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तत्वज्ञान पाठमाला : भाग २

Chapter 1: महावीराष्टक स्तोत्र**

‘महावीराष्टक’ स्तोत्र - एक अद्भुत अलंकारित संस्कृत स्तोत्र; जिसमे कविवर पंडित भागचंद जी इस युग के अंतिम तीर्थनायक और वर्तमान शासननायक भगवान महावीर के प्रति भक्ति सुन्दर रीती से प्रगट करते हैं। यह एक अष्टक हैं - जिसमे कुल ८ पद होते हैं - जहाँ भगवान की वीतरागता, सर्वज्ञता, हितोपदेश; अनेकांत, स्याद्वाद, नय, भक्तिभावना आदि से महावीर भगवान के गुणों को प्रकाशित करते हैं - मानो एक सच्चा और आदर्श भक्त की भावना शब्दों द्वारा वर्णन करने का प्रयास किया हो।

भगवान की भक्ति में तल्लीन कवि तो बस एक ही भावना भा रहे हैं कि -

“महावीर स्वामी नयनपथगामी भवतु मे”

अर्थात

“हे महावीर स्वामी भगवान; आप मेरे नयन के पथ में गमन करनेवाले हो अर्थात मुझे आपके दर्शन प्राप्त हो / आप मेरे ह्रदय में प्रवेश करे”

कौन कौन से गुणों की भक्ति कवि करते हैं? आइये वह जानते हैं -

श्लोक १:

इस श्लोक में भगवान की सर्वज्ञता (दर्पण के दृष्टांत से) और हितोपदेशीपना (सूर्य के दृष्टांत से) जैसे लक्षण सहित आप्त (अरिहंत भगवान) (यहाँ भगवान महावीर) की भक्ति की हैं।

श्लोक २:

भगवान महावीर स्वामी अंतरंग और बहिरंग विकारों से रहितपना (लालिमारहित स्पन्दरहित नेत्र-कमल के अलंकार से) प्रकाशित करते हुए भक्ति भावना व्यक्त की हैं।

श्लोक ३:

भगवान महावीर के चरण कमल के (जो इन्द्रादि द्वारा भी पूज्य हैं, जो उनके मुकुटमणि के प्रभासमुह से मिश्रित हो शोभायमान हो गए हैं) स्मरण से ही मानो अनादि की भवज्वाला को शांत करने में जल के समान भविजनो के चित्त को पवित्र करता हैं; ऐसी भक्ति भावना से भगवान के गुणों की पूजा की हैं।

श्लोक ४:

अरे! एक मेंढक भी जिनकी भक्ति करके स्वर्ग सम्पदा को प्राप्त हो गया तो भविजन भगवान महावीर के गुणों की भक्ति करके उनके जैसे गुणों को प्रगट करें तो उसमे क्या आश्चर्य? अर्थात कोई आश्चर्य नहीं हैं।

श्लोक ५:

यह श्लोक अपने आप में अद्भुत ही हैं। क्योंकि भगवान की भक्ति के साथ ही भगवान ने बताया हुआ वस्तु का अनेकांतात्मक स्वरुप का वर्णन यहाँ किया गया हैं।

जैसे -

बहिरंग दृष्टि से: भगवान महावीर तपाये हुए स्वर्ण की आभावाले हैं और

अंतरंग दृष्टि से: वे केवल ज्ञानशरीरी हैं; अशरीरी हैं

विचित्र होते हुए भी अखंड हैं;

जन्मरहित होते हुए भी क्यूंकि वे अभी भी अरिहंत अवस्था में हैं; संसारी हैं; तो वे सिद्धार्थ राजा के पुत्र भी हैं;

अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से सहित होने पर भी संसार के राग से रहित हैं

श्लोक ६:

यहाँ भगवान की वाणी कैसी हैं - उसका वर्णन करते हुए भक्ति प्रगट करी हैं। भगवान की वाणी को गंगा की उपमा दी हैं - जो नय-रुपी लहरों से पवित्र हैं; जिसमे जगतजीव स्नान करते हैं और ज्ञानीजनरुपी हंसो से परिचित हैं।

श्लोक ७:

सारे लोक को जिस विषयवासनारुपी महायोद्धा ने अपने वश कर लिया हैं; वैसे शत्रु को आपने स्वयं आत्मबल से कुमार अवस्था में ही जीत लिया हैं (भगवान महावीर बल ब्रह्मचारी तीर्थंकर हैं); और इससे उनका स्थाई निरकुलतामय शान्तियुक्त पद का राज्य प्रगट हुआ हैं - वैसे महावीर भगवान हमारे नयनपथगामी हो।

श्लोक ८:

ये जीव रोगस्वभावी शरीर में रोग को दूर करने के कितने मिथ्या प्रयत्न करता हैं? इस श्लोक में महामोहरूपी रोग को शांत करने की बात की हैं। कवि कहते हैं कि भगवान महावीर इस मोहरोग के नाश के लिए आकस्मिक (अचानक से मिले हुए!) उपलब्ध वैद्य के सामान हैं; निरपेक्ष बंधु हैं, जिनकी महिमा तीन लोक को विदित हैं; मंगलकारक हैं; साधू के साध्य हैं; उत्तम गुण से संपन्न हैं - वे महावीर भगवान मेरे नयनपथगामी हो।

Chapter 2: शास्त्रों के अर्थ करने की पद्धति

मिथ्यात्व के कारण ये जीव संसार में भ्रमण कर रहा हैं। महाभाग्यवश उसे जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित मोक्षमार्ग जिनवाणी के रूप में प्राप्त होता हैं। इस जिन-वाणी को ही शास्त्र कहते हैं; जिससे ये जीव वस्तुस्वरुप का यथार्थ निर्णय कर सकता हैं और सच्चे सुख को प्राप्त कर सकता हैं।

जैसे किसी को जोहरी को पारसमणि का स्वरुप न पता हो तो वह उसे या तो कम तोलता हैं या फिर अन्यथा समझकर पत्थर की तरह उसे फेंक देता हैं; वैसे ही जिन जीवो को सत-शास्त्र का समागम हो भी जाये पर उसमे कही गयी बात की अपेक्षा, उनका वास्तविक अर्थ और वह अर्थघटन करने की पद्धति के विषय में ज्ञान न होने से वह शास्त्र भी उसके मोक्षमार्ग में कार्यकारी नहीं होते हैं।

जिनवाणी में ‘निश्चय’ और ‘व्यवहार’ रूप वर्णन होता हैं। जिसे निश्चय और व्यवहार का ही वास्तविक स्वरुप न ज्ञात हो तो फिर जिनवाणी के अर्थ को अन्यथा समझे तो उसमे क्या आश्चर्य?

