तत्वज्ञान पाठमाला : भाग १
Chapter 1: श्री सीमंधर पूजन
भव-समुद्र सिमित कियो सीमंधर भगवान
कर सीमित निजज्ञान को, प्रगट्यो पुराण ज्ञान।।
अद्भुत पंकितयों के साथ तत्वज्ञान पाठमाला भाग १ को मंगल करते हुए डॉ भारिल्ल जी जिवंत स्वामी तीर्थंकर सीमंधर प्रभु की पूजन का समावेश पहले पाठ स्वरुप किया गया हैं।
“आत्मज्ञान ही ज्ञान हैं, शेष सभी अज्ञान”
भव समुद्र को सिमित करके; निज ज्ञान तो अपने में ही सिमित कर दिया हैं जिन्होंने; ऐसे वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी सीमंधर भगवान को नमस्कार करता हूँ।
वैसे तो यह पूजन के प्रत्येक अक्षर से भगवान के गुणों की भक्ति से सुशोभित हैं; पर फिर भी कुछ अत्यंत सुन्दर पंक्तिया यहाँ प्रस्तुत की गयी हैं -
१. भविजन-मन-मीन-प्राणदायक भविजन-मन-जलज खिलत हैं
२. अक्षत विज्ञान दिया जग को, अक्षत-ब्रह्माण्ड किया तुमने
३. निज अंतर वास सुवासित हो, शूनयान्तर पर की माया से!
४. क्षुत पीड़ा कैसे रह लेगी जब पाए नाथ निरंजन से!
५. अज्ञानतमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंग-रलियों में
६. चंचल छाया की माया सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में
अष्टक की प्रत्येक पंक्ति तत्त्वज्ञान से भरपूर हैं; बहुत सूक्ष्म बाते की गयी हैं।अर्घ में सारे द्रव्यों को समावेश करके भगवान को एक अद्भुत अर्घ अर्पण किया गया हैं।
जयमाला में तीर्थंकर सीमंधर के अनंत चतुष्टय, कहा विराजमान हैं उसकी चर्चा, कुंद कुंद आचार्य को दिव्यध्वनि का सार जिनकी वाणी से प्राप्त किया आदि चर्चा की गयी हैं। अंत में समयसार गुणानुवाद करके निज समयसार को प्राप्त करने की प्रेरणा दी गयी हैं।
“जो सिमें निज आत्म में, वही सीमंधर स्वामी,
समयसार निज आत्म की, महिमा शब्द से नाहि।”
Chapter 2: सात तत्त्व सम्बन्धी भूल
जो मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत हैं, जिनके यथार्थ श्रद्धान से निश्चय धर्म की उत्पत्ति होती हैं; वैसे जीवादी साथ तत्वों के सम्बन्धी भूल को जानकार उन्हें त्यागना अत्यंत आवश्यक हैं।
आज तक जो भी भूल जीव ने की हैं; उन सभी भूल का मूल सात तत्त्व की विपरीत समझ ही हैं।
जीव और अजीव
जीव (अपने आत्मा को) को अजीव (अन्य सभी द्रव्य) मानना और अजीव को जीव मानने से ही मुख्यतः सारा संसार समा जाता हैं। शरीर के जन्म से अपनी उत्पत्ति मानता हैं और मरण को अपना नाश मानता हैं; और बीच के जीवन में जो भी इस शरीर से सम्बन्ध रखता उससे राग-द्वेष करता हैं और दुःखी होता हैं। मान्यता का ही सब खेल हैं!
आस्त्रव
शुभ और अशुभ दोनों ही भाव हेय हैं; पर अज्ञानी पुण्य आस्त्रव को भला मानता हैं और
पाप आस्त्रव को बुरा मानता हैं। मिथ्यात्व के कारण जो राग आदि भाव हैं वही बंध के कारण हैं; और वह हेय हैं पर अज्ञानी की भूल यह हैं कि वह उसे उपादेय मानता हैं। उपादेयबुद्धि तुटे तभी तो सम्यक्त्व होवे!
