मोक्षमार्ग प्रकाशक - Adhikaar 3 and 4
अधिकार ३
जो निज भाव सदा सुखद, निज का करो प्रकाश,
जो बहु विधि भव दुःखनिको, करी हैं सत्ता नाश ।।
संसार-रुपी ‘पुरानी’ (chronic) रोग से ग्रसित यह भ्रमरोगी जीव तड़प-तड़प के दुःखो को सहता हुआ भी उसे ठीक करने की आस में न जाने कितने प्रयोग कर चूका। संसार में खोटे वैद्यो की दुकानो का जबरदस्त धंधा उनकी तात्कालिक बाहरी लक्षणों को पल दो पल के लिए राहत देने वाली दवाइओ से ही तो हैं। उन वैद्यो ने इस रोगी को ऐसे भ्रम में डाला हैं कि ऐसा करते करते उसका रोग दूर हो जायेगा। और ऐसे ही ये रोगी जीव ने ८४ देश की कितनी ही दुकानों के चक्कर काटे है; पर मिला तो सिर्फ दुःख ही।
महा भाग्य से जब इस जीव को सच्चे वैद्य का समागम होता है, तब वह दुःख का, रोग का मूल कारण बताते हैं, उसका स्वरुप बताते हैं और उसके दूसरे उपाय क्यों इस रोग को दूर करने में असमर्थ थे वह समझाता है - और ऐसा करते ही रोगी को सही अर्थ में निरोगी होने की रूचि होती हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक जी का तीसरा अधिकार बस यही कार्य करने के लिए लिखा गया हैं - कि रोगी को निरोगी होने की, स्वस्थ होने की रूचि तो हो! जो सचमे अंतर से निरोगी होने की रूचि होगी तो वैद्य ने दी हुई दवाई भी लेगा और जो भी रोग दूर करने के लिए जरूरी हैं उसे ख़ुशी ख़ुशी करेगा।
दुःख के मूल ३ कारण हैं -
१. वस्तु स्वरुप से विपरीत मान्यता (मिथ्यात्व)
२. वस्तु स्वरुप से विपरीत जानना (अज्ञान)
३. कषाय भाव (असंयम)
जैसे कुत्ता हड्डी चबाकर मानता है कि उसे हड्डी का स्वाद आ रहा - पर वास्तव में वह उसी के खून का स्वाद हैं; वैसे ही मोह से यह जीव “इच्छा” करता हैं; इच्छा पूर्ण हो तो उसे जानकर आनंदित होता हैं, और न हो तो दुःखी। जीव मानता है कि विषयो से उसे स्वाद आ रहा हैं, पर वह बस उसकी इच्छापूर्ती का क्षणिक आनंद है।
इच्छा अनंत है पर उसे भोगने की सामर्थ्य अंश मात्र भी नहीं हैं। पूर्व न्याय से यह सिद्ध होता है कि इच्छा से ही सर्व दुःख है क्योंकि इच्छा होना और कार्य का होना - दोनों अत्यंत भिन्न है जिसे एकमेक करने की व्यर्थ महत्वाकांक्षा ही संसार रोग का कारण भी है। ५ इन्द्रियों से जब यह जीव इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है तब वह भयंकर पीड़ा पाता हैं। कर्म सिद्धांत से कहे तो ज्ञानावरण-दर्शनावरण के क्षयोपशम से हुआ इन्द्रियजनित ज ्ञान मिथ्यादर्शनादि के निमित्त से इच्छासहित बनकर दुःख का कारण होता है।
अब ये उपाय क्यों जूठे हैं उसे कहते है -