निश्चय नय वस्तु को यथार्थ रूप से बताता हैं; और व्यवहार नय वस्तु का स्वरुप परद्रव्य के भाव के निरूपण से करता हैं; वह उपचाररूप कथन होता हैं।

जैसे समवसरण में अरिहंत परमेष्ठी को आठ प्रातिहार्य आदि होते हैं - ऐसा वर्णन करणानुयोग आदि ग्रन्थ में पाया जाता हैं; पर यह तो उपचार से कथन हैं; वास्तव में तो अरिहंत परमेष्ठी संसार से पूर्णतः मुक्त हैं; तो फिर यह छत्र, भामंडल उनके कैसे हो सकते हैं? निश्चय से तो कदापि नहीं हो सकते, पर व्यवहार से कहा जा सकता हैं।

ऐसे ही, क्या व्रत, समिति, गुप्ति आदि का नाम मोक्षमार्ग हैं? यह तो मन, वचन, काय आदि से सम्बन्ध रखते हैं; और मोक्षमार्ग का सम्बन्ध तो आत्मा से हैं, पर द्रव्य से नहीं!

इसलिए जहाँ निश्चय नय की मुख्यता से व्याख्यान हो वहाँ - ‘सत्यार्थ यह ही हैं’ ऐसा समझना और जहाँ व्यवहार नय की मुख्यता से व्याख्यान हो वहाँ - ‘ऐसा नहीं हैं, निमित्तादि की अपेक्षा कथन हैं’ ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए।

जैसे सीढ़ी, कितने feet ऊँचा हैं, उसके photos आदि की मदद से गिरनार पर्वत की ऊंचाई का ज्ञान तो हो सकता हैं; पर वास्तविक गिरनार पर्वत की ऊंचाई का ज्ञान तो प्रत्यक्ष तीर्थ वंदना करने से ही होता हैं। सीढ़ी आदि से सिर्फ कहा गया था; क्योंकि उसकी विशालता का वर्णन शब्दों से करना असमर्थ हैं।

वैसे ही, आत्मा के गुण आदि का भेद व्यवहार नय से कहा जाता हैं; निश्चय से तो आत्मा का स्वरुप अभिन्न वचन-अगोचर स्वयंसिद्ध वस्तु होने से उसका प्रत्यक्ष अनुभव हो तभी होता हैं। क्योंकि आत्मा के यर्थार्थ स्वरुप न जानने के कारण सिर्फ आत्मा ‘आनंद का पिंड’ हैं ऐसा ही कह कह करे तो उसे कुछ समझ में नहीं आएगा; इसलिए व्यवहार से शरीर आदि के भेद करके समझाया गया हैं। सच ही हैं; म्लेच्छ को म्लेच्छ की भाषा में ही समझाना पड़ता हैं। जब तक निश्चय से वस्तु का निर्णय न हो तब तक व्यवहार मार्ग से वस्तु का निश्चय करना चाहिए। पर उसे उपचारमात्र मानकर उससे वस्तु का यथार्थ निर्णय करे तो ही कार्यकारी होगा।

प्रथमानुयोग

  • इस अनुयोग के ग्रन्थ में महापुरुषों की कथा आदि प्रसंग वैराग्य का पोषण करने के उद्देश्य से बताये गए हैं।
  • इसमें जो संवाद आदि होते हैं वह ग्रंथकर्ता की स्वकल्पित रचना होती हैं क्योंकि उसका हूबहू ज्ञान होना संभव नहीं हैं।
  • मुख्यरूप से कथनशैली व्यवहार से होती हैं और प्रसंगवश किसी को मुख्य-गौण करके समझाया जाता हैं। जैसे - मुनि विष्णुकुमार की दीक्षा का छेद करना प्रशंसनीय नहीं हैं, परन्तु उनके वत्सलत्व गुण को मुख्य करके प्रेरणा दी गयी हैं।
  • इस प्रकार, प्रथमानुयोग शास्त्र का अध्ययन उनके उद्देश्य और शैली को ध्यान में रख कर करना चाहिए।

करणानुयोग

  • इस अनुयोग के शास्त्र में तीन लोक, ६ काल परिवर्तन, ६ द्रव्य, कर्म आदि का विस्तार पाया जाता हैं
  • यहाँ भी अनेक जगह व्यवहार से कथन होता हैं कि ‘आत्मा कर्म को बांधता हैं’ आदि; पर निश्चय से तो ये आत्मा पर पुद्गल कर्म पिंड से अत्यंत भिन्न हैं!
  • इन ग्रन्थ के स्वाध्याय से भव्य जीवो को केवलज्ञान की महिमा आती हैं, ज्ञान के क्षयोपशम का मान गल जाता हैं; और यहाँ आत्मा को व्यवहार से गुणस्थान आदि के सहित बताकर उद्देश्य तो निश्चय से इन सब से रहित बताना ही हैं - और इन ग्रंथो की यही उपयोगिता हैं
  • कोई जीव करणानुयोग में बताये गुणस्थान आदि को न माने तो स्वच्छंदी होकर आत्मानुभूति, आचरण आदि का श्रद्धान करता हैं और सम्यग्दर्शन को प्रगट नहीं कर सकता