बंध
शुभ कर्म और अशुभ कर्म दोनों ही बंध ही हैं; इसलिए पुण्य या पाप की इच्छा होना, उसमे उपादेयबुद्धि होना ही बांध तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं! जो संसार में जीव को भरमावे वह कैसे भला हो सकता हैं?
संवर
कर्म-बंधन के रुकने का नाम संवर हैं - और जो संवरमय बाह्य क्रिया का निरूपण शास्त्र में किया गया हैं जैसे समिति, गुप्ति आदि का यथार्थ स्वरुप न जानकार स्वर्ग आदि की चेष्टा करता हैं, हिंसादि के व्यवहार त्याग को ही चारित्र मान लेता हैं, बहिरंग तप आदि को ही संवर का कारण मान लेता हैं और पुण्य कर्म के बंधन को रोकने को भला न जानता हुआ संवर तत्त्व को नहीं जानता हैं और यही उसको भूल हैं!
निर्जरा
वीतरागभाव रुपी तप को नहीं जानता हुआ जो सिर्फ व्यवहार के तप को ही निर्जरा का कारण मानकर शरीर को तपाने को ही निर्जरा समाज बैठता हैं वह जो शुद्ध आत्मा में लीनता से जड़ कर्म का स्वयमेव निर्झरित हो जाने को निर्जरा न मानना ही वास्तव में अज्ञानी की निर्जरा तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।
मोक्ष
अनंत सुखी होना संभव हैं, आत्मा के आश्रय से निराकुलता प्रगट हो सकती हैं, संसार में दुःख ही हैं, स्वर्ग सुख सुख नहीं अपितु सुखाभास ही हैं और मोक्ष का कारण शुभ भाव नहीं शुद्ध भाव हैं - इससे विपरीत मान्यता वाला मिथ्यादृष्टि को मोक्ष तत्त्व सम्बन्धी भूल इस प्रकार होती हैं।
भूला भटके संसार में, पूछे क्या हैं मेरी भूल?
मूल भूल की बस एक ही, तत्त्व श्रद्धान की चूक।
Chapter 3: लक्षण और लक्षणाभास
कोई भी वस्तु को उसके लक्षण से जाना जाता हैं - जैसे अग्नि को उसकी उष्णता से, जल को शीतलता से, आदि। वैसे ही, जिसको अपने आत्मा को जानना हैं तो उसका लक्षण पहचानना अत्यंत आवश्यक हैं। लक्षण और लक्षणाभास न्याय का विषय हैं।
अनेक मिली हुई वस्तुओं में से एक वस्तु को भिन्न करनेवाले हेतुविशेष को लक्षण कहते हैं।
कहा भी हैं -
परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्।2।
“परस्पर सम्मिलित वस्तुओं से जिसके द्वारा किसी वस्तु का पृथक्करण हो, वह उसका लक्षण होता है।”
- राजवार्तिक
किं लक्खणं। जस्साभावे दव्वस्साभावो होदि तं तस्स लक्खणं, जहा पोग्गलदव्वस्स रूव - रस-गंध-फासा, जीवस्स उवजोगो।
“जिसके अभाव में द्रव्य का भी अभाव हो जाता है, वही उस द्रव्य का लक्षण है। जैसे - पुद्गल द्रव्य का लक्षण रूप, रस, गंध और; जीव का उपयोग।”
- धवला
लक्षण के दो भेद हैं - (राजवार्तिक, न्यायदीपिका)
१. आत्मभूत - जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो
२. अनात्मभूत - जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो उससे पृथक् हो
जिसका लक्षण निश्चित करने में आये उसे लक्ष्य कहते हैं।
जो लक्षण दोष सहित हो उसे लक्षणाभास कहते हैं - शब्द में ही ‘आभास’ छुपा हैं। तात्पर्य यह हैं कि वह उसका सच्चा लक्षण नहीं हैं।
दोष ३ प्रकार के हैं -
१. अव्याप्ति - जो लक्षण लक्ष्य वस्तु में पूर्ण रूप और सभी अवस्थाओं में व्याप्त न हो (जैसे जीव का लक्षण राग-द्वेष कहना - क्योंकि संसारी जीव में राग द्वेष विद्यमान हैं पर मुक्त जीवो में नहीं)
२. अतिव्याप्ति - जो लक्षण लक्ष्य से अतिरिक्त अलक्ष्य वस्तु में भी व्याप्त हो (जैसे जीव का लक्षण अमूर्तिक कहना)
३. असंभव - जो लक्षण लक्ष्य में प्राप्त ही न हो (जैसे जीव का लक्षण अवगाहनत्व कहना)
इस प्रकार जो हमारा लक्ष्य (आत्मा) हैं उसके लक्षणों को यथार्थ जानकार सभी लक्षणाभास का ज्ञान करके लक्षण को पूर्णतः पर्याय में प्रगट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
बिन जाने लक्षण सभी, कैसे साधना लक्ष्य की होय?
