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सप्तभंगी नय

वस्तु का स्वरुप अनेकान्तात्मक हैं। उस वस्तु को कहने की सापेक्ष कथन पद्धति को स्याद्वाद कहते है। पूरी प्रमाण की वस्तु जो योग्य ‘स्यात’ पद सहित कहा जाय तो उसे प्रमाण वाक्य कहते है। पर पूरी वस्तु के किसी अंश को मुख्य करके अन्य को गौण कर कथन किया जाय उसे नय वाक्य कहते है।

श्रुतज्ञान प्रमाण हैं, पर उसके भेद को नय कहा गया हैं। वस्तु के अनंतधर्मात्मक होने के कारण उसका पूरा वर्णन एक साथ करने की क्षमता वाणी में नहीं है। इसलिए किसी समय किसी एक ही पड़खे का कथन करना संभव होता है। इसी को नय कहते हैं। जो वक्ता है उसके कथन करने के अभिप्राय या उस समय उसने वस्तु के किस अंश को मुख्य किया हैं उसे नय कहते हैं। यही बात जो ज्ञाता हैं उस पर भी लागू होती हैं। क्योंकि छद्मस्थ जीव की विकल्पात्मक दशा में एक साथ पूरी वस्तु का विचार करना असंभव है। पर श्रद्धान तो पूरी वस्तु का पक्का हैं ही।

जैसे - शक्कर का विचार/कथन किया जाय तब उसके किसी एक गुण (जैसे ‘श्वेतपने’) का हो सकता है। पर श्रद्धान में तो उसे शक्कर का पूरा स्वरुप का ज्ञान है, बस एक साथ उसे कह/सोच नहीं सकता।

वैसे - ज्ञानी आत्मा को ज्ञानवान कहे, कभी श्रद्धावान कहे, या कभी सहजनान्दी कहे; या विचारे, उसके श्रद्धान में तो पूरे आत्मा का निर्णय यथार्थ हैं ही - जो उसे प्रतिसमय ज्ञात हैं।

इस प्रकार, नय के स्वरुप की कुछ चर्चा हुई। अभी, ये सप्तभंगी नय क्या हैं उसे देखते है।

नय भेदरूप होने से अनेक प्रकार के होते है (प्रमाण के भेद नहीं होते); जैसे व्यवहार-निश्चय, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक, ४७ नय, तत्वार्थसूत्र में कहे ऋजुसूत्र आदि ७ नय आदि। वैसा ही एक प्रकार हैं “सप्तभंगी नय” अर्थात ७ भंग वाले नय।

कोई भी वस्तु (या उसके गुण) सम्बन्धी कुछ कहना हो तो २ बाते आती हैं

१. उसके वक्तव्य-अवक्तव्य के विषय में

२. उसके अस्तित्व-नास्तित्व के विषय में

१.  उसके वक्तव्य-अवक्तव्य के विषय में

  • उसे कहा जा सकता है - वक्तव्य
  • उसे कहा नहीं जा सकता हैं - अवक्तव्य

वक्तव्य का भाव यह हैं कि विवक्षित वस्तु के किसी गुण-धर्म को कह पाने की वाणी में क्षमता। क्योंकि वस्तु का सद्भाव है, तो उन्हें जानने की क्षमता तो जीव में है (केवलज्ञान स्वभाव होने के कारण), पर उसे शब्दों में कहने की क्षमता हैं या नहीं - यह बात है।

कोई वस्तु या उसका गुण क्या-कब-कहाँ-कैसा कहा जा सकता है कि नहीं; इसकी चर्चा कोई भी कथन में होती ही हैं।

इन प्रश्नों में वक्तव्य-अवक्तव्य होने का विचार कर सकते हैं -

“क्या मैं गुड़ का स्वाद कैसे होता हैं वह कह सकता हूँ?”

“क्या सिद्ध भगवान का सुख कैसा होता है वह कह सकते हैं?”

“सर दर्द कर रहा हो तो क्या वह कैसा दर्द कर रहा हैं वह कहना संभव है?”

“नरक गति के जीवो को कैसे दुःख होते हैं? - क्या यह कह सकते है?”