चरणानुयोग

  • इस अनुयोग के ग्रन्थ में मुख्यरूप से व्यवहार कथन पद्धति से बाह्य आचरण आदि के पालन की चर्चा होती हैं
  • निश्चय से तो ग्रहण-त्याग संभव ही नहीं हैं; पर बाह्य में व्यवहार से व्रतादि आदि का ग्रहण और व्यसन, अव्रत आदि का त्याग का उपदेश होता हैं
  • निश्चय के बिना व्यवहार नहीं हो सकता, इसलिए निश्चय सहित व्यवहार के पालन की ही प्रधानता जानना
  • जैसे, २८ मूलगुण आदि के पालन से साधुपना व्यवहार से बताया गया हैं; पर निश्चय से तो आत्मा की शुद्धता के पैमाने पर ही भाव से साधुपना होता हैं - ऐसा सर्वथा लगाना चाहिए

द्रव्यानुयोग

  • इस अनुयोग के ग्रन्थ में मुख्यरूप से निश्चय नय से कथन होता हैं, और व्यवहार को अभूतार्थ सिद्ध करने के लिए अनेक युक्ति, न्याय और दृष्टांत का उपयोग किया जाता हैं।
  • सात तत्त्व और ६ द्रव्य का यथार्थ श्रद्धान करवाना ही इन ग्रन्थ का मूल उद्देश्य हैं और कथन शैली भी बाह्य से अंतर की और ले जाने वाली और आत्मानुभवन की महिमा गानेवाली होती हैं

चारों अनुयोग का सार ‘वीतरागता’ ही हैं; और सबकी अपनी अपनी उपयोगिता हैं। मुख्य-गौण करके कथन होता हैं, पर निषेध किसीका भी नहीं हैं। सिर्फ प्रथमनुयोग / करणानुयोग / चरणानुयोग / द्रव्यानुयोग को ही मानना एकांत मत हैं, मिथ्यात्व हैं। इसीलिए अपना प्रयोजन और भूमिका अनुसार वीतरागता की पोषक जिनवाणी के चारो अनुयोग का सही पद्धति से अर्थ करके आत्मकल्याण के लिए स्वाध्याय करना चाहिए।

Chapter 3: पुण्य और पाप

“पुण्य भला या पाप?” -  ये प्रश्न किसी भी व्यक्ति को पूछो तो इसका उत्तर कुछ भी ज़्यादा सोचे बिना “पुण्य भला हैं और पाप बुरा हैं… ये भी कोई सवाल हैं क्या?” ऐसा ही देगा।

वैसे पुण्य को भला ठीक ही कहा हैं; समाज में दान, अहिंसा आदि पुण्यक्रिया करनेवाले लोग सज्जन कहलाते हैं। चोरी, हिंसा जैसे पाप करनेवालो से तो सज्जन पुरुष भले ही हैं न!

वास्तव में कोई भी भला या बुरा अपेक्षा का ही खेल हैं। हमारा (साधक / मुमुक्षु जीव) प्रयोजन चूँकि मोक्षमार्ग हैं तो पूरा प्रश्न तो ऐसा हैं कि - “मोक्षमार्ग में पुण्य भला या पाप?” जो प्रयोजन मोक्षमार्ग हैं तो फिर चलो पहले पुण्य और पाप क्या हैं उसको यथार्थ रूप से जानते हैं।

आत्मा में शुभ भाव के निमित्त से पुण्य कर्म परमाणु आत्मा से बंधते हैं और अशुभ भाव के निमित्त से से पाप कर्म परमाणु आत्मा से बंधते हैं।

१. पुण्य और पाप तो पुद्गल द्रव्य हैं, मेरे जीव द्रव्य से अत्यंत भिन्न हैं तो फिर भला या बुरा होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता! पर द्रव्य से कोई सम्बन्ध ही नहीं हैं तो फिर उनको मोक्षमार्ग में निश्चय से शामिल करना तर्कसंगत नहीं हैं।

२. आत्मा में शुभ और अशुभ भाव से अंत में तो कर्म बंधन ही हो रहा हैं; कषाय भाव ही हो रहा हैं, अंत में तो आकुलता ही हैं - और सुख का लक्षण निराकुलता हैं और मोक्ष दशा का नाम ही पूर्ण शुद्ध दशा, सारे कर्मों से विरक्त दशा हैं। तो फिर दोनों भाव कैसे भले हो सकते हैं - जो इस जीव को संसार से छूटने न दे? इस युक्ति से तो यह सिद्ध हैं कि न तो शुभ और न अशुभ मोक्षमार्ग में भले हैं - और निश्चय से दोनों ही त्याज्य हैं

३. शुभ और अशुभ भावों से भिन्न एक शुद्ध भाव ही वास्तव में उपादेय हैं और मोक्षमार्ग में कार्यकारी हैं

इसलिए,

“मुमुक्षु जीवों को भी निचली अवस्था में पुण्य प्रवृत्ति अवश्य होती है, पर निदान रहित होने के कारण, उनका पुण्य पुण्यानुबंधी है, जो परंपरा मोक्ष का कारण है। लौकिक जीवों का पुण्य निदान व तृष्णा सहित होने के कारण पापानुबंधी है, तथा संसार में डुबानेवाला है। ऐसे पुण्य का त्याग ही परमार्थ से योग्य है।”

मोक्षमार्ग में न पुण्य भला हैं, न पाप भला हैं - बस पर्याय के विकारो से भिन्न एक शुद्ध आत्मा के आश्रय से उत्पन्न शुद्ध भाव ही भला हैं।

इस पुण्य और पाप के विषय में आचार्यो का क्या मत हैं उसके लिए कुछ आगम उल्लेख -

“जिसके भाव में मोह, राग, द्वेष अथवा चित्त प्रसन्नता है, उसे शुभ अथवा अशुभ परिणाम होते हैं।”

