागी हुए हैं
- विविध शास्त्रों का ज्ञान हो
मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ की सार्थकता
ये जीव संसार में अपनी भूल से (और कर्म निमित्त से) अत्यंत दुखी हैं। मिथ्या अन्धकार के कारण उसे सुखी होने का मार्ग दिखाई नहीं देता और महा तड़प के दुखो को भोगते हैं।
तीर्थंकर केवली भगवनरुपी सूर्य के उदय से, उनकी दिव्यध्वनि की किरणों से मुक्त होने का मार्ग प्रकाशित हुआ। “अनात्मार्थं विना रागे शास्ता शास्ति सतो हितम” - बिना राग से तीर्थंकर मोक्षमार्ग को प्रकाशित करते हैं (भव्य जीवो के भाग्य से / अघाती कर्म के उदय से दिव्यध्वनिरूप परिणमन होता हैं)
गणधरदेव ऐसे सूर्य का अस्तपना होगा तो जीव मोक्षमार्ग को कैसे प्राप्त करेंगे ऐसा विचार करके अंगप्रकीर्णकरूप महान दीपक का उद्योत करते हैं। और ये परंपरारूप से अनेक आचार्य आदि से ग्रंथ रूप आज हमे प्राप्त हैं।
यह मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ भी पूर्व बताये हुए भव्य जीवो के कल्याण स्वरुप मोक्षमार्ग को प्रकाशित करता हैं, इसलिए इसका यह नाम सार्थक हैं।
अंत में पंडित जी ग्रंथ अभ्यास की उपयोगिता के सन्दर्भ में कई बाते कहते हैं। और इस ग्रन्थ के स्वाध्याय में प्रवर्तन करने का उपदेश देते हैं; और इससे हमारा अवश्य कल्याण होगा ऐसा कहकर इस पीठबंध प्ररूपक अधिकार के विवेचन को विराम देते हैं।
अधिकार २: संसार अवस्था का स्वरुप
संसार अवस्था के स्वरुप का वर्णन इस अधिकार का मुख्य हेतु हैं। मोक्षमार्ग का प्रकाश इस अधिकार से प्रारम्भ होता हैं - जहाँ प्रथम तो संसार का स्वरुप कैसा हैं, कर्मबन्धन से जीव की क्या अवस्था हैं, कौनसे दुःख सहने पड़ रहे हैं आदि का वर्णन हो, उससे जीव को संसार में असारता भासित हो तो उसका उपाय करे और कर्मबंधन रहित मोक्ष अवस्था को प्राप्त हो।
यहाँ वैद्य के उदाहरण से कर्मबंधन रुपी रोग समझाया गया हैं के -
वैद्य रोगी व्यक्ति का प्रथम रोग का निदान (कारण) बताता हैं, फिर उस रोग से हुई अवस्था को बताता हैं, पश्चात उसके उपाय अनेक प्रकार से बताता हैं और उस उपाय की प्रतीति करवाता हैं। जो उस उपाय अनुसार रोगी अनुसरे तो वह भी रोग से मुक्त होकर अपने स्वभावरूप प्रवर्तन कर सकता हैं - यह रोगी का कर्तव्य हैं। जो अपना कर्तव्य न निभावे तो नुकसान स्वयं का ही होगा और रोग से युक्त लोक में दुःख सहता फिरेगा। यहाँ जैसे किसी को खाज का रोग हो तो उसे खुजली करके सुख नहीं सुखाभास होता हैं (क्योंकि सुख तो रोग न होने में स्वभावरूप रहने में हैं); वैसे ही जीव को विषयों में अपनी इच्छा पूर्ति होने पर सुखाभास होता हैं, वह वास्तविक सुख नहीं हैं (क्योंकि सुख तो मोक्ष में हैं, स्वभावरूप परिणमन करने में हैं)।
इस प्रकार जीव का कर्तव्य कर्मबन्धन से छूटकर मोक्षपद (स्वपद) पाने का ही हैं।
कर्मबन्धन का निदान
अनंत संसारी जीवों को अनादि से कर्मबन्धन पाया जाता हैं। इस कर्मबंधन होने से नाना औपाधिक भावो में परिभ्रमणपना पाया जाता हैं, एकरूप रहना नहीं होता - इसलिए इस अवस्था का नाम संसार अवस्था हैं।