२. उसके अस्तित्व-नास्तित्व के विषय में

  • उसका सद्भाव / हैं-पना है - अस्तित्व
  • उसका सद्भाव / हैं-पना नहीं है - नास्तित्व

कोई वस्तु या उसका गुण क्या-कहाँ-कब-कैसे हैं के नहीं है; उसकी चर्चा कोई भी कथन में होती ही हैं।

इन प्रश्नों में अस्तित्व-नास्तित्व होने का विचार कर सकते हैं -

“गुड़ में श्वेतपना है कि नहीं?”

“सिद्ध भगवान सुखी है कि नहीं?”

“सर दर्द कर रहा हैं कि नहीं?”

“नरक गति के जीवो को दुःख होते हैं कि नहीं”

यह पढ़के आपके मन में जरूर कुछ न कुछ उत्तर आये होंगे, कुछ नये प्रश्न भी उठे होंगे। आप निश्चिंत हो जाइये क्योंकि हम आज इसका पक्का स्वरुप समझने वाले है।

यह २ बातों (अस्तित्व-नास्तित्व और वक्तव्य-अवक्तव्य) से यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि इनके अलावा इस जगत में किसी और विषय के सन्दर्भ में चर्चा होती ही नहीं। आप कोई भी कथन ले लीजिये, इन दोनों की (अस्तित्व-नास्तित्व और वक्तव्य-अवक्तव्य) ही चर्चा होती है। इन से अन्य कुछ भी बात नहीं हैं; यही वस्तु का स्वरुप है।

जैसे -

“गुड़ मीठा है”

विश्लेषण: इसमें गुड़ में “मीठेपन” का अस्तित्व कहा और इसे मीठा कहा जा सका; इसलिए गुड़ के सन्दर्भ में वक्तव्य भी हो गया।

हम अब पूछे कि - “गुड़ मीठा हैं, पर वह केले जैसा मीठा है कि शक्कर जैसा?”

तो वे कहेंगे - “गुड़ शक्कर या केले जैसा मीठा नहीं हैं, उसके मीठेपन को समझाना हमे नहीं आता”

विश्लेषण: इसमें गुड़ में शक्कर और केले की मिठास का नास्तित्व कहा और क्योंकि उस गुड़ के मीठेपन को और कहा नहीं जा सका इसलिए गुड़ के सन्दर्भ में अवक्तव्यपना भी हो गया!

अब आप ही बताइये गुड़ मीठा हैं कि नहीं? हैं तो कैसा है, नहीं हैं तो कैसा नहीं? ये कैसा गोल-गोल लगता है? अटपटी लगती है? हैं भी और नहीं भी, कह सकते और नहीं भी!

वास्तव में यही तो वस्तु का अनेकान्तात्मक स्वरुप है। इसे कहना ही तो स्याद्वाद है! गुड़ कथंचित मीठा है और कथंचित मीठा नहीं भी, उसका मीठापन कथंचित वक्तव्य हैं कथंचित नहीं भी! अहो! सर्वज्ञ भगवान की वाणी की यह भाषा बड़ी निराली है! सूक्ष्म है, अद्भुत है - अनादि के एकांत संस्कार के कारण इसे ह्रदय में उतारना है तो शुद्ध शांत चित्त करके इसको समझना होगा।

इसलिए नय कथन करते समय “कथंचित” / “स्यात” / “किसी अपेक्षा से” पद का प्रयोग होना अति आवश्यक है। अन्यथा सच्ची बात को समझना-कहना असंभव है।

“गुड़ कथंचित मीठा है और कथंचित मीठा नहीं भी”

“गुड़ कथंचित वक्तव्य हैं और कथंचित अवक्तव्य भी”

ऐसा कहना योग्य होगा। “स्यात” का प्रयोग करने पर जिस गुण-धर्म का प्रकाश किया है उसे तो ठीक से कहा जाता हैं ही, पर जिस वस्तु के अंश को नहीं कहा उसका निषेध नहीं होता, गौण किया जाता है।

जो गुड़ को सर्वथा मीठा अर्थात मीठेपन का अस्तित्व कह दिया जाय तो उसमे उससे अन्य सारे पदार्थो के मीठापन का भी मानना पड़ेगा। पर वास्तव में, गुड़ में अपनी अपेक्षा से मीठापन हैं पर अन्य पदार्थो की अपेक्षा (अर्थात अन्य पदार्थो की) उसमे अभाव है।