  • पंचास्तिकाय

“बंध और मोक्ष का कारण अपना विभाव और स्वभाव परिणाम है, ऐसा भेद जो नहीं जानता है, वही पुण्य और पाप इन दोनों को मोह से करता है।”

“हे जीव! अपने सम्यग्दर्शन के सम्मुख होकर मरना भी अच्छा है, परंतु सम्यग्दर्शन से विमुख होकर पुण्य करना अच्छा नहीं है।”

“हे जीव! जो पाप का उदय जीव को दुःख देकर शीघ्र ही मोक्ष के जाने योग्य उपायों में बुद्धि कर देवे, तो वे पाप भी बहुत अच्छे हैं। 56। और फिर वे पुण्य भी अच्छे नहीं जो जीव को राज्य देकर शीघ्र ही नरकादि दुःखों को उपजाते हैं (देखें अगला शीर्षक ) ऐसा ज्ञानी जन कहते हैं।”

  • परमात्मप्रकाश

“जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बाँधती है, वैसे ही सेाने की बेड़ी भी पुरुष को बाँधती है। इसी प्रकार अपने द्वारा किये गये शुभ व अशुभ दोनों ही कर्म जीव को बाँधते हैं।”

  • समयसार

“निश्चय से दोनों ही संसार के कारण हैं, इसलिए पुण्य व पाप में कोई विशेषता नहीं है”

  • तत्वसार

“जिस प्रकार चंदन से उत्पन्न अग्नि भी अवश्य जलाती है, उसी प्रकार धर्म से उत्पन्न भी भोग अवश्य दुःख उत्पन्न करता है।”

  • योगसार

“दोन्यौं ही आकुलता के कारण हैं, तातैं बुरे ही हैं।”

  • मोक्षमार्ग प्रकाशक

“जैसे सम्यग्दृष्टि को उक्त इंद्रियजय सुख और ज्ञान आदेय नहीं होते हैं, वैसे ही आत्मप्रत्यक्ष होने के कारण संपूर्ण कर्म भी आदेय नहीं होते हैं।”

  • पंचाध्यायी

“‘पुण्य और पाप इस प्रकार कोई भेद नहीं है’ जो ऐसा नहीं मानता है, वह मोहाच्छादित होता हुआ घोर अपार संसार में परिभ्रमण करता है।”

  • प्रवचनसार

“जो पुण्य को भी चाहता है, वह संसार को चाहता है, क्योंकि पुण्य सुगति का कारण है। पुण्य का क्षय होने से ही मोक्ष होता है।”

  • कार्तिकेयानुप्रेक्षा

“शुभपरिणाम पाप के भी हेतु हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है।”

  • राजवार्तिक

“चूँकि पुण्य से विभव, विभव से मद, मद से मतिमोह और मतिमोह से पाप होता है, इसलिए पुण्य को भी छोड़ना चाहिए - (ऐसा पुण्य हमें कभी न हो)”

  • तिलोयपण्णत्ति

और कितने उल्लेख चाहिए? कुछ और कहने की आवश्यकता हैं क्या? पुरे जिनागम में इस विषय पर एकमत हैं कि पाप और पुण्य एक सामान ही हैं, दोनों ही संसार के कारण हैं और त्याज्य हैं - उनसे विपरीत शुद्ध भाव उपादेय हैं और वह ही कर्मबन्धन से छुड़वाने का और मोक्ष दशा प्रगटाने का कारण हैं।

Chapter 4: निमित्त उपादान

समस्त द्वादशांग का सार बस इतना ही हैं कि ‘एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं हैं, सारे जगत का परिणमन स्वतंत्र हैं - और सबसे भिन्न मैं एक शुद्ध भगवान आत्मा हूँ’ - इस बात के श्रद्धान से ही सम्यक्त्व हैं और इस से ही पूर्ण दशा प्रगट होती हैं!

वस्तु स्वरुप के अयर्थार्थ श्रद्धान के कारण ही इस जीव को अनंत दुःख हैं और संसार भ्रमण हैं। अपने को पर का कर्ता मानकर आकुलित हुआ और प्राप्त पर्याय में तन्मय होकर चौरासी लाख योनिओं में दिशाहीन होकर भ्रमण कर रहा हैं।

निमित्त-उपादान कारण जैसे वस्तु स्वरुप का बोध कराने वाले विषय से इस जीव को सत्य बात की खबर पड़ती हैं, अज्ञान अन्धकार दूर होता हैं और इससे ही तो भेदविज्ञान करके जीव आत्मानुभूति करता हैं। यह बात भले ही बहुत सूक्ष्म हैं; पर एकाग्रता और रूचि से सुने और चिंतवन करे तो अनंत सुख देनेमें समर्थ हैं।

कोई भी कार्य होने के पीछे कोई न कोई कारण तो अवश्य होता ही हैं।

कारण दो प्रकार के होते हैं

१. उपादान कारण -  जो स्वयं कार्यरूप परिणमित होता हैं

२. निमित्त कारण - जो स्वयं तो कार्यरूप न परिणमे, पर कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने का आरोप जिसपर आ सके

उपादान कारण से जो कार्य हो उस कार्य को ‘उपादेय’ कहते हैं, और

निमित्त कारण से जो कार्य हो उस कार्य को ‘नैमेत्तिक’ कहते हैं।

दृष्टांत १:

कार्य: रोटी बनना

उपादान कारण: आटा

निमित्त कारण: बाई, जल, अग्नि, रसोईघर आदि

जो आटे में रोटीरूप परिणमन करने की योग्यता न होती (उपादान) तो रोटी न बनने से फिर बाई आदि पर निमित्त होने का आरोप भी न आता। इससे यह सिद्ध होता हैं कि आटा स्वयं परिणमन होकर रोटीरूप दशा को प्राप्त होता हैं और कार्य जब होता हैं तब बाहर में निमित्त रूप में बाई आदि पर आरोप आता हैं।