कर्म के अनादिपने की सिद्धि के कुछ तर्क
- निमित्त कारण अनादि वस्तु में नहीं लागू पड़ता; अर्थात उसका अनादिसिद्ध वस्तु में कोई प्रयोजन नहीं हैं
- कर्म निमित्त बिना जो जीव के रागादि भाव कहे जाए तो रागादि जीव का स्वभाव हो जायेगा जो तर्कसंगत नहीं हैं
- पाषाण में सोने का, लवणसमुद्र में लवण का, तिल में तेल का, दूध में जल का जुडानरूप सम्बन्ध देखा जाता हैं, भिन्न होनेपर भी नवीन मिलाप नहीं हुआ उसी प्रकार आत्मा और कर्म का भिन्न होनेपर भी अनादि सम्बन्ध जानना
जीव और कर्म की भिन्नता
- जीव द्रव्य चेतन स्वरूपी हैं, अमूर्तिक हैं, संकोचविस्तार शक्ति सहित हैं, एक हैं और कर्म जड़ हैं, मूर्तिक हैं, अनंत पुद्गल परमाणु का पिंड हैं
- अनादि सम्बन्ध होनेपर भी भिन्न ही हैं
- एक इन्द्रियगम्य मूर्तिक और एक इन्द्रिय अगम्य अमूर्तिक का बंध कैसे होता हैं? जैसे सूक्ष्म इन्द्रिय अगम्य परमाणु का इन्द्रिय गम्य शरीर के साथ सम्बन्ध मानते हैं वैसे ही सूक्ष्म पर उदय अपेक्षा से इन्द्रियगम्य कर्म परमाणु का सम्बन्ध अमूर्तिक इन्द्रिय अगम्य आत्मा के साथ मानने में कोई दोष नहीं हैं।
घाति-अघाति कर्म और उनके कार्य
कर्म ८ प्रकार के होते हैं उसमे ४ घाति कर्म और ४ अघाति कर्म हैं। जीव के स् वभाव (अनुजीवी गुण) का घात करे उसे घाति कर्म कहते हैं। ये घाति कर्म जीव के गुणों के घात में अनादि से निमित्तभूत हैं।अघाति कर्म के निमित्त से जीव को बाह्य सामग्री संयोग प्राप्त होता हैं।
इस प्रकार अघाति कर्म तो बाहरी सामग्री में निमित्त बनते हैं परन्तु मोह-उदय वश जीव को उनके निमित्त से सुख-दुःख होता हैं।
निर्बल जड़कर्मो द्वारा जीव के स्वभाव का घात तथा बाह्य सामग्री मिलना
जो कर्म जीव के स्वभाव के घात में कर्ता होना हो तो उसमे चेतनापन होना चाहिए, पर कर्म तो जड़ हैं। जब उन कर्म का उदय हो तो (घाति) स्वयं ही आत्मा स्वभावरूप परिणमन नहीं करता, विभावरूप परिणमन करता हैं, तथा (अघाति) जो अन्य द्रव्य हैं वे वैसे ही सम्बन्धरूप होकर परिणमन करते हैं ।
यहाँ दो उदाहरण पंडित जी ने दिए हैं
- जैसे मोहनधूल कोई व्यक्ति को पागल नहीं करती पर उसके पड़ने पर व्यक्ति स्वयं ही पागल होकर फिरता हैं।
- चकवा चकवी रात्रि में बिछुड़ जाते हैं और सुबह उनका मिलाप हो जाता हैं इसमें किसीने न तो द्वेषबुद्धि से उनको दूर किया हैं न उपकारबुद्धि से मिलाया हैं, स्वयं ही ऐसा परिणमन सूर्योदय या रात्रि के निमित्त से देखने मिलता हैं।
नवीन कर्म बंध
जैसे बादल ने सूर्य प्रकाश को ढंका हो तो जितना अँधेरा हैं वह बादल का जानना, थोड़ा प्रकाश हो तो जो अँधेरा हैं वह तो बादल का जानना पर जो प्रकाश हैं वह बादल के बजह से नहीं परन्तु सूर्य से हैं -
इस प्रकार जो आत्मा के ज्ञानादि गुण का किस काल में अप्रगटपना हैं वह तो कर्म उदय के निमित्त से जानना, परन्तु जो क्षयोपशम से ज्ञानादि गुण का प्रगटपना हैं वह कर्म उदय के निमित्त से नहीं परन्तु आत्मा के स्वभाव का अंश जानना।
स्वभाव से नवीन कर्म बंध नहीं होता, क्योंकि निजस्वभाव ही बंध का कारण हो तो छूटना कैसे हो?