आभास जब तक उनका रहे, सत श्रद्धान असंभव होय।
Chapter 4: पांचवे गुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमा
जीव का श्रद्धा गुण चतुर्थ गुणस्थान में पूर्णता को प्राप्त हो गया हैं; आत्मा के आनंद का अनुभव जीव को हो गया हैं। अनंतानुबंधी कषाय के अभाव रूप व्यवहार सम्यक्चारित्र भी उत्पन्न हो गया हैं। संसार के प्रति अत्यंत उदासीन सम्यग्दृष्टि जीव जब विशेष पुरुषार्थ से स्वरुप स्थिरता से आत्मानुभव करता हैं तो पंचम गुणस्थान प्रगट होता हैं। बाहर में क्योंकि अब शुद्ध परिणाम का विशेष उदय हुआ हैं, अप्रत्याख्यानावरण कषाय भी अभाव को प्राप्त हो रहा हैं। कषाय की मंदता के प्रभाव से यह पंचम गुणस्थानवर्ती जीव को बाहर में व्रत आदि दीखते हैं; उस भूमिका का नाम प्रतिमा हैं। साधक जीव अपनी भूमि का समझकर अपने अंदर उत्पन्न परिणाम का निरिक्षण करके चरणानुयोग अनुसार प्रतिमा धारण करता हैं।
एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात-
“कोई मिथ्यादृष्टि जीवन को स्वरुप का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान और रमणता न हो तो भी कषाय की मंदता के साथ ये ११ प्रतिमा का बाह्य पालन संभव हैं;
परन्तु कोई साधक जीव जिसे स्वरुप का श्रद्धान, ज्ञान और रमणता हैं, और अनुभूति भी उस-उस प्रतिमा के अनुरूप हैं पर बाह्य में निषेध की गयी क्रियाएँ होती रहे ऐसा संभव नहीं हैं!”
आत्म अनुभव और स्थिरता तो समझ आती हैं; पर व्यवहार से बाहर कौनसी क्रिया का निषेध होता हैं? क्या आचरण का पालन होता हैं? इसके उत्तर स्वरुप उन ११ प्रतिमा का संक्षेप वर्णन करते हैं:
१. दर्शन प्रतिमा - आठ मूलगुण का पालन, सप्त व्यसन का त्याग
२. व्रत प्रतिमा - ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत
३. सामायिक प्रतिमा - सब के प्रति समता धारण करना, अन्तर्म ुहूर्त के लिए ३ बार सामायिक करना
४. प्रोषधोपवास प्रतिमा - पर्व (अष्टमी और चतुर्दशी) के दिन उपवास करना और स्वभाव में लीनता का अभ्यास प्रोषधोपवास प्रतिमा हैं
५. सचित्त-त्याग प्रतिमा - सचित्त भोजन का त्याग करना
६. दिवामैथुनत्याग प्रतिमा - नव बाढ़ सहित शील को दिवस के समय में पालना और पर्व-तिथि के दिवस पर रात्रि को भी शील का निर्दोष पालन करना
७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा - नव बाढ़ सहित ब्रह्मचर्य का निरंतर निर्दोष पालन
८. आरम्भत्याग प्रतिमा - असि, मसि, कृषि, व्यापार आदि समस्त आरम्भ के विकल्पों का त्याग करना
९. परिग्रहत्याग प्रतिमा - अति आवश्यक वस्तु के अलावा सभी परिग्रहो का त्याग करना
१०. अनुमतित्याग प्रतिमा - व्यापार, विवाह आदि सांसारिक कार्यो के सम्बन्धी कोई अनुमति न देना
११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा - क्षुल्लक और ऐलक दो दशा हैं। नवकोटि पूर्वक उद्दिष्ट आहार का त्याग करना, घर, कुटुंब आदि का त्याग करके स्वच्छंदी हो विहार करना। ऐलक जी को सिर्फ एक लंगोटी और पींछी-कमंडल के अतिरिक्त सभी परिग्रह का त्याग होता हैं। क्षुल्लक जी को लंगोटी, खंड वस्त्र, कपडा आदि रखने का राग विशेष होता हैं।
इतना विशेष जानना कि ११ प्रतिमा का ग्रहण उत्तरोत्तर होता हैं।
१ से ६ तक - जघन्य व्रती श्रावक
७ से ९ तक - मध्यम व्रती श्रावक
१० और ११ - उत्कृष्ट व्रती श्रावक
इस प्रकार पांचवे गुणस्थानव्रती श्रावक की ११ प्रतिमा का वर्णन हमने संक्षिप्त में जाना।
Chapter 5: सुख क्या हैं?
