सप्तभंगी नय
वस्तु का स्वरुप अनेकान्तात्मक हैं। उस वस्तु को कहने की सापेक्ष कथन पद्धति को स्याद्वाद कहते है। पूरी प्रमाण की वस्तु जो योग्य ‘स्यात’ पद सहित कहा जाय तो उसे प्रमाण वाक्य कहते है। पर पूरी वस्तु के किसी अंश को मुख्य करके अन्य को गौण कर कथन किया जाय उसे नय वाक्य कहते है।
श्रुतज्ञान प्रमाण हैं, पर उसके भेद को नय कहा गया हैं। वस्तु के अनंतधर्मात्मक होने के कारण उसका पूरा वर्णन एक साथ करने की क्षमता वाणी में नहीं है। इसलिए किसी समय किसी एक ही पड़खे का कथन करना संभव होता है। इसी को नय कहते हैं। जो वक्ता है उसके कथन करने के अभिप्राय या उस समय उसने वस्तु के किस अंश को मुख्य किया हैं उसे नय कहते हैं। यही बात जो ज्ञाता हैं उस पर भी लागू होती हैं। क्योंकि छद्मस्थ जीव की विकल्पात्मक दशा में एक साथ पूरी वस्तु का विचार करना असंभव है। पर श्रद्धान तो पूरी वस्तु का पक्का हैं ही।
जैसे - शक्कर का विचार/कथन किया जाय तब उसके किसी एक गुण (जैसे ‘श्वेतपने’) का हो सकता है। पर श्रद्धान में तो उसे शक्कर का पूरा स्वरुप का ज्ञान है, बस एक साथ उसे कह/सोच नहीं सकता।
वैसे - ज्ञानी आत्मा को ज्ञानवान कहे, कभी श्रद्धावान कहे, या कभी सहजनान्दी कहे; या विचारे, उसके श्रद्धान में तो पूरे आत्मा का निर्णय यथार्थ हैं ही - जो उसे प्रतिसमय ज्ञात हैं।
इस प्रकार, नय के स्वरुप की कुछ चर्चा हुई। अभी, ये सप्तभंगी नय क्या हैं उसे देखते है।
नय भेदरूप होने से अनेक प्रकार के होते है (प्रमाण के भेद नहीं होते); जैसे व्यवहार-निश्चय, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक, ४७ नय, तत्वार्थसूत्र में कहे ऋजुसूत्र आदि ७ नय आदि। वैसा ही एक प्रकार हैं “सप्तभंगी नय” अर्थात ७ भंग वाले नय।
कोई भी वस्तु (या उसके गुण) सम्बन्धी कुछ कहना हो तो २ बाते आती हैं
१. उसके वक्तव्य-अवक्तव्य के विषय में
२. उसके अस्तित्व-नास्तित्व के विषय में
१. उसके वक्तव्य-अवक्तव्य के विषय में
- उसे कहा जा सकता है - वक्तव्य
- उसे कहा नहीं जा सकता हैं - अवक्तव्य
वक्तव्य का भाव यह हैं कि विवक्षित वस्तु के किसी गुण-धर्म को कह पाने की वाणी में क्षमता। क्योंकि वस्तु का सद्भाव है, तो उन्हें जानने की क्षमता तो जीव में है (केवलज्ञान स्वभाव होने के कारण), पर उसे शब्दों में कहने की क्षमता हैं या नहीं - यह बात है।
कोई वस्तु या उसका गुण क्या-कब-कहाँ-कैसा कहा जा सकता है कि नहीं; इसकी चर्चा कोई भी कथन में होती ही हैं।
इन प्रश्नों में वक्तव्य-अवक्तव्य होने का विचार कर सकते हैं -
“क्या मैं गुड़ का स्वाद कैसे होता हैं वह कह सकता हूँ?”
“क्या सिद्ध भगवान का सुख कैसा होता है वह कह सकते हैं?”
“सर दर्द कर रहा हो तो क्या वह कैसा दर्द कर रहा हैं वह कहना संभव है?”
“नरक गति के जीवो को कैसे दुःख होते हैं? - क्या यह कह सकते है?”
२. उसके अस्तित्व-नास्तित्व के विषय में
- उसका सद्भाव / हैं-पना है - अस्तित्व
- उसका सद्भाव / हैं-पना नहीं है - नास्तित्व
कोई वस्तु या उसका गुण क्या-कहाँ-कब-कैसे हैं के नहीं है; उसकी चर्चा कोई भी कथन में होती ही हैं।
इन प्रश्नों में अस्तित्व-नास्तित्व होने का विचार कर सकते हैं -
“गुड़ में श्वेतपना है कि नहीं?”
“सिद्ध भगवान सुखी है कि नहीं?”
“सर दर्द कर रहा हैं कि नहीं?”