यहाँ तक के प्रकरण में हमे कुछ बाते समझ आयी -

  • वस्तु का परूपण वक्तव्य-अवक्तव्य और अस्तित्व-नास्तित्व के परिप्रेक्ष्य में होता है
  • वस्तु का स्वरुप ही अनेकान्तात्मक है
  • अपेक्षा सहित कहना या ‘स्यात’ का प्रयोग करना अनिवार्य है

वक्तव्य-अवक्तव्य और अस्तित्व-नास्तित्व के कितने combination / संयोजन हो सकते है और उससे ७ भंग कैसे होते है वह देखते है।

पहले तो वस्तु के विषय में कुछ कहा जा सकता है या नहीं कहा जा सकता। इसलिए वक्तव्य और अवक्तव्य २ मूल भेद हुए।

अब वक्तव्य में -

१. वस्तु के अस्तित्व को कहा जा सकता है - अस्ति वक्तव्य

२. वस्तु के नास्तित्व को कहा जा सकता है - नास्ति वक्तव्य

३. वस्तु के अस्तित्व को और नास्तित्व को बारी-बारी (एक साथ नहीं) से कहा जा सकता है - अस्ति-नास्ति वक्तव्य

अब अवक्तव्य में -

४. वस्तु के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता - अवक्तव्य

५. वस्तु के अस्तित्व को नहीं कहा जा सकता - अस्ति अवक्तव्य

६. वस्तु के नास्तित्व को नहीं कहा जा सकता - नास्ति अवक्तव्य

७. वस्तु के अस्तित्व को और नास्तित्व को (क्रम से) और वस्तु के विषय को नहीं कहा जा सकता - अस्ति-नास्ति अवक्तव्य

इस प्रकार ७ भेद हुए। ये सात भंग वास्तव में वस्तु के विषय में उठने वाली ७ प्रकार की जिज्ञासाएँ ही है।

इसे दृष्टांत द्वारा और विशेष रूप से समझते है -

दृष्टांत १:

१. शक्कर कथंचित मीठी है - अस्ति वक्तव्य

२. शक्कर कथंचित मीठी नहीं है -  नास्ति वक्तव्य

३. शक्कर कथंचित मीठी हैं और कथंचित मीठी नहीं भी है  - अस्ति-नास्ति अवक्तव्य

४. शक्कर के मीठेपन का कथंचित अवक्तव्य है (अर्थात उसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता) - अवक्तव्य

५. शक्कर में मीठेपन की कथंचित अस्ति तो है पर उस मीठेपन की अस्ति को पूरा नहीं कहा जा सकता है अथवा उस मीठेपन के अस्तित्व को नहीं कहा जा सकता है - अस्ति अवक्तव्य

६. शक्कर में मीठेपन की कथंचित नास्ति तो है पर उस मीठेपन की नास्ति को पूरा नहीं कहा जा सकता है अथवा उस मीठेपन के नास्तित्व को नहीं कहा जा सकता है - नास्ति अवक्तव्य

७. शक्कर कथंचित अस्ति तो हैं, नास्ति तो हैं पर उसकी अस्ति और नास्ति को पूरा नहीं कहा जा सकता है (एक साथ भी नहीं कहा जा सकता) अथवा उस उस मीठेपन के अस्तित्व और नास्तित्व को नहीं कहा जा सकता है - अस्ति नास्ति अवक्तव्य

दृष्टांत २:

१. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्ति है - अस्ति वक्तव्य

२. द्रव्य की परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति है (अर्थात द्रव्य की उससे अन्य पर द्रव्यों में सम्पूर्ण रूप से असद्भाव है। द्रव्य का उसमे तो अस्तित्व जरूर है, पर उसका अस्तित्व कोई भी परद्रव्य में नहीं है) - नास्ति वक्तव्य

३. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से क्रम से अस्ति और नास्ति दोनों है (अपितु अस्ति और नास्ति को एक साथ कहना संभव नहीं हैं, पर क्रम से कहे जाने की अपेक्षा से वह वक्तव्य है) - अस्ति नास्ति वक्तव्य

४. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से युगपद कहने पर अवक्तव्य है (अर्थात दोनों एक साथ कहना असंभव है) - अवक्तव्य

५. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्ति हैं पर युगपद स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव नहीं कहे जाने पर अवक्तव्य है - अस्ति अवक्तव्य

६. द्रव्य की परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति हैं पर युगपद स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव नहीं कहे जाने पर अवक्तव्य है - नास्ति अवक्तव्य

७. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्ति हैं, परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति और युगपद स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव नहीं कहे जाने पर अवक्तव्य है - अस्ति नास्ति अवक्तव्य

संक्षिप्त में कहे तो -

द्रव्य स्व अपेक्षा से अशून्य है,

पर से शून्य है,

क्रम से शून्य, अशून्य दोनों है

स्व पर युगपद से अवाच्य है

अशून्य और अवाच्य है

शून्य और अवाच्य है

अशून्य, शून्य और अवाच्य है

अर्थात - ये ७ प्रकार से वस्तु को कहा जा सकता है। यह ७ भेद वस्तु के योग्य गुण का प्रकाश करती है। जैसे अस्तित्व वस्तु का गुण है, वैसे ही अवक्तव्य भी वस्तु का गुण है। ‘अस्ति अवक्तव्य’ भी एक भिन्न गुण है। इस प्रकार समझना।

दृष्टांत ३:

“क्या आप ज्ञानी हो?”

मैं स्यात ज्ञानी हूँ  (क्योंकि मुझे कुछ विषयों का ज्ञान है) - अस्ति वक्तव्य

मैं स्यात अज्ञानी हूँ (क्योंकि मुझे कुछ विषयों के सम्बन्धी अज्ञान भी है) - नास्ति वक्तव्य

मैं स्यात ज्ञानी हूँ, स्यात अज्ञानी हूँ - अस्ति नास्ति वक्तव्य

मैं ज्ञानी हूँ और नहीं भी, यह बात एक साथ कहने की असामर्थ्यता - अवक्तव्य

मुझे कुछ ज्ञान तो हैं, पर फिर भी कह नहीं सकता कि आप जो विषय मुझसे जानना चाहते है उस पर प्रकाश डाल सकता हूँ कि नहीं - अस्ति अवक्तव्य

मैं ज्ञानी तो नहीं हूँ, पर फिर भी संभव हैं की आप जिस विषय पर चर्चा करना चाहते हो उस पर प्रकाश डाल सकता हूँ - नास्ति अवक्तव्य

मैं ज्ञानी हूँ, और नहीं भी, पर कह नहीं सकता कि आप जिस विषय पर चर्चा करना चाहते हो उस पर प्रकाश डाल सकता हूँ कि नहीं - अस्ति नास्ति अवक्तव्य

अब आगे इन भंग की उपयोगिता समझते है -

वक्तव्य नय -

  • जो यह नय न हो तो मोक्षमार्ग का उपदेश संभव ही हैं
  • वस्तु के स्वरुप को सर्वथा न कहा जा सके तो कथन किसका होगा, क्या होगा?
  • वस्तु के वक्तव्य होने के कारण ही उसे यथार्थ रूप से जाना जा सकता है
  • पहले सत्य बात का ज्ञान होता है, फिर सच्चा श्रद्धान और उसके पश्चात ज्ञान सम्यक होता है। जो सत्य बात ही न सुनने मिले तो सम्यक्त्व कैसे हो सकता है? गुरुओं के उपदेश बिना आत्मा की सही पहचान कैसे हो सकती है?

अब आगे सात भंग की मोक्षमार्ग में क्या उपयोगिता हैं उसे समझेंगे।

१. अस्ति वक्तव्य

  • मेरा अस्तित्व है इस बात की दृढ़ता आती है
  • आत्मा में ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुणों का अस्तित्व है
  • कर्म परमाणुओं की इस लोक में अस्तित्व है।
  • स्वर्ग, नर्क, कुभोगभूमि, विदेह आदि तीन लोक की चर्चा जो जिनवाणी में आयी है वह ‘है’, यह ‘अस्ति वक्तव्य’ नय से कही है।
  • जो यह न होता तो सदैव अस्तित्व के विषय में शंका होती रहती