तो फिर नवीन कर्मबंध किससे होता हैं? ज्ञान, दर्शन और वीर्य गुण में कर्म के आवरण से उनमे प्रगटपनेरूप अभाव हैं। स्वयं ही जिनमे अभाव हो वे अन्य के कारण नहीं हो सकते। अघाति कर्म शरीरादि बाह्य सामग्री मिलती हैं जो आत्मा से भिन्न हैं इसलिए परद्रव्य से भी कर्मबंधन नहीं हो सकता।
मोहनीय के उदय से जीव को अतत्वश्रद्धान - मिथ्याभाव होते हैं और ४ कषाय होती हैं। ये मिथ्यात्व राग द्वेष कोई मोह नहीं करवाता। जीव ही उनको करता हैं और मोहनीय उसमे निमित्त कहा गया हैं। और इस मोहकर्म से ही भावबंध होता हैं।
योग और उससे होनेवाले प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध
- मन, वचन और काय की चेष्टा से आत्मा के प्रदेशों में कंपन / चंचलपना होना, इससे आत्मा को पुद्गल वर्गणा से एक बंधान होने की शक्ति होती हैं - इसे योग कहते हैं।
- प्रतिसमय जीव योग के निमित्त से अनंत पुद्गल परमाणु को ग्रहण करता हैं
- प्रदेश बंध = आत्मा के प्रद ेश के साथ कर्म का बंध
- बहुत योग = बहुत कर्म परमाणु का ग्रहण, अलप योग = अलप कर्म परमाणु का ग्रहण
- प्रकृति बंध = ग्रहण किये हुए कर्म परमाणु का योग्य कर्म प्रकृति रूप बटवारा होना
- योग २ प्रकार के हैं
- शुभ योग - धर्म में अंगो में प्रवर्तन करने से
- अशुभ योग - अधर्म के अंगो में प्रवर्तन करने से
- सम्यक्त्व बिना घाति कर्म का योग निरंतर चालू रहता हैं
- अघाती कर्म में
- अशुभ योग से असाता वेदनीय आदि पाप प्रकृति
- शुभ योग से साता वेदनीय आदि पुण्य प्रकृति
इसलिए योग हैं वह आस्त्रव हैं, ग्रहण वह प्रदेशबंध और प्रकृति अनुसार विभाग होना वह प्रकृतिबंध हैं।
कषाय से स्थतिबंध और अनुभागबंध
- मिथ्यात्व क्रोधादि भाव का नाम कषाय
- स्थति बंध = कितने समय तक बंधी हुई प्रकृति का उदय आता ही रहेगा
- अनुभाग बंध = उदय काल में उस कर्म की फलदानशक्ति
क्योंकि कषाय से काल (स्थति) और भाव (अनुभाग) प्रधान बंध होता हैं इस अपेक्षा से बंध का मुख्य कारण कषाय कहा जा सकता हैं - क्योंकि प्रकृति बंध और प्रदेश बंध तो बलवान हैं ही नहीं।
ज्ञानहीन जड़-पुद्गल परमाणुओ का यथायोग्य प्रकृतिरूप परिणमन
यहाँ पंडित जी एक बहुत सुन्दर उदाहरण से स्वयं संचालित वस्तु व्यवस्था का उदाहरण देकर कर्म परमाणु जो जड़ हैं वे कैसे प्रकृति रूप परिणामित हो जाते हैं उसे समझाते हैं। उस उदाहरण को संक्षिप्त में समझते हैं -
जैसे भूख होने पर - कषाय
मुख द्वार से - योग
ग्रहण किया हुआ भोजन पुद्गलपिण्ड - कर्म परमाणु का ग्रहण
७ धातुमय हो जाता हैं - प्रकृति बंध
उसमे कुछ थोड़े परमाणु धातुरूप और कुछ बहुत परमाणु धातुरूप होते हैं - प्रदेश बंध
उसमे कुछ थोड़े काल तक सम्बन्ध रहता हैं और कुछ का बहुत काल तक - स्थिति बंध