ये जीव विषयग्रहण में सुख मानता है। इसलिए ५ इंद्रियों को पुष्ट करने में लग जाता है। इन विषयों को जुटाने के भी बहुत व्याकुल होता है। और इन्द्रियों से तो एक काल में एक ही विषय ग्रहण करना संभव है, तो एक विषय से दूसरे पर भँवरे की तरह भटकता है। ये उपाय मिथ्या क्योंकि जड़ इन्द्रियों को पुष्ट करने से कोई ज्ञान दर्शन से विषय ग्रहण शक्ति बढ़ती नहीं है। कार्य भी अपनी योग्यता अनुसार होता है। जीव के कर्मोदय के अनुसार ही उसे सामग्री प्राप्त होती है।
दुःखनिवृत्ति का सच्चा उपाय क्या है -
सुख तो तभी होगा जब इच्छा ही दूर हो जाये और सारे विषय एक ही साथ ग्रहण हो। और ऐसा तो वीतराग सर्वज्ञ अवस्था में ही संभव है - इसलिए दुःख निवृत्ति का सच्चा उपाय भगवान बनना (और मोक्षमार्ग पे चलना) ही है। मोह का उदय ही दुःख है।
अब ८ कर्म के उदय से होता दुःख और उनके उपायों का मिथ्यापना कहते है -
१. और २. ज्ञानावरण-दर्शनावरण
- जब मोह का उदय हो तो ज्ञानावरण दर्शनावरण का क्षयोपशम भी दुःख का कारण होता है। नहीं जानना दुःख होता तो पुद्गल भी दुखी होते; पर ऐसा नहीं है।
- मोह के उदय से ही दुःख है।
३. मोहनीय
- दर्शन मोहनिय
- सर्व दुखो का मूल मिथ्यादर्शन है
- बहावरा कपडे को अपना शरीर मानता हैं और मिथ्यादृष्टि शरीर को अपना आत्मा
- बहावरा घोड़े, धन, मनुष्यादि उसके आसपास ठहरे हो उसे अपने मानता है और मिथ्यादृष्टि क्षणभंगुर संयोगो को अपने मानता है
- शरीरादि, भवितव्य और जीव की इच्छा - तीनो का एक साथ जब जैसी इच्छा हो वैसा हो तो सुखाभास होता है पर अभिप्राय में आकुलता ही हैं
- भ्रमजनित दुःख का उपाय भ्रम दूर करना ही हैं
- चारित्र मोहनीय
- ४ कषाय चौकड़ी औ र ९ नो कषाय
- क्रोध मान माया लोभ आदि से जीव अत्यंत दुखी होता है
- कषाय के बाह्य कारण मिले तो उसके आश्रय से कषाय करे, और न मिले तो अपने से ही कारण बना लेता हैं
- सोचा करता हूँ भोगो से बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला, परिणाम निकलता हैं लेकिन मानो पावक में घी डाला
- सम्यग्दर्शन-ज्ञान से वास्तविक श्रद्धा-ज्ञान हो तो इष्ट अनिष्ट बुद्धि मिटे जिसके बल से चारित्रमोह का अनुभाग कम होता हैं जिससे उतने कषाय जाने योग्य निराकुलतामय सुख का अनुभव करता है
- अंतराय
- मोह से दान लाभ भोग उपभोग और वीर्य शक्ति का उत्साह होता है पर अंतराय से वह हो नहीं पाता
- विघ्न के बाह्य कारण दूर करने के जूते उपाय करता हैं पर वह तो अंतराय कर्म के आधीन है
- मनुष्य के हाथ की लकड़ी कुत्ते को लगने पर कुत्ता व्यर्थ ही लकड़ी से द्वेष करता हैं, वैसे ये जीव अंतराय कर्म के निमित्त से बाह्य चेतन-अचेतन द्रव्यों द्वारा वि घ्न हो तब वह अन्य द्रव्य से ही विघ्न कर बैठता हैं
- वेदनीय
- इच्छा के सद्भाव में वेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त बाह्य सुख-दुःख की सामग्री ये जीव को दुखी करती हैं