२. नास्ति वक्तव्य

  • मेरे में पर की सम्पूर्ण नास्ति इस बात की दृढ़ता आती है
  • आत्मा में अन्य जीव के ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुणों की नास्ति है, अन्य पुद्गलों के स्पर्श-रस आदि अनंत गुणों की नास्ति है और स्व से अन्य कुछ भी मेरा नहीं है, मैं-पना नहीं है
  • ईश्वर सृष्टि का कर्ता-धर्ता नहीं है, ऐसे ईश्वर की (और सारे एकांत मतों की सत्यता से) नास्ति है
  • जिनवाणी में बताये गए मोक्षमार्ग जहाँ स्त्री की, वस्त्र सहित मोक्ष की नास्ति कही है वह ‘नास्ति वक्तव्य’ नय से ही तो कही है
  • जिनवाणी में, गुरुओं द्वारा जहाँ जहाँ भी ‘ऐसा नहीं हैं’, ‘ऐसा नहीं करना’ आदि बातें आती है वह इसी नय से कही जा सकती है
  • ‘नास्ति वक्तव्य’ आत्मा को पर से भिन्न करने के लिए एक बाँध सामान है
  • जो यह न होता तो ‘क्या नहीं हैं’ उसका ज्ञान कैसे होता?
  • “विन जानेतैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये॥”

३. अस्ति नास्ति वक्तव्य

  • ‘जीव स्व की पर्यायों का कर्ता हैं, पर की पर्यायों का कर्ता नहीं है’ - इसमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनों बारी-बारी से कहा
  • अस्तित्व और नास्तित्व दोनों को कहने का बल यह नय से मिलता है।
  • “ऐसा है, वैसा नहीं”, “इस अपेक्षा से है, अन्य अपेक्षा से नहीं” - ऐसा कहना अस्ति नास्ति वक्तव्य है।
  • जो दोनों में से किसी एक के बारे में भी न कहा जा सके तो निशंकित होना संभव नहीं है (जैसे बस इतना ही कहा जाय कि ‘जीव स्व की पर्यायों का कर्ता हैं’, तो ऐसी शंका हो सकती है कि ‘जीव पर की पर्यायो का कर्ता हैं कि नहीं?’)

४. अवक्तव्य नय

  • वस्तु में अनंत गुण है। वस्तु को जो पूरा कहा जा सके तो उसका अर्थ ये हुआ कि अनंत गुणात्मक वस्तु को एक साथ कहने की सामर्थ्य होना। जो कहा जा सके तो वस्तु सीमित हो गयी। पर यह बात प्रत्यक्ष हैं कि पूरी वस्तु का कथन करना सम्भव नहीं है। पर हाँ, पूरी वस्तु को एक साथ जाना जरूर जा सकता है।
  • हम शक्कर को जितना भी जाने उतना जान तो सकते है पर उतना एक साथ कह नहीं सकते। केवलज्ञानी भगवान एक समय में ही वस्तु को पूर्ण जानते है पर उसे कहने में वह भी समर्थ नहीं है। इसका कारण उनकी अशक्तता नहीं परन्तु वस्तु के “अवक्तव्य” गुण है। वस्तु को पूरा न कहा जा सकना उसका स्वभाव है!
  • जो वस्तु को पूरा कहा जा सके तो उसका यह अर्थ हुआ कि जो वस्तु को जानना हो तो जिसे वस्तु का पूर्ण ज्ञान हो उससे पूरी बात सुननी पड़ेगी। तभी वस्तु स्वरुप का ज्ञान होगा। यहाँ, वह वस्तु-स्वरुप को पूरा जानने वाले की यथायोग्य उपलब्धि होने की पराधीनता आ गयी। पर वास्तव में प्रयोजनभूत वस्तु का ज्ञानात्मक निर्णय कर उसका यथार्थ श्रद्धान किया जा सकता है। आत्मा स्व-पर प्रकाशक होने से अपने को पूरा जान सकता है! इसमें उसे उसके स्वरुप को किसी से पूरा सुनने की जरूरत नहीं है!
  • आत्मा का स्वरुप अवक्तव्य है। उसे वाणी से समझने का भ्रम तोड़ने की जरूरत है। आत्मा का अनुभव कोई शब्दों को सुनने मात्र से नहीं हो सकता!
  • जैसे शक्कर मीठी हैं यह शब्दोंसे विकल्पात्मक ज्ञान तो होता है पर जब उसका स्वाद लिया जाय तब ही उस मिठास का, शक्कर का यथार्थ ज्ञान होता है!
  • जैसे अमरीका ऐसा है, वैसा हैं ऐसा शब्दों से विकल्पात्मक ज्ञान तो होता है पर जब अमरीका जाकर आये तब ही उस क्षेत्र का भाव-भासन होता है। उसे शब्दों में पूरी तरह से कहना असम्भव हैं ऐसा निर्णय होता है।
  • शब्द से तो बस आत्मा कैसा है यह विकल्पात्मक ज्ञान होता है, पर आत्मा कैसा हैं उसे तो अनुभव-प्रत्यक्ष होने पर ही ज्ञात होगा।
  • जिनवाणी में व्यवहार-निश्चय की व्यवस्था का सम्यक ज्ञान इसे समझे बिना होना असम्भव है।