उ समे कुछ अपने कार्य करने की थोड़ी शक्ति रखते हैं और कुछ बहुत - अनुभाग बंध
इसमें न तो पुद्गलपिण्ड (भोजन हो या कर्म) को कुछ ज्ञान हैं और न कोई अन्य परिणमन करवानेवाला हैं - ऐसा ही इस कार्य में सहज निमित्त नैमेत्तिक सम्बन्ध पाया जाता हैं।
सत्तारूप कर्म की अवस्था
- जीव और कर्म का जब तक उदय न आये तब तक एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध रहता हैं
- जीवभाव से कुछ कर्म का
- संक्रमण होता हैं (एक प्रकृति का अन्य में संक्रमित होना)
- अपकर्षण होता हैं (स्थति अनुभाग का घट जाना)
- उत्कर्षण होता हैं (स्थति अनुभाग का बढ़ जाना)
कर्मो की उदयरूप अवस्था
- कर्म का जब उदय आय तब स्वयमेव उन प्रकृति के अनुभाग के अनुसार कार्य बनते हैं, निमित्त नैमेत्तिक सम्बन्ध हैं
- अनुभागशक्ति का अभाव हो जानेपर कर्म खीर जाते हैं; इस फल देकर कर्म की निर्जरा होने को सविपा क निर्जरा कहते हैं
यहाँ तक इस अधिकार में कर्म का सामान्य विवेचन किया गया हैं और पंडित जी कहते हैं के और विश्लेषण आगे “कर्म अधिकार” में लिखेंगे जो ग्रन्थ अपूर्ण रह जाने से वह अधिकार कभी प्रारम्भ ही नहीं हुआ।
आगे अभी प्रत्येक कर्म के सन्दर्भ विशेष चर्चा करते हैं।
द्रव्यकर्म और भावकर्म का स्वरुप और प्रवृत्ति
द्रव्यकर्म = कर्म पुद्गल परमाणु का पिंड
भावकर्म = मोह के निमित्त से मिथ्यत्वक्रोधादि जीव के अशुद्धभाव
द्रव्यकर्म के निमित्त से भावकर्म होता हैं और भावकर्म के निमित्त से द्रव्यकर्म होता हैं।
नोकर्म का स्वरुप और प्रवृत्ति
नामकर्म से उत्पन्न शरीर वह द्रव्यकर्म से किंचित सुख दुःख का कारण हैं - इसलिए शरीर को नोकर्म कहा गया हैं। ‘नो’ = ईषत (अल्प वाचक) हैं।
जब तक कर्म का सद्भाव हैं, जीव और शरीर का एकक्षेत्रावगाह सम्बन्ध रहता हैं। शरीर अवस्था के अनुसार मोह के उदय से जीव सुखी दुखी होता हैं।
नित्य निगोद और इतर निगोद
अनादि से इस जीव को नित्यनिगोद शरीर पाया जाता हैं और इस शरीर को ही अनंत बार जन्म मरण करके धारण करते रहते हैं। ६ महीना ८ समय में से ६०८ जीव निगोद से निकलकर अन्य पर्याय में आते हैं - १ से ५ इन्द्रिय पर्याय धारण करके फिर निगोद पर्याय को प्राप्त करते हैं - इसे इतर निगोद कहते हैं।
इतर निगोद में कितना ही काल रहकर जीव अन्य पर्यायें धारण करता हैं।
- स्थावर पर्याय में उत्कृष्ट काल = असंख्यात कल्पमात्र
- त्रस पर्याय में उत्कृष्ट काल = साधिक २००० सागर
इतना काल बिताने के बाद जीव फिरसे निगोद चला जाता हैं और
- इतर निगोद में उत्कृष्ट काल = ढाई पुद्गल परावर्तन
यहाँ तक इस अधिकार में कर्म बंधन के कारण और उनके स्वरुप का वर्णन किया। अभी आगे इस कर्मब न्धनरुपी रोग से जीव की क्या अवस्था होती हैं वह संक्षिप्त में जानते हैं।
कर्मबन्धन रोग से जीव की अवस्था
