अनेकांत-स्याद्वाद
जैन धर्म वस्तु के सत स्वरुप को बताने वाला है। जैसा है वैसा कहने वाला है जो है सो जैन धर्म है। अभी, वस्तु का स्वरुप अनेकान्तात्मक है, अनंत गुण-धर्म से युक्त है। इसलिए विश्व के समस्त द्रव्य कैसे है? अनेकान्तात्मक है। दूसरे शब्दों में कहे तो - अनेकांत वस्तु का ही स्वरुप है।
ऐसी अनेकान्तात्मक वस्तु को कहने वाली सापेक्ष कथन पद्धति को स्याद्वाद कहते है। इन दोनों में द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध है। अनेकांत द्योत्य है अर्थात “जिसके विषय में द्योतक द्वारा कहा जा रहा हो” और स्याद्वाद द्योतक है अर्थात “जो द्योत्य को कहता है”।
स्या द्वाद = स्यात + वाद
स्यात = सापेक्ष, वाद = कथन पद्धति
“स्यात-पद से मुद्रित” परमागमरूप श्रुतज्ञान के भेद को नय कहते है। श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते है।
प्रमाण वस्तु का सर्वग्रहण करता है और नय वस्तु के किसी अंश को ग्रहण करता है। दूसरे शब्दों में कहे तो - नय, प्रमाण द्वारा प्रकाशित पदार्थ के एक अंश को अपना विषय बनाता है। इसलिए सम्यज्ञान को प्रमाण कहा है और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है।
यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह हैं कि नय में जब किसी अंश को मुख्य किया जाता है तब अन्य अंशो का निषेध नहीं होता है, उन्हें गौण किया जाता है। ये मुख्यता और गौणता वस्तु में नहीं, वक्ता के अभिप्राय / इच्छा अनुसार होती है। एक और चीज पर ध्यान देना जरूरी है कि - क्योंकि नय सम्यकश्रुतज्ञान का भेद है उस नय को ग्रहण करनेवाला वक्ता/ज्ञाता भी सम्यज्ञानी ही होता है। अज्ञानी को नय नहीं, नयाभास होता है।
वस्तु तो परिपूर्ण है, पर उस पूरी वस्तु का प्रतिपादन शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता। इसलिए उस वस्तु का किसी एक अंश को “स्यात” पद सहित जब कहा जाता है तो वह स्याद्वाद कहलाता है।
जो वस्तु स्वरुप का यथार्थ निर्णय करना है, रत्नत्रय प्रगट करना है, सिद्ध बनना है तो सर्वज्ञ भगवान द्वारा प्रकाशित नयचक्र को चलाने में पारंगत होना ही पड़ेगा। नयों का स्वरुप समझना जरूरी ही नहीं, अनिवार्य ही है। इसे ठीक से न समझा जाय तो जिनवाणी के ४ अनुयोग में परस्पर विरोध भासित होगा, व्यवहाराभास-निश्चयाभास का पक्ष छूटेगा नहीं, मूल मार्ग से अवगत रह जाएंगे और क्योंकि नयज्ञान से शून्य है तो वस्तु स्वरुप के यथार्थ ग्रहण न कर पाने के कारण हम ७ तत्त्वों की अनादिकालीन भूल सहित संसार से मुक्त भी नहीं हो पायेंगे।
वस्तु में अनंत गुण होते है। सामान्यरूप से उन्हें धर्म, शक्ति आदि नाम से भी जाने जाते है। पर वस्तु में कुछ शक्तियाँ जो परस्पर विरूद्ध प्रतीत होती है उन्हें धर्म कहा जाता है।
अनेकांत = अनेक + अंत
जब अनेक = दो, तब अंत = परस्पर विरोधी दिखने वाले धर्म युगल
जिज्ञासु - कोई पूछे वस्तु नित्य है कि अनित्य?
ज्ञानी - दोनों। द्रव्य अपेक्षा से देखा जाय तो वस्तु नित्य है और पर्याय अपेक्षा से अनित्य।
जिज्ञासु - कब नित्य और कब अनित्य?
ज्ञानी - वस्तु में नित्य-अनित्य धर्मयुगल एकसाथ एकसमय में विद्यमान होते है। इसलिए वस्तु तो अनंतधर्मात्मक होने से अनेकान्तात्मक है; पर उसे कहने की, देखने की सापेक्ष कथन पद्धति को स्याद्वाद कहते है। ऐसे परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनंत धर्मयुगल प्रत्येक वस्तु में पाए जाते है जैसे - एक-अनेक, सत-असत, भिन्नता-अभिन्नता आदि।
जब अनेक = अनंत, तब अंत = गुण
जिज्ञासु - कोई पूछे आत्मा कैसा है? हमने कहा
ज्ञान ी - आत्मा ज्ञान दर्शन गुणवाला है।
जिज्ञासु - हमने तो सुना था आत्मा में अनंत गुण है; आप ने तो सिर्फ २ ही बताये!