दृष्टांत २:

कार्य: भरत चक्रवर्ती का चक्र चलाना

उपादान कारण: स्वयं चक्र

निमित्त कारण: भरत चक्रवर्ती, उस समय की वायु आदि, युद्ध का मैदान, प्रकाश आदि

उपादान कारण को अब थोड़ा और सूक्ष्मरूप से देखते हैं।

उपादान कारण प्रकार के होते हैं -

१. त्रिकाली उपादान

  • जो द्रव्य स्वयं कार्य रूप परिणमन करे वह त्रिकाली उपादान हैं

२. क्षणिक उपादान २ प्रकार से हैं -

  • अनन्तर पूर्वक्षणवर्ती (penultimate) पर्याय का व्यय - उपादनकारण और उसकी अनन्तर उत्तरक्षणवर्ती (next) पर्याय - उपादेय
  • विवक्षित कार्य का उस समय वो रूप परिणमन करने की योग्यता (तत समय की योग्यता)

आत्मा में केवलज्ञान प्रगट करने की शक्ति तो हैं, पर वह व्यक्त नहीं हैं। कोई कहे की त्रिकाली उपादान से तो आत्मा में ज्ञान गुण हैं तो फिर उसे केवलज्ञानरूप परिणमन करने से कौन रोक रहा हैं; अर्थात केवलज्ञान हो जाना ही चाहिए!

पर वस्तु स्थिति ऐसी नहीं हैं, उस समय उस पर्याय की योग्यता में केवलज्ञानत्व की योग्यता होगी तो ही ज्ञान की केवलज्ञानरूप दशा होगी - और वह कार्य होगा। फिर बाहर में जितने निमित्त दिखे उन पर आरोप!

कार्य का नियामक तो त्रिकाली उपादान (द्रव्य शक्ति) सहित क्षणिक उपादान (पर्याय शक्ति) ही हैं - जब जैसी जिस पर्याय की योग्यता होगी तभी वैसा परिणमन होगा यह अकाट्य सिद्धांत हैं!

निमित्त कारण के भी भेद हैं -

१. प्रेरक निमित्त - जो इच्छाशक्ति से युक्त और सक्रीय हो - जैसे जीव, पुद्गल द्रव्य

२. उदासीन निमित्त - जो इच्छाशक्ति से रहित और निष्क्रिय हो - जैसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल

अब तक की चर्चा से इतना तो स्पष्ट हो गया कि निमित्त कार्य का कर्ता नहीं हैं; वह सिर्फ कार्य जब होता हैं वहाँ उपस्थित होता हैं।

प्रश्न: सप्तम गुणस्थान के योग्य शुद्ध परिणाम के लिए निर्ग्रन्थ दीक्षा लेना अनिवार्य हैं और उसमे निमित्त हैं। तो फिर आप ऐसे निमित्तों का निषेध करोगे तो कोई २८ मूलगुण पालन ही क्यों करेगा? और क्योंकि द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग नहीं होता तो फिर कोई ७वे गुणस्थान में कैसे प्रवेश करेगा?

उत्तर: निमित्त का निषेध नहीं हैं; पर निमित्त का कार्य में कर्तत्व का निषेध हैं! बात एकदम सत्य हैं कि द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग कदापि नहीं हो सकता; पर विचार करने पर सुगमता से ही ज्ञात हो जाता हैं कि -

  • जब भावलिंगरूप ७वा (और ६ठा) गुणस्थान (कार्य) आत्मा की शुद्धोपयोग दशा (उपादान) से प्रगट होगा तब द्रव्यलिंगरूप निमित्त उपस्थित अवश्य होगा ही होगा।
  • पर जब तक भावलिंग (कार्य) प्रगट नहीं हुआ हैं तब तक बाहर के द्रव्यलिंग पर उस समय निमित्त होने का आरोप नहीं आएगा।
  • अनेक द्रव्यलिंगी मुनिराज ऐसे भी तो हैं न जो पुरुषार्थ की हीनता की वजह से (या ऐसा कहो कि योग्यता न होने के कारण से) भावलिंग दशा को प्राप्त नहीं हो पाते - तो फिर द्रव्यलिंगपने को भावलिंग (कार्य) का नियामक कैसे उचित हैं?

इस प्रकार अन्य सब जगह यही तर्क लगाना चाहिए।

निमित्त का निषेध नहीं हैं पर उपादान-निमित्त के विषय से वस्तु के स्वतंत्र परिणमन, जैन धर्म का हृदय - अकर्तावाद, क्रमबद्ध पर्याय आदि सिद्धांत की तार्किक पुष्टि हो जाती हैं; और इससे ही भेदविज्ञान की धारा बहती हैं। ऐसे मार्मिक और अध्यात्मरस से भरपूर विषय का चिंतवन करके हम भी सम्यक्त्व को प्राप्त करे ऐसी भावना के साथ अपनी बात को विराम देता हूँ।

Chapter 5: आत्मानुभूति और तत्वविचार

‘आत्मानुभूति’ ही मोक्षमार्गी के लिए एकमात्र साध्य हैं, एकमात्र इष्ट हैं, एकमात्र ध्येय हैं और इसी का नाम वास्तव में धर्म हैं। इस निबंध में प. डॉ हुकमचंद जी भारिल्ल ने इतने मुख्य और कठिन विषय को अत्यंत सुलभ और सरल तरीके से प्रस्तुत किया हैं।

अन्तरोन्मुखी वृत्ति के द्वारा आत्मसाक्षात्कार की स्थिति का नाम ही ‘आत्मानुभूति’ हैं - जो ज्ञायक, ज्ञान और ज्ञप्तिरूप होने से अखंड हैं।