“नरक गति के जीवो को दुःख होते हैं कि नहीं”
यह पढ़के आपके मन में जरूर कुछ न कुछ उत्तर आये होंगे, कुछ नये प्रश्न भी उठे होंगे। आप निश्चिंत हो जाइये क्योंकि हम आज इसका पक्का स्वरुप समझने वाले है।
यह २ बातों (अस्तित्व-नास्तित्व और वक्तव्य-अवक्तव्य) से यह निष्कर्ष निकाल सकते है कि इनके अलावा इस जगत में किसी और विषय के सन्दर्भ में चर्चा होती ही नहीं। आप कोई भी कथन ले लीजिये, इन दोनों की (अस्तित्व-नास्तित्व और वक्तव्य-अवक्तव्य) ही चर्चा होती है। इन से अन्य कुछ भी बात नहीं हैं; यही वस्तु का स्वरुप है।
जैसे -
“गुड़ मीठा है”
विश्लेषण: इसमें गुड़ में “मीठेपन” का अस्तित्व कहा और इसे मीठा कहा जा सका; इसलिए गुड़ के सन्दर्भ में वक्तव्य भी हो गया।
हम अब पूछे कि - “गुड़ मीठा हैं, पर वह केले जैसा मीठा है कि शक्कर जैसा?”
तो वे कहेंगे - “गुड़ शक्कर या केले जैसा मीठा नहीं हैं, उसके मीठेपन को समझाना हमे नहीं आता”
विश्लेषण: इसमें गुड़ में शक्कर और केले की मिठास का नास्तित्व कहा और क्योंकि उस गु ड़ के मीठेपन को और कहा नहीं जा सका इसलिए गुड़ के सन्दर्भ में अवक्तव्यपना भी हो गया!
अब आप ही बताइये गुड़ मीठा हैं कि नहीं? हैं तो कैसा है, नहीं हैं तो कैसा नहीं? ये कैसा गोल-गोल लगता है? अटपटी लगती है? हैं भी और नहीं भी, कह सकते और नहीं भी!
वास्तव में यही तो वस्तु का अनेकान्तात्मक स्वरुप है। इसे कहना ही तो स्याद्वाद है! गुड़ कथंचित मीठा है और कथंचित मीठा नहीं भी, उसका मीठापन कथंचित वक्तव्य हैं कथंचित नहीं भी! अहो! सर्वज्ञ भगवान की वाणी की यह भाषा बड़ी निराली है! सूक्ष्म है, अद्भुत है - अनादि के एकांत संस्कार के कारण इसे ह्रदय में उतारना है तो शुद्ध शांत चित्त करके इसको समझना होगा।
इसलिए नय कथन करते समय “कथंचित” / “स्यात” / “किसी अपेक्षा से” पद का प्रयोग होना अति आवश्यक है। अन्यथा सच्ची बात को समझना-कहना असंभव है।
“गुड़ कथंचित मीठा है और कथंचित मीठा नहीं भी”
“गुड़ कथंचित वक्तव्य हैं और कथंचित अवक्तव्य भी”
ऐसा कहना योग्य होगा। “स्यात” का प्रयोग करने पर जिस गुण-धर्म का प्रकाश किया है उसे तो ठीक से कहा जाता हैं ही, पर जिस वस्तु के अंश को नहीं कहा उसका निषेध नहीं होता, गौण किया जाता है।
जो गुड़ को सर्वथा मीठा अर्थात मीठेपन का अस्तित्व कह दिया जाय तो उसमे उससे अन्य सारे पदार्थो के मीठापन का भी मानना पड़ेगा। पर वास्तव में, गुड़ में अपनी अपेक्षा से मीठापन हैं पर अन्य पदार्थो की अपेक्षा (अर्थात अन्य पदार्थो की) उसमे अभाव है।
यहाँ तक के प्रकरण में हमे कुछ बाते समझ आयी -
- वस्तु का परूपण वक्तव्य-अवक्तव्य और अस्तित्व-नास्तित्व के परिप्रेक्ष्य में होता है
- वस्तु का स्वरुप ही अनेकान्तात्मक है
- अपेक्षा सहित कहना या ‘स्यात’ का प्रयोग करना अनिवार्य है
वक्तव्य-अवक्तव्य और अस्तित्व-नास्तित्व के कितने combination / संयोजन हो सकते है और उस से ७ भंग कैसे होते है वह देखते है।
पहले तो वस्तु के विषय में कुछ कहा जा सकता है या नहीं कहा जा सकता। इसलिए वक्तव्य और अवक्तव्य २ मूल भेद हुए।
अब वक्तव्य में -
१. वस्तु के अस्तित्व को कहा जा सकता है - अस्ति वक्तव्य
२. वस्तु के नास्तित्व को कहा जा सकता है - नास्ति वक्तव्य
३. वस्तु के अस्तित्व को और नास्तित्व को बारी-बारी (एक साथ नहीं) से कहा जा सकता है - अस्ति-नास्ति वक्तव्य
अब अवक्तव्य में -
४. वस्तु के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता - अवक्तव्य
५. वस्तु के अस्तित्व को नहीं कहा जा सकता - अस्ति अवक्तव्य
६. वस्तु के नास्तित्व को नहीं कहा जा सकता - नास्ति अवक्तव्य
७. वस्तु के अस्तित्व को और नास्तित्व को (क्रम से) और वस्तु के विषय को नहीं कहा जा सकता - अस्ति-नास्ति अवक्तव्य