ज्ञानी - शब्दों की शक्ति सीमित है; एक साथ सारे गुणों को कहने की सामर्थ्य उसमे नहीं है। इसलिए किसी विवक्षित धर्म को मुख्य करके कथन होता है।
जिज्ञासु - तो फिर दूसरे धर्मो को न कहकर आपने तो उनका निषेध कर दिया?
ज्ञानी - नहीं, जिन गुणों को नहीं कहा उन्हें गौण किया जाता है; निषेध नहीं। वस्तु तो अनंतधर्मात्मक होने से अनेकान्तात्मक है; और उसे कहने वाली सापेक्ष मुख्य-गौण करके बतलानेवाली कथन पद्धति को स्याद्वाद कहते है।
‘स्यातकार’ (अर्थात ‘कथंचित’ शब्द) का प्रयोग सिर्फ धर्म में होता है गुणों में नहीं।
‘जीव कथंचित नित्य भी है और कथंचित अनित्य भी है’ - ये वाक्य सही हैं क्योंकि नित्य-अनित्य धर्म है; गुण नहीं।
‘जीव कथंचित चेतन भी है और कथंचित अचेतन भी है’ - ये वाक्य गलत है क्योंकि चेतन जीव का गुण है और अचेतन तो जीव का गुण-धर्म कुछ भी नहीं है; और ‘स्यातकार/कथंचित’ का प्रयोग सिर्फ धर्म युगल के साथ किया जाता है। नित्य-अनित्य आदि परस्पर विरुद्ध दिखने वाले धर्म युगल है जिस पर ‘स्यातकार’ का प्रयोग होता है; पर ये सिर्फ विरोधी दीखते है - सचमे है नहीं। जो सम्पूर्ण परस्पर विरोधी है (जैसे चेतन-अचेतन, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि); जिन धर्मो का वस्तु में एक साथ रहने में अत्यंत अभाव है वे धर्मयुगल पर ‘स्यातकार’ का प्रयोग नहीं किया जाता।
इस उपरान्त हमे ये भी समझ में आया कि ‘जैसी वस्तु हैं उसे कहना स्याद्वाद है’ पर जैसी वस्तु हैं ही नहीं उसे कहना तो पूर्णरूप से गलत ही है।
जो हमें चेतन-अचेतन जैसे विरोधी गुण पर घटित करना है तो अस्ति-नास्ति के रूप में करना चाहिए।
जैसे -
प्रमाण वाक्य - “आत्मा कथंचित अस्ति भी है और कथंचित नास्ति भी है”
नय वाक्य - “आत्मा चेतन गुण की अपेक्षा अस्ति ही है, और अचेतन गुण की अपेक्षा नास्ति ही हैं”
वस्तु पर-निर्पेक्ष हैं, अनेकान्तात्मक हैं; पर उसका कथन अपेक्षा सहित होता है जिसे स्याद्वाद कहते हैं।
कुछ विचारको के अनुसार ‘भी’ कहने से समन्वय की सुगंध हैं और ‘ही’ में हठ की दुर्गंध हैं। उनके मत में ‘भी’ कहकर एकता आती हैं; पर जो ‘ही’ कह दे तो हम पक्षग्राही, जक्की और एकांत हो जायेंगे। ये अनेकांत-स्याद्वाद को न समझने का महान अनर्थरूप दुष्परिणाम है।
क्यों? वह कहते है। पहले तो वस्तु जैसी हैं वैसा प्रतिपादन करना वह स्याद्वाद है। वस्तु जैसी नहीं हैं वैसा कहना तो जूठ हैं।
लोग स्याद्वाद के नाम पर कहते है - “आपका भी मत ठीक हैं और हमारा भी; यही तो जैन धर्म हमें सिखाता हैं कि सभी के विचारों का स्वीकार करो। कोई गलत सही नहीं होता, बस अपनी अपनी अपेक्षा से सही गलत हैं” ऐसा कहकर वह सत्य मार्ग का पतन करते हैं और मिथ्यात्व का समर्थन करते हैं।
वह क्यों गलत हैं? क्योंकि वह वस्तु के स्वरुप के अन्यथा श्रद्धा, ज्ञान सहित से उसे कह रहा है, प्रतिपादन कर रहा हैं। इसीलिए पहले ही कहा न - कि नय ज्ञानी जीव को ही होते हैं।
जैसे; सवस्त्र मोक्ष होना वस्तुस्वरुप के विरुद्ध हैं, तो फिर उसे कैसे ठीक कहा जाए? जो आप कहते हो की सब अपनी-अपनी जगह ठीक हैं तो फिर कुदेव आदि भी पूज्य हो जायेंगे, स्त्री का मोक्ष भी मानना होगा, ईश्वर भी कर्ता मानना पड़ेगा, साइंस का पृथ्वी को गोल कहना भी ठीक हो जायेगा, हिंसा में धर्म हो जायेगा आदि सारी वस्तुस्वरुप से विरुद्ध बाते ‘स्याद्वाद’ नाम पा जाएगी; और समस्त धर्म और मोक्षमार्ग के लोप का प्रसंग आ जायेगा। इस पर विचार करना चाहिए।