इसको जाननेवाला भी आत्मा हैं, जो जानने में आ रहा हैं वह भी आत्मा हैं और जो ज्ञान परिणति हैं वह ही आत्ममय ही हैं। दूसरे शब्दों में - अतीन्द्रिय ज्ञानानंद स्वभावी ध्रुव तत्व पर सम्पूर्ण प्रगट ज्ञान-शक्ति की एकाग्रता होनी वही धर्ममय दशा हैं। धर्म की शुरुआत (सम्यग्दर्शन) आत्मानुभूति से होती हैं; और पूर्णता (सिद्ध दशा) भी इससे ही होती हैं।

आत्मानुभूति की दशा के लिए जो वस्तुस्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक हैं; और आत्मानुभूति प्रगटाने के लिए किया जाने वाला विकल्पात्मक प्रयत्न का नाम तत्वविचार हैं। ‘मैं कौन हु’, ‘मेरा स्वरुप क्या हैं’ जैसा चिंतवन निरंतर होना, अपने से पर को अलग देखने रूप भेदविज्ञान निरंतर चलता रहना ही तत्वविचार हैं।

आत्मानुभूति तो निर्विकल्प दशा हैं; जो विकल्पों के अभाव से ही उत्पन्न होती हैं। तत्वविचारपूर्वक आत्मानुभूति होती हैं; पर आत्मानुभूति के काल में तत्त्वविचार के विकल्प भी नहीं रहते और बाहर के सभी रंग राग से परे एक शुद्ध आत्मा का अनुभव होता हैं - बस यही आत्मानुभूति हैं!

ऐसी दशा प्रगट करने का पुरुषार्थ करना एक मुमुक्षु का परम कर्तव्य हैं। वर्तमान में जितना पर्यायगत योग्यता की आवश्यकता हैं वह परिपूर्ण हैं; और इसीलिए ही पुरे ज्ञान की शक्ति तो बस एक आत्मानुभूति के कार्य में स्थिर करना चाहिए। हमे भी इस आत्मानुभूति की प्राप्ति हो और ज्ञानंद स्वभावी आत्मा का अतीन्द्रिय आनंद प्रगट कर सके ऐसी मंगल भावना।

Chapter 6: ६ कारक

“जो क्रिया का जनक हो”, “क्रियानिष्पन्नता में प्रायोजक हो” उसे कारक कहते हैं जो निम्न रूप से ६ प्रकार के होते हैं:

१. कर्ता -  जो स्वतंत्रपने कार्य करता हैं

२. कर्म - कर्ता जिसको प्राप्त करे

३. करण - उत्कृष्ट साधन

४. सम्प्रदान - जिसके लिए कर्म किया जा रहा हो

५. अपादान - जिसमे से कर्म किया जाता हो वह

६. अधिकरण - जिसके आधार से कर्म होता हो

क्रिया: घड़े का बनना

कारकनिश्चयव्यवहार
कर्त्तामाटीकुम्भार
कर्ममाटी (क्योंकि वह घड़े से अभिन्न हैं)घड़ा
करणमाटी (उसके परिणमनस्वभाव से घड़ा बना)दंड, चक्र
सम्प्रदानमाटी (उसने अपने को घडेरूप अर्पण किया)जल भरने वाले
अपादानमाटी (क्योंकि इस परिणमन में वह ध्रुवरूप ही रही जसमे कार्य हुआ)माटी की टोपली
अधिकरणमाटी (उसने स्वयं के लिए ही उस रूप हुआ हैं)जमीन

इस प्रकार निश्चय से तो वस्तु के षट्कारक उसमे ही हैं - वह स्वयं ही, स्वयंको, स्वयंसे स्वयं के लिए, स्वयं में से, स्वयं में करता हैं और यही सत्यार्थ हैं । द्रव्य को कोई बाह्य सामग्री की ज़रुरत नहीं अपना कार्य करने के लिए; क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का करता नहीं हैं।

यह पाठ प्रवचनसार जी ग्रन्थ की ‘१६वी’ गाथा के आधार से लिखा गया हैं - जहाँ स्वयंभू शब्द का अर्थ करने के लिए आचार्य अमृतचन्द्र देव टिका में इस बात को स्पष्ट करते हैं।

इस प्रकार आत्मा स्वयं भी अपना कर्ता हुआ - और पर से कुछ सम्बन्ध नहीं। जीव की मुख्य भूल यह ही हैं कि वह व्यवहार ६ कारक को यथार्थ मानकर जीव को पर का करता मानलेने की भूल कर बैठता हैं और अनंत दुःख व आकुलता पाता हैं।

इस विषय में और अनेक दृष्टांत जैसे केवलज्ञान का कार्य, आत्मा में विकारिभावो पर कैसे ६ कारक घटित होते हैं, कर्म और आत्मा का अत्यन्ताभाव दर्शाता हुआ ६ कारकरूप भिन्नता आदि से स्पष्टीकरण किया गया हैं।

हम भी ६ कारक से आत्मा का यथार्थ स्वरुप जानकर, उसकी अनंत शक्ति को पहिचानकर आत्मानुभूति प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

Chapter 7: १४ गुणस्थान

जीव के मोह और योग के निमित्त से होनेवाले भावो (गुणों) की तारतम्यरूप अवस्था को गुणस्थान कहते हैं। इस तारतम्यरूप अवस्था से १४ स्थान जिनेन्द्र भगवान ने बताये हैं जिसे गुणस्थान कहते हैं। यह विषय जिनागम का एक  महत्वपूर्ण विषय हैं।

एक अपेक्षा से देखा जाए तो मोक्ष के इच्छुक यात्रीजन के लिए उस मोक्षमार्ग पर चलने के लिए और अपनी मंज़िल तक पहुँचने का नक्शा हैं - जिसमे जीव कौनसी अवस्था में कैसे भाव होते हैं, ऊपर जाने के लिए कैसे भाव होते हैं, गिरने के लिए कैसे भाव होते हैं; कहाँ जा सकते हैं, कहा से आ सकते हैं, कौन किस गुणस्थान में हो सकता हैं आदि अनेक जिज्ञासाओं का इस प्रकरण में ही विश्लेषण और समाधान किया जाता हैं।