- शाता के उदय से इष्ट संयोग और अनिष्ट वियोग और अशाता के उदय से अनिष्ट संयोग और इष्ट वियोग - पर इष्ट अनिष्ट की कल्पना मोह के कारण है जो आकुलता का स्त्रोत है
- अनेक रोगो से पीड़ित व्यक्ति एक रोग शांत होने पर जैसे पूर्व दुःख की अपेक्षा से सुखी मानता है वैसे ही अशाता के उदय से अनेक दुःखो से अति पीड़ित कोई एक दुःख की पीड़ा शांता के उदय से कुछ काल के लिए शांत हो जाये तो उसमे वह मोह के वश उसकी इच्छा पूर्ण होते हुए देख उसे सुख का आभास होता है
- शरीर की पीड़ा में दुःख का अनुभव भी मोह वश है, शरीर में ममत्व बुद्धि के कारण ही हैं
- सम्यग्दर्शनादिक से भ्रम दूर होने पर इष्ट अनिष्ट बुद्धि मिटे और अपने ही परिणामो से सुख दुःख है ऐसा मान ता है - और इसे जीतने का पुरुषार्थ करता है
- आयु
- पर्याय का धारण करना जीवत्व है और उसका छूटना मरण; पर मिथ्यात्व के उदय में जीव प्राप्त पर्याय में ही तन्मय हो पर्याय को देखकर अपने अनादिअनंत स्वरुप को भी जन्मा-मरा ऐसा मानता है
- आयु कर्म के उदय से जन्म मरण है, ऐसा न मानकर व्यर्थ बाहर में जीवित रहने के उपाय करता हैं सो सारे जूठे है
- सम्यग्दर्शनादिक से पर्यायदृष्टि अस्त हो द्रव्यदृष्टि के उदय से ही यह जन्म-मरण के अभाव रूप सिद्ध दशा को प्राप्त होता है
- नाम
- गति, जाति और शरीरादि नामकर्म के उदय से प्राप्त होते है पर इनका इष्ट परिणमन हो तो सुखी और अनिष्ट हो तो दुःखी होता हैं - जो मोह-मदिरापान का ही लक्षण है
- सम्यग्दर्शनादिक से शरीरादि से भेदविज्ञान होता है वही इसका उपाय है
- गोत्र
- उच्च नीच गोत्र में जन्म होना गोत्र कर्म के आधीन हैं
- इसमें हर्ष-विष ाद, ऊँचा-हीन आदि मानना मोहकर्म के वश है
- सम्यग्दर्शनादिक से मोह के अभाव से सुख की प्राप्ती होती हैं
अब दुःखो का पर्याय अपेक्षा से वर्णन करते है -
एकेन्द्रिय
- अनादि से नित्य निगोद में रहता हुआ जीव जब महाभाग्य से कभी बाहर आता तब कुछ समय के लिए त्रस पर्याय को प्राप्त कर फिरसे अनंत काल के लिए निगोद में चला जाता हैं
- जो जीव एक बार नित्य निगोद से निकलकर फिर निगोद में चला जाए उस निगोद को इतर निगोद कहते हैं
- अक्षर के अनंतवे भाग मात्र का ज्ञान होता है, पर विषयो की इच्छा होने से वे महा दुःखी है
- दर्शनमोह के उदय से उन्हें मिथ्यादर्शन भी होता है जिससे वह अपनी प्राप्त पर्याय में ही तन्मय होते है
- कषाय तीव्र हैं और शक्ति अल्प है इसलिए महा दुःख है - जिसे सिर्फ केवलज्ञानी भगवान ही जानते है
विकलेन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय
- एकेन्द्रिय के जै से ही इन्हे भी दुःख है, पर शक्ति कुछ अधिक होने से वे उन दुःखो को दूर करने के उपाय करते दिखाई देते है
- इन जीवो की दयनीय दशा तो प्रत्यक्ष ही है, और कितना लिखे?