संक्षिप्त में कहे तो स्याद्वाद “कुछ भी अपेक्षा सहित बोलने का नाम नहीं हैं”; अपितु “जैसा हैं वैसा अपेक्षा सह ित बोलने का नाम हैं”! स्याद्वाद कोई समाज के झगड़े सुलझाने का या किसी को खुश करने का साधन नहीं हैं। यह तो अनादि के अंतर के क्लेश को मिटाने का और सुखी होने का साधन हैं। और कितना कहे? यह स्याद्वाद जिनेन्द्र भगवान की वाणी की भाषा के सामान हैं। दुःख होता हैं जब लोग इस महान सिद्धांत को हाँसी और उथली बातों में गलतरूप से उपयोग करते हैं।
वास्तव में, ‘भी’ अनुक्त का सूचक हैं और ‘ही’ दृढ़ता का। कैसे? यह समझने के लिए २ उदाहरण लेते हैं -
१. प्रत्येक वस्तु कथंचित (किसी अपेक्षा से) नित्य ‘भी’ हैं और कथंचित अनित्य ‘भी’ हैं।
विश्लेषण: यहाँ कथंचित कहकर कहा की वस्तु ऐसी भी हैं। यहाँ अपेक्षा को स्पष्ट न करके कहा कि कोई अपेक्षा से ऐसी हैं। क्योंकि अपेक्षा स्पष्ट नहीं की इसलिए किसी अन्य अपेक्षा से वस्तु कोई अन्य रूप भी हैं। इसीलिए यहाँ ‘भी’ का प्रयोग किया हैं। ध्यान रखना चाहिए कि ऐसा नहीं हैं कि हमें पता नहीं हैं की अन्य अपेक्षा से क्या हैं, बस उसे यहाँ वाणी की असमर्थता के कारण यहाँ कहा नहीं गया हैं; इसीलिए ‘भी’ ‘अनुक्त’ का सूचक हैं, संभावना का नहीं। दूसरे शब्दों में कहे तो जिस समय वस्तु के एक गुण-धर्म को मुख्य किया जाता हैं तब दूसरे गुण-धर्म को गौण किया जाता हैं।
नहीं कहने का अर्थ ये नहीं कि उसका निषेध हैं; और न ही उसका अज्ञान हैं। जैन धर्म कोई संभावनावाद नहीं हैं कि जो कहा हैं उसके विरुद्ध भी होने की आशंका हो। जैन धर्म निश्चयात्मक हैं, जो भी कहता हैं पूरी दृढ़ता से कहता हैं। वस्तुस्वरुप (प्रयोजनभूत) के सम्बन्धी अज्ञानता हो तो जीव सम्यग्दर्शन ३ काल में प्रगट नहीं कर सकता!
२. प्रत्येक वस्तु द्रव्य की अपेक्षा से नित्य ‘ही’ हैं और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य ‘ही’ हैं।
विश्लेषण: यहाँ अपेक्षा स्पष्ट की गयी हैं कि वस्तु इस अपेक्षा से तो ऐसी ही हैं; अन्यथा नहीं। इसलिए ‘ही’ दृढ़ता का सूचक हैं। वस्तु के जिस अंश के विषय में कहा जा रहा हैं, उस अपेक्षा से वह पूर्णतः सत्य हैं। और इसी के साथ यह भी ज्ञात होता है कि अन्य अपेक्षा से अन्य रूप हैं; पर उसे अभी गौण किया गया हैं। ध्यान रखना चाहिए कि अपेक्षा रहित ‘ही’ का प्रयोग नहीं हो सकता। जैसे - वस्तु नित्य ‘ही’ हैं - यह वाक्य अपेक्षा रहित होने से दृढ़ता नहीं एकांत का सूचक हो गया जो जूठ हैं; वस्तु का सही प्रतिपादन करने में असमर्थ हैं।
आचार्य कुंदकुंद ने अष्टपाहुड जी में ‘नग्गो ही मोक्खमग्गो’ में ‘ही’ का प्रयोग किया जो दृढ़ता से वस्तुस्वरूप को कहता हैं कि “नग्नता ही मोक्षमार्ग हैं; अन्य (वस्त्रसहित) मोक्षमार्ग नहीं (हो सकता) हैं”! यहाँ ‘नग्नता’ निश्चय से ‘भाव से नग्न होना’ अर्थात ‘शुद्ध भाव’ लेने पर यह धर्म नहीं; आत्मा का गुण हैं। इसलिए इसे अपेक्षा सहित कहना हो तो ऐसा कह सकते हैं -