५. अस्ति अवक्तव्य नय

  • वस्तु के अस्तित्व को नहीं कहा जा सकना भी अति आवश्यक है। क्योंकि जो पूरा अस्तित्व कहा जा सके तो वस्तु में अनंत गुण हैं यह सिद्ध नहीं होगा
  • जब अस्तित्व कहा जा रहा हो तब अनेक बाते ऐसी हैं जो वस्तु के विषय में नहीं कही जा रही हैं। जो दोनों को साथ में कहा जा सके तो अस्तित्व और नास्तित्व जिसके कथन में शब्दों से ही विरोध है उसे कहना सम्भव हो जाना चाहिए। पर ऐसा तो वस्तु स्वरुप से ही विरुद्ध है
  • अस्तित्व तो है, पर उसी समय वस्तु में अनेक बाते अवाच्य भी है। इसलिए मोक्षमार्ग में किसी बात का जब अस्तित्व कहा जाता है तब उसी समय वस्तु की अनेक बाते अवाच्य होती है।
  • जैसे - आत्मा ज्ञानवान है। यहाँ “ज्ञानवान है” कहकर अस्ति कही पर उसके साथ ही उसके अनंत गुणों को नहीं कह पाए जाने के कारण “अवक्तव्य है” यह भी सिद्ध हो गया

६. नास्ति अवक्तव्य नय

  • वस्तु के नास्तित्व को नहीं कहा जा सकना भी अति आवश्यक है। जो पूरे नास्तित्व को कहा जा सके तो इसका अर्थ ये हुआ के विश्व के एक को छोड़कर सारे पदार्थो का उल्लेख एक समय में होना; जो प्रत्यक्ष से विरोधी हैं।
  • नास्तित्व तो है, पर उसी समय वस्तु में अनेक बाते अवाच्य भी है
  • जैसे - आत्मा जड़ नहीं है। यहाँ “जड़ नहीं है” कहकर नास्ति कही पर उसके साथ ही उसके अनंत गुणों को नहीं कह पाए जाने के कारण “अवक्तव्य है” यह भी सिद्ध हो गया

७. अस्ति नास्ति अवक्तव्य नय

  • वस्तु के अस्तित्व-नास्तित्व को पूरा नहीं कहा जा सकना भी अति आवश्यक है। अस्तित्व तो हैं, नास्तित्व भी हैं पर उसी समय वस्तु में अनेक बाते अवाच्य भी है
  • अस्तित्व और नास्तित्व को एक साथ कह पाना असम्भव हैं

ये ७ भंग वस्तु में पाए जाने वाले परस्पर विरोधी दिखने वाले धर्म-युगल पर लगाया जाता है। जैसे अस्ति-नास्ति, सत-असत, आदि।

भंग ७ ही क्यों होते है?