संसार के सभी जीव सुख को चाहते हैं। भला क्यों न चाहे? सुख तो आत्मा का ही स्वभाव हैं न! दुःख की बात यह हैं कि सुख की इच्छा तो अनंत हैं और प्राप्ति शून्य हैं। आप कहोगे की थोड़ा सुख तो होता ही हैं न?
बस इसीलिए ही, सुख क्या हैं यह समझना आवश्यक हैं। कही हम सभी सुख के नाम पर ठगे तो नहीं जा रहे? क्या सुख काल्पनिक हैं? या फिर अनंत सुख प्राप्त करने का भी कोई उपाय हैं? अन्तर से तो यह मान बैठा हैं की विषय भोग ही सुख हैं।
पर वास्तव में ऐसा हैं नहीं। सभी अनुकूल वस्तुएँ भी जीव को प्राप्त हो जावे तो भी उसकी इच्छा का कोई अंत नहीं। और जहाँ इच्छा हैं, वहाँ परिणामाने का भाव हैं; और वस्तु का परिणमन स्वतन्त्र होने से अपनी इच्छा के अनुरूप परिणमन होना असंभव हैं; और इच्छापूर्ति न होने से जीव सर्व अनुकूलता होने पर भी दुखी रखता हैं। निष्कर्ष बस एक ही हैं - इच्छा ही दुःख का कारण हैं।
सुख कोई कल्पना भी नहीं हैं। क्योंकि भोगजनित मानकर ही कल्पना करना सुख की सत्ता को ही अस्वीकार करने जैसा हैं; इसीलिए यह तर्क गलत हैं। भला किसी भोग के माप से सुख को कैसे मापा जा सकता हैं? एक धनवान आपघात करके मर जाता हैं औ र उसके घर के बाहर भीख मांगने वाला दीन पुरुष एक केला खाके भी सुखी दीखता हैं! दोनों ही दुखी हैं क्योंकि सुख का स्वरुप ऐसा हैं ही नहीं!