नरक
- नारकी जीव को विषयों की इच्छा तीव्र होने से, क्रोधादि कषाय तीव्र होने से और अनिष्ट संयोग से महादुःखी होते है। उन्हें कृष्णादि अशुभ लेश्या ही होती है
- सर्व प्रकार से दुःख भोगते है - नरक की भूमि आदि के, परस्पर वेर के कारण दूसरे नारकीओ से, असुरकुमार देवो के द्वारा और नारकी के स्वयं का शरीर ही दुःख को उत्पन्न करने वाला होता है
तिर्यंच
- अतत्वश्रद्धान के कारण एक दूसरे को दुःख देते है, विषयो की इच्छा से निरंतर व्याकुल होते है
- मुख्यरूप से असाता वेदनीय कर्म का उदय ही होता है
मनुष्य
- गर्भ के दुःख
- उच्च नीच गोत्र आदि के दुःख
- बालक युवा और वृद्ध तीनो अवस्था के अपने अपने दुखो को भोगता है
- दृष्ट ांत: जैसे काने गन्ने की जड़ और ऊपरी भाग तो सिर्फ चूसने योग्य है ही नहीं और बीच में कानी गांठे होने से उसे चूसा नहीं जा सकता। कोई स्वाद का लोलुपी उसे बिगाड़ो तो भले बिगाड़ो; पर जो उस बीच के भाग को जमीन में बो दिया जाए तो बहुत सारे मीठे स्वाद वाले गन्ने हो सकते है
- सिद्धांत: वैसे ही मनुष्य पर्याय में बाल और वृद्ध अवस्था में सुख भोगने लायक है ही नहीं, बीच की युवा अवस्था भी राग क्लेश युक्त होने से उसमे सुख उपजता नहीं है। कोई विषय सुख का लोलुपी उसे बिगाड़े तो भले बिगाड़े, परन्तु जो उस समय को धर्म साधना में लगावे तो बहुत उच्च पद को प्राप्त हो सकता है। इसलिए इस मनुष्य जन्म को सफल बनाने का उद्यम करना चाहिए
देव
- भवनत्रिक में कुतूहल, विषय वासना से त्रस्त जीव अत्यंत व्याकुल है
- हास्य रति कषाय की मुख्यता है
- स्त्रीवेद और पुरुषवेद का उदय होने और रमने के निमित्त मिलने पर कामादि व ्याधि से ग्रस्त होते है
- ऊपर ऊपर के देवो की शक्ति अधिक और कषाय मंद होती जाती है
सर्व दुखो का सामान्य स्वरुप कहते है -
दुःख का लक्षण = आकुलता
आकुलता “इच्छा” होने से होती है
इच्छा मुख्यरूप से ४ प्रकार की देखी जाती है -
१. विषयग्रहण की इच्छा - विषयो को जानने-देखने की इच्छा
२. कषायभाव अनुसार कार्य करने की इच्छा
३. पाप के उदय से अनिष्ट कारण मिले है उसे दूर करने की इच्छा
४. बाह्य निमित्त मिलने पर ३ प्रकार की इच्छाओ में रमने की इच्छा
- इसका नाम है पुण्य का उदय
- पुण्य का बंध धर्मानुराग से होता है
- धर्मानुरागमें जीव थोड़ा ही जुड़ता है, मुख्य समय तो पापक्रिया में ही बिताता है
- इसलिए इस चौथी इच्छा में जीव कोई काल में ही होता है
- देखा जाए तो आज हमारे पास बहुत सारी इच्छा ४थी प्रकार की है, उसका कारण है हमारा पूर्व भवो का महापुण्यबंध। पर वर्तमान में हम अधिकतर समय पाप ही कर रहे है, इसलिए जो हम विषयो में ही त्रस्त रह गए हमारा भविष्य कैसा होगा इसकी कुछ कल्पना हम इस प्रकरण से कर सकते है
“सुखी दुःखी होना इच्छा के आधीन है, बाह्य कारणों पर नहीं”
“मंद कषाय से जिसे इच्छा कम हो उसे सुखी कहते है, परन्तु वास्तविकपने वहां दुःख ही कम या ज़्यादा है, सुख नहीं”
अब मोक्षसुख और उसकी प्राप्ति का उपाय बताते है -
मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम के सद्भाव से इच्छा अर्थात दुःख
मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम के अभाव से रत्नत्रय अर्थात सुख
मोहनीय कर्म का अस्त होते ही
- ४ घाती कर्म नाश होते है