चलिए हम इन १४ गुणस्थान को संक्षिप्त में जानते हैं -

१. मिथायत्व

  • जीवादी प्रयोजनभूत तत्वों का अयथार्थ श्रद्धान
  • देव-शास्त्र-गुरु का विपरीत श्रद्धान
  • २ प्रकार के होता हैं -
    • १. गृहीत: कल्पित नविन विपरीत मिथ्या मान्यता। जैसे - कुदेव आदि
    • २. अग्रहीत: अनादि से चलता आ रहा मिथ्या श्रद्धान। जैसे - शरीर को आत्मा मानना

२. सासादन

  • सम्यग्दर्शन से च्युत होकर जीव जब गिरता हैं तब बीच की अवस्था का नाम सासादन हैं
  • यहाँ श्रद्धा सम्यक हैं; पर अनंतानुबंधी कषाय का उदय हैं

३. मिश्र

  • सम्यग्मिथ्यात्व मोहनीय कर्म प्रकृति के उदय से जीव इस गुणस्थान में आता हैं
  • इसमें मिश्र श्रद्धान होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान भी कहा जाता हैं
  • यहाँ अनंतानुबंधी कषाय का अनुदय हैं

४. अविरत सम्यक्त्व

  • श्रध्दा का पूर्ण निर्मल होना
  • चारित्र का एकदेश निर्मल होना जिसमे अनंतानुबंधी का उपशम/क्षय होता हैं
  • ५ लब्धि पूर्वक होता हैं और आत्मानुभूति से प्रगट होता हैं
  • आत्मानुभव छूटने पर भी जीव की मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी का उदय नहीं होता हैं
  • इसके ३ भेद हैं - १. औपशमिक २. क्षयोपशमिक ३. क्षायिक
  • चरणानुयोग के योग्य आचरण देखा जाता हैं
  • ८ अंग, ८ मद रहित, ७ भय रहित, ३ मूढ़ता रहित, ६ अनायतन रहित होता हैं

५. देशविरत सम्यक्त्व

  • आत्मा की शुद्ध परिणति में वृद्धि से जीव इस गुणस्थान में आता हैं
  • अनंतानुबंधी और प्रत्याख्यान कषाय का अनुदय
  • व्रत और संयम के विशेष परिणाम होते हैं
  • ११ प्रतिमा जीव धारण करता हैं
  • निश्चय और व्यवहार दोनों से इस को यथायोग आचरण देखने में आता हैं

६. प्रमत्तसंयत

  • इसमें आत्मा की शुद्धि ५वे गुणस्थान से कई अधिक होती हैं और प्रमाद के सहित पर इसे प्रमत्तसंयत होता हैं
  • इस गुणस्थान से आगे जीवो को नियम से नग्न दिगंबर मुनि दशा होती ही हैं
  • यह गुणस्थान ७वे से गिरकर आता हैं
  • अनंतानुबंधी ३ चौकड़ी कषाय का अनुदय
  • २८ मूलगुण, २२ परिषह, ५ समिति, ३ गुप्ति का निर्दोष निरतिचार पालन

७. अप्रमत्तसंयत

  • १५ प्रमाद से रहित मुनि दशा
  • २ प्रकार का होता हैं -
    • १. स्वस्थान अप्रमत्तसंयत: जो श्रेणी आरोहण न करे और ६-७ में झूलते हैं वह
    • २. सातिशय अप्रमत्तसंयत: उग्र पुरुषार्थ से जब श्रेणी आरोहण हो वह समबन्धी ७ गुणस्थान
  • यहाँ से उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी मांडकर मुनिराज मोक्षपद की और आगे बढ़ते हैं
  • इसमें अधःप्रवृत्तकरण होता हैं जहाँ जीव को प्रतिसमय अनंतगुनी विशुद्धि होती हैं

८. अपूर्वकरण

  • प्रति समय अनंतगुनी विशुद्धि
  • भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवो की अपेक्षा उपरीतन समयवर्ती जीवो के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवो से हमेशा अपूर्व (विसदृश) ही होते हैं
  • अभिन्न समयवर्ती जीवो की अपेक्षा परस्पर सदृश या विसदृश दोनों ही संभव हैं

९. अनिवृत्तिकरण

  • प्रति समय अनंतगुनी विशुद्धि
  • भिन्न-भिन्न समयवर्ती जीवो की अपेक्षा उपरीतन समयवर्ती जीवो के परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवो से हमेशा अपूर्व (विसदृश) ही होते हैं
  • अभिन्न समयवर्ती जीवो की अपेक्षा परस्पर सदृश ही होते हैं

१०. सुक्ष्मसामप्राय

  • अबुद्धिपूर्वक होनेवाला लोभ का भी अंत जिस गुणस्थान के बाद हो जाए या जिस गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ देखा जाए वह सूक्ष्मसाम्प्रय गुणस्थान हैं
  • प्रति समय अनंतगुनी विशुद्धि
  • इस गुणस्थान के अंत में सभी कषाय का उपशम/क्षय हो जाता हैं

११. उपशान्तमोह

  • पूर्ण वीतराग दशा
  • यहाँ मोह उपशम अवस्था में होता हैं
  • जीव अभी भी छद्मस्थ होता हैं क्योंकि ३ घातिकर्म शेष बाकी हैं
  • अन्तर्मुहूर्त काल तक ही इस गुणस्थान का सद्भाव हैं

१२. क्षीणमोह

  • पूर्ण वीतराग दशा
  • यहाँ मोह का पूर्ण क्षय हो गया होता हैं
  • क्षीणकषाय छद्मस्थ वीतराग दशा