१,२. ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म
- ज्ञान और दर्शन गुण पर आवरण
- मतिज्ञान की पराधीन प्रवृत्ति
- इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता हैं, इसलिए पराधीन हैं
- यह ज्ञान बाह्य द्रव्य के आधीन भी हैं
- स्पष्ट ज्ञान नहीं होता
- श्रुतज्ञान की पराधीन प्रवृत्ति
- मतिज्ञान द्वारा जो जाना गया हैं उसके सम्बन्ध से अन्य अर्थ को जिसके द्वारा जाना जाय उसे श्रुतज्ञान कहते हैं
- इसके २ भेद हैं - अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक
- यह श्रुतज्ञान पराधीन मतिज्ञान के और अनेक अन्य कारणों के आधीन होने से महा पराधीन जानना
- अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान
- अवधिज्ञान
- शरीरादि पुद्गल के आधीन हैं
- मर्यादित हैं
- देशावधि देव नारकी में सभी को और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच मनुष्य में पाया जाता हैं
- परमावधि, सर्वावधि, मनःपर्यय सिर्फ मोक्षमार्ग में पाए जाते हैं
- केवलज्ञान अरिहंत सिद्ध परमेष्ठी को ही होता हैं
- अवधिज्ञान
- चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधिदर्शन पराधीन
- ज्ञानावरण दर्शनावरण का क्षयोपशम थोड़ा हो तो थोड़ा ज्ञान-दर्शन की शक्ति प्रगट होती हैं और बहुत से बहुत
- उपयोग का वर्णन यहाँ विशेष रूप से किया हैं
- जीव का उपयोग एक समय में एक विषय में ही लग सकता हैं
३. मोहनीय कर्म
मोह के उदय से जीव को मिथ्यात्व और कषायभाव होते हैं
दर्शनमोहनीय
- अन्यथा अतत्व श्रद्धान होता हैं
- जैसा हैं वैसा नहीं जानना
- स्व-पर भेदज्ञान नहीं हो पाना
- रागभाव (परभाव) को स्वभाव मानना
- तीव्र उदय = सत्य श्रद्धान से बहुत विपरीत श्रद्धान होता हैं
- मंद उदय = सत्य श्रद्धान से कम विपरीत श्रद्धान होता हैं
चारित्रमोहनीय
- इष्ट-अनिष्ट पना करके ४ कषाय (और ९ नोकषाय) करता हैं
- क्रोध और मान = द्वेष कषाय, माया और लोभ = राग कषाय
- कषाय के ४ भेद हैं
- अनंतानुबंधी - जिसके उदय से आत्मा को सम्यक्त्व न हो, स्वरूपाचरणचारित्र न हो
- अप्रत्याख्यानावरण - जिसके उदय से देशचारित्र न हो
- प्रत्याख्यानावरण - जिसके उदय से सकल चारित्र न हो
- संज्वलन - जिसके उदय से यथाख्यात चारित्र न हो
- ९ नोकषाय भी चारित्र मोहनीय के ही भेद जानना
इस प्रकार जीव इन्ही (मोहकर्म से) से ही वर्तमान में दुखी हैं और आगामी के कारण भी यही हैं। इन्ही का नाम राग-द्वेष-मोह हैं।
४. अंतराय कर्म
- दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में बाधा डालता हैं
- जो चाहता हैं वह नहीं होता
५. वेदनीय कर्म
- बाह्य सुख दुःख के कारण उत्पन्न होते हैं
- साता वेदनीय से सुख के कारण मिलते हैं
- असाता देवनीय से दुःख के कारण मिलते हैं