- पहली प्रकार की इच्छा के कारण - क्षयोपशमिक ज्ञान दर्शन और शक्तिहीनता चले जाते है
- दूसरी प्रकार की इच्छा के कारण - कषाय ही नाश हो गए है
- जिससे अनंत चतुष्टय प्रगट होते है
अरिहंत अवस्था के पश्चात सिद्ध दशा होते ही
- अघाती कर्म भी नाश होते है
- मोह के सद्भाव में जो इच्छा बाह्य कारण थे जो ३ और ४ इच्छा के कारण थे उनका भी अब नाश हो जाता है
अंतिम बात रखते हुए सिद्ध अवस्था में दुःख का अभाव को सिद्ध करते है
- मोह का नाश हो गया है इसलिए इच्छा का अभाव पूर्णरूप से हो गया है
- इच्छा के सारे कारण नष्ट हो गए है
- केवलज्ञान प्रगट होने से अब कुछ भी अनजान नहीं रहा है (पहली इच्छा)
- मोह नहीं रहा, सारे कषाय का अभाव हो गया है (दूसरी इच्छा)
- अंतराय के जाने पर शक्तिहीनता भी नहीं रही (तीसरी इच्छा)
- ४ अघाती जाने से बाह्य कारण भी नहीं रहे (तीसरी और चौथी इच्छा)
तीसरे अधिकार का उपदेश
“हे भव्य! हे भाई! तुझे संसारके जो दुःख बताये उसका अनुभव तुझे हुआ के नहीं? उसका विचार कर। तू जो उपाय कर रहा है उसका जूठापन बताया वह वैसा ही हैं के नहीं? और सिद्ध अवस्था प्राप्त होते ही सुख होता है के नहीं? उसका भी विचार कर! जो ऊपर कहे अनुसार तुझे प्रतीति होती हो तो संसार से छूटकर सिद्ध अवस्था पाने का हमने जो उपाय कहा है वह कर। विलम्ब न कर। उसका उपाय करने पर तुम्हारा कल्याण ही होगा।”
अधिकार ४
इस भवके सब दुःखनिके, कारण मिथ्याभाव।
तिनिकी सत्ता नाश करि, प्रगटे मोक्ष उपाव।।
अब वैद्य रोगी को उसके रोग के कारण विशेषरूप से बताता है और कुपथ्यसेवन - अर्थात जो आहार स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो उसका निषेध करता है। जो रोगी कुपथ्यसेवन न करे तो रोगमुक्त हो सकता है। इसी प्रकार यहाँ चौथे अधिकार में संसार के कारण का विशेष निरूपण करते है। जब यह संसारी जीव मिथ्यादर्शनादि का सेवन न करे तो वह संसार रहित होता है। इस अधिकार में मिथ्यादर्शनादि - जो दुःख का मूल कारण है उसका वर्णन किया गया है।
इस अधिकार में मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र की विशेष चर्चा की गयी है। सर्व प्रथम तो मिथ्यादर्शन का स्वरुप बताते है -
दर्शनमोह के उदय के निमित्त से हुआ अतत्त्वश्रद्धान = मिथ्यादर्शन
तत्त्व = तद्भाव = श्रद्धान करने योग्य जो अर्थ (वस्तु) है उसका भाव / स्वरुप
अतत्त्व = श्रद्धान करने योग्य जो नहीं है = असत्य है
“ये ऐसा ही है” - ऐसा प्रतीति भाव = श्रद्धान
अप्रयोजनभूत पदार्थो को यथार्थ जानने न जानने से मिथ्यादर्शन / सम्यग्दर्शन का कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रयोजनभूत पदार्थो का यथार्थ स्वरुप जानकर उसका श्रद्धान होना ही सम्यग्दर्शन है।
श्रद्धा गुण और ज्ञान गुण भिन्न है; ज्ञान के क्षयोपशम का सम्यक श्रद्धा से कोई सम्बन्ध नहीं है।
प्रयोजनभूत ७ तत्त्व
जीव का प्रयोजन सुख है। इसलिए सर्वप्रथम तो स्वपर का ज्ञान होना अति आवश्यक है; क्योंकि कौन सुखी होगा और उपाय कहाँ करना है उसकी खबर होना सबसे जरूरी है। जीव और अजीव तत्त्व का यथार्थ स्वरुप जानना इसलिए आवश्यक है।
सर्व दुःखो का मूल कारण कर्मबन्धन है। मिथ्यात्वादि आस्त्रव भाव जो कर्मबन्धन के कारण है उन्हें जानना इसलिए आवश्यक है। कर्मबन्धन से दुःख है और उनसे जो छूटने का उपाय करना हो तो पहले बंध तत्त्व को जानना अनिवार्य है।