इस प्रकार ७ भेद हुए। ये सात भंग वास्तव में वस्तु के विषय म ें उठने वाली ७ प्रकार की जिज्ञासाएँ ही है।
इसे दृष्टांत द्वारा और विशेष रूप से समझते है -
दृष्टांत १:
१. शक्कर कथंचित मीठी है - अस्ति वक्तव्य
२. शक्कर कथंचित मीठी नहीं है - नास्ति वक्तव्य
३. शक्कर कथंचित मीठी हैं और कथंचित मीठी नहीं भी है - अस्ति-नास्ति अवक्तव्य
४. शक्कर के मीठेपन का कथंचित अवक्तव्य है (अर्थात उसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता) - अवक्तव्य
५. शक्कर में मीठेपन की कथंचित अस्ति तो है पर उस मीठेपन की अस्ति को पूरा नहीं कहा जा सकता है अथवा उस मीठेपन के अस्तित्व को नहीं कहा जा सकता है - अस्ति अवक्तव्य
६. शक्कर में मीठेपन की कथंचित नास्ति तो है पर उस मीठेपन की नास्ति को पूरा नहीं कहा जा सकता है अथवा उस मीठेपन के नास्तित्व को नहीं कहा जा सकता है - नास्ति अवक्तव्य
७. शक्कर कथंचित अस्ति तो हैं, नास्ति तो हैं पर उसकी अ स्ति और नास्ति को पूरा नहीं कहा जा सकता है (एक साथ भी नहीं कहा जा सकता) अथवा उस उस मीठेपन के अस्तित्व और नास्तित्व को नहीं कहा जा सकता है - अस्ति नास्ति अवक्तव्य
दृष्टांत २:
१. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्ति है - अस्ति वक्तव्य
२. द्रव्य की परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति है (अर्थात द्रव्य की उससे अन्य पर द्रव्यों में सम्पूर्ण रूप से असद्भाव है। द्रव्य का उसमे तो अस्तित्व जरूर है, पर उसका अस्तित्व कोई भी परद्रव्य में नहीं है) - नास्ति वक्तव्य
३. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से क्रम से अस्ति और नास्ति दोनों है (अपितु अस्ति और नास्ति को एक साथ कहना संभव नहीं हैं, पर क्रम से कहे जाने की अपेक्षा से वह वक्तव्य है) - अस्ति नास्ति वक्तव्य
४. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से और पर-द्रव्य-क्षे त्र-काल-भाव से युगपद कहने पर अवक्तव्य है (अर्थात दोनों एक साथ कहना असंभव है) - अवक्तव्य
५. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्ति हैं पर युगपद स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव नहीं कहे जाने पर अवक्तव्य है - अस्ति अवक्तव्य
६. द्रव्य की परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति हैं पर युगपद स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव नहीं कहे जाने पर अवक्तव्य है - नास्ति अवक्तव्य
७. द्रव्य की स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्ति हैं, परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति और युगपद स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव नहीं कहे जाने पर अवक्तव्य है - अस्ति नास्ति अवक्तव्य
संक्षिप्त में कहे तो -
द्रव्य स्व अपेक्षा से अशून्य है,
पर से शून्य है,
क्रम से शून्य, अशून्य दोनों है
स्व पर युगपद से अवाच्य है
अशून्य और अवाच्य है
शून्य और अवाच्य है
अशून्य, शून्य और अवाच्य है
अर्थात - ये ७ प्रकार से वस्तु को कहा जा सकता है। यह ७ भेद वस्तु के योग्य गुण का प्रकाश करती है। जैसे अस्तित्व वस्तु का गुण है, वैसे ही अवक्तव्य भी वस्तु का गुण है। ‘अस्ति अवक्तव्य’ भी एक भिन्न गुण है। इस प्रकार समझना।
दृष्टांत ३:
“क्या आप ज्ञानी हो?”
मैं स्यात ज्ञानी हूँ (क्योंकि मुझे कुछ विषयों का ज्ञान है) - अस्ति वक्तव्य
मैं स्यात अज्ञानी हूँ (क्योंकि मुझे कुछ विषयों के सम्बन्धी अज्ञान भी है) - नास्ति वक्तव्य
मैं स्यात ज्ञानी हूँ, स्यात अज्ञानी हूँ - अस्ति नास्ति वक्तव्य
मैं ज्ञानी हूँ और नहीं भी, यह बात एक साथ कहने की असामर्थ्यता - अवक्तव्य