- ये बाह्य कारण सुख दुःख उत्पन्न नहीं करते, आत्मा मोहकर्म उदय से स्वयं सुख दुःख मानता हैं
६. आयु कर्म
- मनुष्यादि पर्याय में जीव की स्थिति रहती हैं
- संसार में जन्म मरण और जीवन का कारण आयुकर्म हैं
- जैसे शरीर अलग अलग वस्त्र पहनता हैं वैसे ही ये जीव अलग अलग शरीर को धारण करता हैं
- जीव तो नित्य हैं पर मोहवश अपनी स्थिति प्राप्त पर्याय मात्र ही मान लेता हैं और पर्याय सम्बन्धी कार्यो ने तन्मय हो जाता हैं
७. नाम कर्म
- ४ गति प्राप्त होती हैं और उसकी पर्यायरूप अवस्था होती हैं
- इन्द्रिय, पर्याप्ति आदि प्राप्त होती हैं
- शरीर आदि अन्य अवस्था भी इसी कर्म से हैं
- ज्ञानवरानादि के अनुरूप यहाँ शरीर आदि के प्राप्त होने का निमित्त-नैमेत्तिक सम्बन्ध जानना
- ९३ प्रकृति
- आत्मा और शरीर में एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हैं
- आत्मा की इच्छा न हो शरीर का भी हलनचलन नहीं हो सकता
- आत्मा की इच्छा हो और शरीर में योग्य बल हो तो हलनचलन हो सकता हैं
८. गोत्र कर्म
- उच्च नीच कुल का प्राप्त होना
- मोह के उदय से जीव सुखी दुखी होता हैं
इस प्रकार ८ कर्म के उदय जन्य अवस्था बताकर इस जीव को कर्मबन्धनरुपी रोग हैं इसका एक प्रकार से निर्णय कराया हैं। इतना सूक्ष्म और संक्षिप्त वर्णन अपने आप में ही पंडित साहब की महान गद्यलेखन कला और असाधारण क्षयोपशम को उजागर करती हैं।
इस अधिकार में कर्म के उदय आदि का वर्णन तो हुआ ही पर साथ में इस रोग से छूटने का उपाय जीव के पास ही हैं, कर्म तो बस निमित्तमात्र हैं ऐसा निश्चय भी हुआ। सामान्य और विशेष रूप से कर्मबंधन रोग का निदान और उसकी अवस्था की अद्भुत प्ररूपणा को यहाँ समाप्त हुई; जिसकी चर्चा को हम उक्त पंडित जी का हमारे लिए क्या उपदेश हैं उन्ही वाक्य को प्रस्तुत करके विराम देते हैं।
“इस प्रकार इस अनादि संसार में घाति-अघाति कर्मो के उदय के अनुसार आत्माके अवस्था होती हैं। सो हे भव्य! अपने अंतरंग में विचार करके देख कि ऐसा ही हैं कि नहीं। विचार करने पर ऐसा ही प्रतिभासित होता हैं। यदि ऐसा हैं तो तू यह मान कि - “मेरे अनादि संसार रोग पाया जाता हैं, उसके नाश का मुझे उपाय करना” - इस विचार से तेरा कल्याण होगा।”
Myth busters
- कर्म सिद्धांत और उनके परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध की सूक्ष्म चर्चा और चिंतन से वह विषय मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ से मेरा स्पष्ट हुआ
- निगोद की विशेष जानकारी और उसके सन्दर्भ के भ्रम दूर हुए
- वक्ता श्रोता का सही स्वरुप और उनकी पहचान के लिए अनेक बिंदु प्राप्त हुए। सच्चे वक्त को कैसे पहचानना और आदर्श श्रोता कैसा बनना वह सीखा
- राम कहानी से जैन रामायण की पूर्ण कथा का ज्ञान हुआ और जो भी अन्य रामायण के भ्रम थे वे दूर हुए