कोई भी ३ वस्तुएँ से कुल ७ ही combinations बनते है।

जैसे A, B और C को मिलाने पर -

  1. A
  2. B
  3. A, B
  4. C
  5. A, C
  6. B, C
  7. A, B, C

इसी प्रकार से अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य को मिलाने पर कुल ७ ही भंग संभव है।

वस्तु के विषय में ७ प्रकार की ही जिज्ञासा हो सकती है। क्योंकि ७ प्रकार का संशय हो सकता है। क्योंकि ७ प्रकार के संशय के विषयरूप वस्तु में धर्म भी ७ प्रकार के ही है।

किसी भी धर्म युगल पर घटित करने पर भंग तो ७ ही होते है, अधिक नहीं। वस्तु में अनंत धर्म होने से वस्तु में अनंत सप्तभंगी हो सकते है, पर अनंत भंग नहीं हो सकते हैं।

इन भंगो में -

  • ३ मूल भंग हैं (अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य)
  • ३ भंग द्विसंयोगी है (अस्ति नास्ति, अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य)
  • १ भंग त्रिसंयोगी है (अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य)

यह भंग क्या कह रहे है?

अस्ति वक्तव्य - सत्व धर्म (अस्तित्व) की प्रतीति

नास्ति वक्तव्य - नास्तित्व धर्म की प्रतीति

अस्ति नास्ति वक्तव्य - विवक्षाभेद से क्रम सहित अस्ति और नास्ति को कहना

अवक्तव्य - एक साथ दोनों को (अस्ति और नास्ति) को न कह पाना

अस्ति अवक्तव्य - अस्तित्व विशिष्ट अवक्तव्य धर्म की प्रतीति

नास्ति अवक्तव्य - नास्तित्व विशिष्ट अवक्तव्य धर्म की प्रतीति

अस्ति नास्ति अवक्तव्य - अस्तित्व नास्तित्व विशिष्ट अवक्तव्य धर्म की प्रतीति

कुछ प्रश्न:

१. पहला और दूसरा भंग ही वास्तव में धर्म है। अन्य तो उनके संयोग से बने है इसलिए उन्हें भेदरूप मानना योग्य नहीं है।

उत्तर:

अस्ति से बने - अस्तित्व, अस्ति नास्ति वक्तव्य, अस्ति अवक्तव्य और अस्ति नास्ति अवक्तव्य; ये सभी वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म हैं।

नास्ति से बने - नास्ति, अस्ति नास्ति वक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य और अस्ति नास्ति अवक्तव्य; ये सभी वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म हैं।

क्योंकि ये वस्तु के भिन्न धर्म है, उनके विषय में संशय भी भिन्न है, जिससे उठने वाले प्रश्न भी भिन्न है और उनके उत्तररूप कथन/विचार भी भिन्न है।

२. अस्ति-नास्ति वक्तव्य और अवक्तव्य कोई अलग नहीं हैं - बस एक क्रम से है तो दूसरा एक साथ कहा जाने के कारण है।

उत्तर:

अस्ति-नास्ति वक्तव्य (अस्तित्व और नास्तित्व को क्रम से कहना) वस्तु के उभय धर्म अर्थात वस्तु दोनों रूप है उसको बताता है; उसकी प्रधानता है।

और अस्तित्व-नास्तित्व को एक साथ कहने की असामर्थ्य वस्तु के ‘अवक्तव्य’/’अवाच्य’ धर्म को बताता है।

क्योंकि ये वस्तु के भिन्न धर्म है, उनके विषय में संशय भी भिन्न है, जिससे उठने वाले प्रश्न भी भिन्न है और उनके उत्तररूप कथन/विचार भी भिन्न है।

३. जो आप अवक्तव्य धर्म को अलग मान रहे हो तो वक्तव्य को भी भिन्न क्यों नहीं माना?

उत्तर:

अस्ति, नास्ति आदि रूप से वक्तव्य धर्म माना गया है। वक्तव्यत्व नाम का स्वतंत्र धर्म सामान्यरूप से देखने में नहीं आता क्योंकि वह अस्ति आदि में प्रगट हो ही गया है। यदि ‘वक्तव्य’ नाम का धर्म मानने में भी आवे तो उससे अस्ति-नास्ति रूप से एक स्वतंत्र सप्त भंगी की योजना हो जाएगी जो कुछ इस प्रकार से होगी -