१३. सयोगकेवली

  • ४ घाति कर्म का नाश
  • अरिहंत दशा - केवली दशा
  • योग के सद्भाव के कारण इसे ‘सयोग’ केवली कहते हैं

१४. अयोगकेवली

  • योगरहित दशा
  • ४ अघाती कर्म का क्षय इस गुणस्थान में होता हैं
  • इस गुणस्थान का काल - अ, इ, उ, ऋ, लृ, स्वरों के उच्चारण करने जितना ही हैं
  • इसके बाद जीव सिद्ध दशा को प्राप्त होता हैं

सिद्ध भगवान

ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल - वर्जित, सिद्ध महन्ता।

ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता॥

  • ८ कर्म का नाश जिनका हो गया हैं
  • ८ गुण प्रगट हुए हैं
  • अव्याबाध सुख की दशा प्रगट हुई हैं
  • कृतकृत्य दशा
  • लोकाग्र में बिराजमान हैं

Chapter 8: तीर्थंकर महावीर भगवान

इस पाठ में  अंतिम तीर्थंकर और वर्तमान शासननायक भगवान महावीर का बहुत ही गहराई से विवेचन किया गया हैं, उनके जीवन के अनेक घटनाविशेष को यथार्थरूप से बताया हैं और महावीर भगवान का सन्देश क्या हैं उस पर चर्चा की गई हैं।

यह निबंध जनजन तक भगवान महावीर के द्वारा बताये गए मोक्षमार्ग को सरल भाषा और लेखनी से पहुंचाने का एक सफल प्रयास हैं। इस पाठ के कुछ मुख्यबिंदु और वर्णन जो द्रष्टव्य हैं -

  • भगवान और तीर्थंकर की परिभाषा और उनके भेद का वर्णन
  • भगवान जन्मते नहीं हैं, बनते हैं
  • भगवान महावीर का जीवन
    • ३० साल तक वैभव और विलास के बीच जल में कमल के सदृश संसार से अस्पृश्य और उदास रहे
    • उसके पश्चात १२ साल तक मुनिदशा
    • अंतिम ३० साल सर्वोदय धर्मतीर्थ प्रवर्तन और मोक्षमार्ग का हितोपदेश
  • इस पाठ में महावीर भगवान के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष की विशेष, उपयोगी और सूक्ष्म जानकारी दी गयी हैं।
  • उनके पांच नाम का वर्णन और उसका कारण भी बताया गया हैं
  • इसी पाठ में जैन धर्म के अनेकांत और स्याद्वाद जैसे विषयो का भी सम्मलेन कथा के साथ ही कर के एक लेखन का उत्तम दृष्टांत प्रस्तुत किया हैं
  • इस उपरान्त इंद्रभूति गौतम गणधर की कथा और उनका वर्णन दिया गया हैं
  • उनके द्वारा दिए गए उपदेश का भी उत्तम वर्णन यहाँ दिया गया हैं

Chapter 9: देवगम स्तोत्र

‘देवगम स्तोत्र’ अपनेआप में ही एक अद्भुत अद्वितीय रचना हैं जो आचार्य समन्तभद्र के द्वारा हजारो वर्ष पहले की गयी हैं - जिसमे उन्होंने आप्त के सन्दर्भ में गंभीर विचारणा प्रस्तुत की हैं।

इस स्तोत्र में निम्न विषय की चर्चा की गयी हैं

  • भगवान महान क्यों हैं? देवो द्वारा पूजिता, अतिशय आदि, तीर्थ प्रवर्तक होने से भगवान महान नहीं हैं।
  • भगवान वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण महान हैं
  • सर्वज्ञता की सिद्धि (प्रत्यक्ष, अनुमान से)
  • जिनवचन युक्ति और आगम से अविरुद्ध हैं; प्रत्यक्ष और प्रमाण से बाधित नहीं हैं
  • एकान्तवादीओ का खंडन
  • ४ अभावो से वस्तु व्यवस्था की सिद्धि
  • अनेकांत और स्याद्वाद का वर्णन
  • सप्तभंगी नय का वर्णन

इस प्रकार अनेक दृष्टांत से युक्त इस मीमांसा से वस्तु व्यवस्था का तर्क वितर्क से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता हैं।

Mythbusters

यह सेमेस्टर में तत्त्वज्ञान पाठमाला, निमित्तोपादान, धर्म के देश लक्षण जैसी syllabus से मेरे चिंतवन को गहरा करने के लिए और निमित्त-उपादान, ६ कारक, गुणस्थान जैसे विषयो में स्पष्टीकरण करने लिए अत्यंत ही उपयोगी रही। अनेक myth जो इस सेमेस्टर मेरे clear हुए

  • निमित्तोपादान का यथार्त स्वरुप। इससे मुझे अब स्पष्ट हो गया हैं कि कार्य कैसे होता हैं और भेद विज्ञान कैसे कर सकते हैं। कार्य कैसे होता हैं, निमित्त का क्या role हैं आदि। ऐसे जिनागम के गंभीर विषय को बहुत सुन्दर रूप से पढ़ा हैं
  • दश लक्षण धर्म की पुस्तक से अब मेरा देश धर्म के स्वरुप से सम्बंधित लगभग सारी मिथ्याकल्पनाये चली गयी हैं (जैसे उत्तम सत्य का स्वरूप, उत्तम त्याग का स्वरुप आदि)
  • सम्यक्त्व के भेद (गुणस्थान पाठ) से मुझे आत्मानुभूति और सम्यक्त्व का सम्बन्ध कैसा हैं उसका यथार्थ ज्ञान हो गया हैं
  • इतनी गहरी तत्वज्ञान की बात समझकर अपने अंदर भी बहुत सारे बदलाव आये हैं - क्योंकि इतना तो अब स्पष्ट हो गया हैं कि मार्ग तो यही हैं और इस्पे ही आगे बढ़ना हैं