आस्त्रव का अभाव संवर और कर्म बंध का किंचित अभाव निर्जरा - जिनका सच्चा स्वरुप जानना सुख प्राप्ति के लिए आवशयक ही है। पूर्ण कर्मबन्धन के अभाव का नाम मोक्ष; दूसरे शब्दों में सारे दुःखो के नाश का नाम मोक्ष है - जिसे भी जानना जरूरी है। इस प्रकार प्रयोजनभूत तत्त्व ७ ही होते है; इससे अन्य सारे पदार्थ जो स्व-पर श्रद्धान न करावे, जो रागादि दूर न करे, जिनसे दुःख उपजे वे सारे अप्रयोजनभूत पदार्थ ह ै।
आगे इस जीव के मिथ्यादर्शन की प्रवृत्ति कैसी होती है वह कहते है -
७ तत्त्व सम्बन्धी भूल
१. जीव तत्त्व और २. अजीव तत्त्व सम्बन्धी भूल
- आत्मा और शरीर को एक मेक मानता है
- अपनी विभाव अवस्थाएँ और शरीर की स्पर्श आदि अवस्थाओं को अपना मानकर ममकार करता है
- इन्द्रियों से ज्ञान है ऐसा मानता है
- कषाय आदि से शरीर के अंग में निमित्तरूप से परिवर्तन हो तो दोनों को एक दूसरे के कर्ता मान लेता है
- शरीर के सम्बन्धी को भी अपना मान लेता है
- शरीर के लिए जुटाई भोगादि सामग्री को भी अपना मान लेता है
- अजीव ऐसा शरीर में ही अहंबुद्धि करता है
३. आस्त्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल
- मिथ्यात्वादि-कषायादि विभाव को स्वभाव मान लेता है
- दर्शन ज्ञान उपयोग और आस्त्रवभाव एक ही समय में होने के कारण दोनों को एक ही मान लेता है
- आस्त्रवभाव से दुःखी है पर अन्य को दु ःख का कारण मानता है; अपितु उन विभावो को ही भला जानता है
- अपने को विभावो का कर्ता मानता है इसलिए उन्हें बुरा भी नहीं जानता
४. बंध तत्त्व सम्बन्धी भूल
- ८ कर्म का बंध आस्रवभावो से होता है
- इन ८ कर्म का उदय आने पर जीव उनमे इष्ट अनिष्ट कल्पना करता है
- इनका कोई कर्ता न दिखने पर जीव स्वयं को ही इन परद्रव्यों का कर्ता मान लेता है। अन्य को भी कर्ता मान लेता है। अन्य का भी न दिखे तो भवितव्य को कर्ता मान बैठता है।
५. संवर तत्त्व सम्बन्धी भूल
- आस्त्रव का अभाव = संवर
- आस्त्रव में दुःख माने बिना संवर कैसे प्रगट हो?
- बाह्य पदार्थो को दुःख दायक मानकर दुःख दूर करने का व्यर्थ उपाय करता है
६. निर्जरा तत्त्व सम्बन्धी भूल
- कर्म बंधन को न समझकर दुःखी होता है
- अन्य पदार्थो को दुखदायी मानकर उनका अभाव करने की चेष्टा करता है
- कर्म बंधन को बुरा जाने बिना निर्जरा कैसे होय?
७. मोक्ष तत्त्व सम्बन्धी भूल
- कर्म बंधन के सर्वथा अभाव का नाम मोक्ष; जिसमे सुख है के नहीं उसका निर्णय कर्मबन्धन से दुःख है के नहीं उसके श्रद्धान पर निर्भर है
- बंधजनित दुःख भासित न होने पर कर्मबन्धनरूपी रोग दूर क्यों करना चाहे?
- यह जीव ऐसा मानता है कि सर्वथा दुःख दूर होनेरूप इष्ट सामग्री है उसके मिलने पर सर्वथा सुखी होना है जो कि असंभव ही है
पुण्य पाप सम्बन्धी भूल
- पुण्य को भला और पाप को बुरा मानता है
- पर दोनों आकुलता के कारण होने से वहां दुःख है और इसलिए ये मान्यता भ्रम है
- दोनों ही कर्मबन्धन के कारण है
अब मिथ्याज्ञान का निरूपण करते है -
प्रयोजनभूत जीवादि तत्वों का अयथार्थ जानने का नाम मिथ्याज्ञान है। यह ३ दोष से सहित होता है १. संशय - प्रयोजनभूत वस्तु का स्वरुप ऐसा है की वैसा है?