१. वस्तु वक्तव्य हैं

२. वस्तु वक्तव्य नहीं हैं

३.  वस्तु वक्तव्य हैं भी और नहीं भी

४. दोनों साथ में न कहने के कारण ‘अवक्तव्य’ है

५. वस्तु वक्तव्य हैं और अवक्तव्य भी है

६. वस्तु वक्तव्य नहीं है और अवक्तव्य भी है

७. वस्तु वक्तव्य हैं भी और नहीं भी, और अवक्तव्य भी है

४. इन ७ भंग में भी आगे संयोग करके और भी तो भंग बनाये जा सकते है। जैसे - ‘अस्ति और अस्ति नास्ति’, ‘नास्ति और अस्ति नास्ति’, ‘अस्ति अस्ति अवक्तव्य’ आदि।

उत्तर:

बनाने को तो जितने भंग चाहे उतने बना सकते है। पर यह वस्तु में पाए भी तो जाने चाहिए न? जो ऐसे धर्म सहित कोई विश्व में वस्तु ही न हो तो उसके विषय में कथन कैसा? ऐसे नवीन भंग के अनुसार वाच्य (अर्थात ऐसे भंग सहित पदार्थ) पदार्थ की प्रतीति लोक में नहीं पायी जाती, इसलिए यह नवीन भंग लोक विरुद्ध है। इसलिए ऐसी कल्पना करना अकार्यकारी है। स्याद्वाद वस्तु के स्वरुप का उदघाटन करता है, वस्तु जैसी नहीं हैं उसे नहीं कहता है।

५. क्या आप यह ‘अनेकांत’ पर सप्तभंगी नय लगा सकते हो? क्योंकि अनेकांत में सप्तभंगी न लगा सको तो अव्याप्ति दोष लगेगा और जो जो ‘अनेकांत की नास्ति है’ ऐसा भंग करोगे तो अनेकांत में ही दोष आ जायेगा और अनवस्था (contradiction) दोष भी आएगा।

उत्तर:

वस्तु का स्वरुप कथंचित एकांतात्मक भी हैं और कथंचित अनेकांतात्मक भी। कैसे? जो किसी वस्तु के अंश को अपेक्षा सहित देखे तो वह एकांतात्मक हो गया, पर वही वस्तु को पूरा देखे तो अनेकांतात्मक हो गया।

इसलिए ‘अनेकांत’ धर्म में सप्तभंगी की योजना इस प्रकार की जा सकती है

१. कथंचित एकांत है

२. कथंचित अनेकांत है

३. कथंचित एकांत भी है और अनेकांत भी

४. कथंचित अवक्तव्य है

५. कथंचित एकांत और अवक्तव्य है

६. कथंचित अनेकांत और अवक्तव्य है

७. कथंचित एकांत, अनेकांत और अवक्तव्य है

इस प्रकार हमने ७ भंग को योग्य विस्तार से समझने की कोशिश की। वास्तव में जो नय व्यवस्था को, इन ७ भंग को ठीक से न समझा जाये तो वस्तु को स्वरुप को समझना संभव ही नहीं है। जिनवाणी में कही बात को योग्य ग्रहण करना हैं तो नयज्ञान होना अत्यावश्यक ही है। अवक्तव्य स्वभाव वाले आत्मा के विषय में हमने अस्ति भी कही और नास्ति भी; पर जो आत्मा का अनुभव करना है तो वाणी से, नय से पार होकर उसे जानना होगा, ग्रहण करना होगा और आस्वादन करना होगा। नयचक्र को चलाने में चातुर्य प्रगट कर प्रमाण के द्रव्य का ग्रहण हो और स्वभाव सन्मुख हो जाए ऐसी मंगल भावना के साथ ‘सप्तभंगी’ नय के विषय को यही विराम देता हूँ।

जो वाणी के भी पार कहा, मन भी थक करके रह जाये।

इन्द्रिय गोचर तो दूर, अतीन्द्रिय, के विकल्प में न आये ॥

अनुभवगोचर कुछ नाम नहीं, निरनाम भी क्या अद्भुत होगा ? ॥ २ ॥

जब एक रतन अनमोल है तो, रत्नाकर कैसा होगा?

जिसकी चर्चा ही है सुन्दर तो, वो कितना सुन्दर होगा ?

  • सोहम शाह, अहमदाबाद

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