२. विपर ्यय - प्रयोजनभूत वस्तु का स्वरुप ऐसा ही है - ऐसा विपरीत ज्ञान होना
३. अनध्यवसाय - प्रयोजनभूत वस्तु का स्वरुप कुछ है - उसमे अरुचि का भाव रखना
यहाँ ये बात ध्यान देने योग्य है कि रस्सी को साँप जानने वाला सम्यग्दृष्टि का ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही कहलाता है और रस्सी को रस्सी जानने वाले मिथ्यादृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है - क्योंकि ज्ञान को “सम्यक / मिथ्या” की संज्ञी सम्यग्दर्शन या मिथ्यादर्शन के अनुसार है। दूसरे शब्दों में, प्रयोजनभूत तत्त्व का अयथार्थ जानना मिथ्याज्ञान हुआ और यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान हुआ।
मिथ्यादृष्टि को निश्चय से वस्तु का स्वरुप कैसा है, उसका भान नहीं है। इसलिए उसे ३ प्रकार की विपरीतता देखने में आती है
१. कारणविपर्यय - मूल कारण को न पहिचानकर अन्य कारण को मानना
२. स्वरुपविपर्यय - मूल वस्तुरूप स्वरुप को न पहिचानक र अन्य स्वरुप मानना
३. भेदाभेदविपर्यय - जिसे जनता है वह इनसे भिन्न है, इनसे अभिन्न है -उससे अन्यथा वैसा भिन्नता का विपरीत ज्ञान होना
मिथ्याज्ञान का कारण “मोहके उदय से जो मिथ्याभाव” होता है वह है।
कोई कहे कि ज्ञानावरण का क्षयोपशम / उदय को सम्यग्ज्ञान / मिथ्याज्ञान का कारण कहो तो उसे समझाते है -
- जो ऐसा मान लिया जाए तो एक ही जीव को एक ही समय में सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान दोनों एक साथ देखने में आवेंगे जो सिद्धांत विरुद्ध है (क्योंकि श्रद्धा गुण में आंशिक विकास संभव नहीं है)
- सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में कोई भेद नहीं रहेगा और सब ही जीव दोनों रूप हो जायेंगे
- जैसे किसी जीव को असाता का उदय है तो वह दुःख के कारणभूत हो उन्ही का वेदन करता है (सुख के कारणभूत का वेदन नहीं करता है) भले ही जीव को सुख के कारणभूत पदार्थो को जानने की शक्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से तो हो, पर असाता के उदय के निमित्त से वह जानना नहीं हो पाता है। वैसे ही, जीव में भले ही प्रयोजनभूत पदार्थो को जानने की शक्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशम हो; पर मिथ्यात्व के उदय से वह अप्रयोजनभूत का ही वेदन करता है, जानता है - प्रयोजनभूत को नहीं जनता। इसलिए प्रयोजन अप्रयोजन को यथार्थ जानने में निमित्त ज्ञानावरण नहीं, मिथ्यात्व का उदय-अनुदय है।
- एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक तो दोनों - ज्ञानावरण का उदय और मिथ्यात्व का उदय - मिथ्याज्ञान में निमित्त है; पर संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवो में मुख्य निमित्त मिथ्यात्व का उदय ही जानना चाहिए
ज्ञान पहले की श्रद्धा?
जाने बिना श्रद्धा कैसे संभव है? इसलिए जब सामान्य ज्ञान श्रद्धान का निरूपण हो वहाँ तो ज्ञान कारण और श्रद्धा कार्य जानना चाहिए। पर क्योंकि मिथ्याज्ञान और सम्यज्ञान संज्ञा “मिथ्यादर्शन / सम्यग्दर्शन” के अनुस ार होती है इसलिए जब मिथ्या-सम्यक ज्ञान श्रद्धान की चर्चा हो तब श्रद्धा को कारण और ज्ञान को कार्य जानना चाहिए।
ज्ञान और श्रद्धा तो दीपक और प्रकाश की भाँती युगपत होती है; पर फिर भी उनमे कारण-कार्य का भेद देखा जाता है, वैसा ही श्रद्धा और ज्ञान में समझना चाहिए।
मिथ्याचारित्र का स्वरुप बतलाते हुए अब कहते है कि -
चारित्रमोह के उदय से जो कषाय भाव होता है वह मिथ्याचारित्र है। दूसरे शब्दों में कहे तो जब दृष्टि पर में गयी, वह कषाय अर्थात दुःख की जननी है - और जब दृष्टि स्वभाव सन्मुख होती है तब सुख की उत्पत्ति होती है। स्वभाव से विरुद्ध प्रवृत्ति ही आत्मा को कसती है।
सभी द्रव्य स्वतंत्र है। स्वयं का स्वभाव तो ज्ञाता-द्रष्टा ही है; पर उसे भूलकर पर में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करके अनंत दुखी होता है। कषाय करने से कोई कार्य तो होता नहीं है; क्योंकि सभी द्रव्य अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की योग्यता अनुसार ही परिणमन करते है; कोई किसी के आधीन नहीं है। इसलिए ही कहा है कि कषाय करना अर्थात जल को बिलोने जैसा काम है।
यह जीव इष्ट-अनिष्ट की कल्पना किस प्रकार करता है वह कहते है -
- जो उपकारी है उसे इष्ट और अनुपकारी है उसे अनिष्ट मानता है; पर वही पदार्थ किसी काल में जो पहले इष्ट थे वह अनिष्ट भी लगने लगते है
- मुख्य रूप से इष्ट माने गए पदार्थ भी अनिष्ट हो जाते है
- पदार्थ सुखदायक-दुःखदायक नहीं है - वह पुण्य-पाप के आधीन है। जब भी स्त्री पुत्रादिक अनिष्ट भासे तब यह विचार करना चाहिए कि वे अनिष्ट नहीं है अपना ही पापोदय चल रहा है
इस प्रकार इष्ट-अनिष्ट की व्यर्थ कल्पना ही सर्व दुःखो का मूल कारण है।
राग-द्वेष का विधान और विस्तार करते है -
- जीव को पर्याय में ही अहंबुद्धि है - जिससे वह शरीर को ही अपना मानता है, स्त्री पुत्र मि त्र आदि को अपने मानता है
- बाह्य पदार्थ जिसका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है उनमे भी राग द्वेष करता है
- जिनमे राग करता है उनके कारण से राग और घातक से द्वेष करता है
- जिनमे द्वेष करता है उनके कारण से द्वेष और घातक से राग करता है
इस प्रकार पदार्थो में इष्ट-अनिष्टबुद्धि होने पर जो राग द्वेषरूप परिणमन होता है उसका नाम मिथ्याचारित्र है।
मिथ्याचारित्र के भिन्न नाम
- अचारित्र
- असंयम
- अव्रत
- अविरति
देखो, मोह की महिमा कैसी है कि -
- बिना सिखाये ही जिस पर्याय में हो वहाँ मोह के उदय से मिथ्यात्वादि परिणमन ही होता है
- मनुष्य को सत्यविचार होने के कारण होने पर भी सम्यकपरिणमन नहीं होता
- श्रीगुरु का निमित्त बने, समझाए पर विचार नहीं करता
- प्रत्यक्ष सिखाई देने पर भी अन्यथा ही मानता है
- शरीर से भिन्न बुद्धि नहीं होती
- स्त्री पुत ्रादि से ममत्व नहीं घटता
- संपत्ति से राग नहीं हटता
- कर्तापने का बोझ निरंतर अपने माथे पर रखता है
- मरण अवश्य आवेगा ऐसा जानते हुए भी इसी पर्याय की चिंता और व्यवस्था करने में जुटा रहता है और परभव का विचार नहीं करता
- अन्यथा श्रद्धान और आचरण करता है
दुःख का बीज क्या है?
“अनादि से इस जीव का मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ही परिणमन हो रहा है। इसी परिणमन से संसार में अनेक प्रकार के दुःख उत्पन्न करनेवाले कर्मो का सम्बन्ध पाया जाता है। यही भाव दुःख का बीज है अन्य कोई नहीं।”
चौथे अधिकार का उपदेश
“हे भव्य! यदि दुःखो से मुक्त होना चाहता हैं तो इन मिथ्यादर्शनादिक विभावभावोका अभाव करना ही कार्य है, इस कार्य के करने से तेरा परम कल्याण होगा”
Myth Busters
- इच्छा के प्रकार और उसका कर्म के angle से logical समझ इस प्रकरण से प्राप्त हुई
- साता असाता कर्म और दूसरे कर्म का इसके साथ का निमित्त नैमेत्तिक समबन्ध के विषय में अधिक स्पष्ट आयी
- ७ तत्त्व के पीछे का कारण पहले ज्ञात नहीं था जो इस प्रकरण से ज्ञात हुआ
- ज्ञान और श्रद्धा के विषय में मेरी समझ और दृढ हुई