कोई लोग कहते हैं कि - दरिद्र की अपेक्षा तुम कितने धनवान हो; ये मानकर अपने को भाग्यशाली समझो और सुखी हो जाओ। निबंधकार तर्क देते हैं कि वे मुर्ख थोड़ी हैं कि दुखी दरिद्र को देखकर अपने की सुखी महसूस करे? ऐसा सज्जन पुरुष कदापि नहीं करते हैं।
सच्चा सुख तो अपने में ही हैं। आत्मा का स्वभाव ही सुखमय हैं। इन्द्रियों से परे हैं। इच्छा के अभाव में ही सुख उत्पन्न होता हैं; इच्छा की पूर्ति में तो और आकुलता उत्पन्न हो जाती हैं। जिसका कभी नाश न हो, जिसका लक्षण निराकुलता हो; जिसे किसी और की जरूरत न हो; ऐसा सुख वास्तविक सुख हैं; बाकी सब कुछ सुखाभास हैं।
कोई कहे कि - फिर भी इसका भावभासन नहीं हुआ कि सुख क्या हैं, तो कहते हैं कि -
सुख को कोई कैसे कह सकता हैं भला? वह तो आत्मा का ही गुण हैं, ऐसे अतीन्द्रिय सुख को अनुभव करके प्रत्यक्ष करें ऐसी मंगल भावना के साथ मैं अपनी बात को विराम देता हूँ।
Chapter 6: पांच भाव
जिसे भी आत्मा की रूचि हो, उसे आत्मा के असाधारण ५ भाव कौनसे हैं उनके प्रति जिज्ञासा अवश्य होती ही हैं।
जीव के ५ भाव का वर्णन तत्वार्थसूत्र के दूसरे अधिकार में प्राप्त होता हैं। पांच भाव इस प्रकार से हैं -
१. औपशमिक
२. क्षायिक
३. मिश्र (क्षयोपशमिक)
४. औदयिक
५. पारिणामिक
इन भावो को कहने का क्रम जीवो की किस-किस भाव में पाए जाने वाली संख्या की अपेक्षा से काम से ज़्यादा बढ़ते क्रमांक में बताया गया हैं। अर्थात - जिस भाव में सबसे कम जीव हो (औपशमिक) को सबसे पहले कहा और जिस भाव में सबसे अधिक जीव पाए जाते हो (पारिणामिक) उसे सबसे अंत में कहा।
द्रव्य का अस्तित्व जिसका हेतु हैं उसे परिणाम कहते हैं।
अभी प्रत्येक भाव को संक्षिप्त में देखते हैं -
१. औपशमिक भाव (एकदेश उपादेय)
- आत्मा की मुख्यता से: जीव के श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्बन्धी भावमल का ‘दबना’/ ’उपशमना’)
- कर्म की मुख्यता से: दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के फलदानसमर्थ का अनुद्भवरूपी उपशम
- भेद: औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र
२. क्षायिक भाव (प्रगट करने योग्य उपादेय)
- आत्मा की मुख्यता से: अशुद्धता का पूर्ण क्षय
- कर्म की मुख्यता से: कर्मो का पूर्ण नाश
- भेद: केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य-सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र
३. मिश्र (क्षयोपशमिक) भाव (साधक दशा में एकदेश उपादेय)
- आत्मा की मुख्यता से: आंशिक शुद्धि
- कर्म की मुख्यता से: कर्म का उद्भव और अनुद्भव दोनों होना
- भेद: म तिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, क्षयोपशमिक दान-लाभ-भोग-उपभोग-वीर्य-सम्यक्त्व-चारित्र और संयमासंयम
४. औदयिक भाव (हेय)
- आत्मा की मुख्यता से: विभावरूप परिणमन
- कर्म की मुख्यता से: कर्म का उदय
- भेद: गति, लिंग, कषाय, मिथ्यात्व, लेश्या, असंयम, असिद्धत्व, मिथ्यात्व
५. पारिणामिक भाव (परम उपादेय)
- आत्मा की मुख्यता से: आत्मा का सहज स्वभाव, उत्पाद-व्यय निरपेक्ष, ध्रुव एकरूप रहने वाला भाव
- कर्म की मुख्यता से: कर्म से निरपेक्ष हैं
- भेद: जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व
इस प्रकार पांच भाव को जानकार जो स्वभावरूपी परम पारिणामिक भाव का आश्रय लेकर पूर्णता को प्राप्त हो ऐसी भावना।
Chapter 7: चार अभाव
भेदविज्ञान तत्वश्रद्धान में बहुत कार्यकारी हैं। जो स्व का हैं उसे स्व-रूप मानना और पर को पर-रूप मानकर भिन्न करने की कला का नाम ही भेदविज्ञान हैं।
दूसरे शब्दों में कहे तो किसका अस्तित्व किसमें हैं और किसमें नहीं उसका यथार्थ श्रद्धान हो तो सम्यग्दर्शन का कार्य इतना कठिन भी नहीं। आचार्य समन्तभद्रने इसीलिए तो भविजीवो पर करुणा करके आप्तमीमांसा जैसे ग्रन्थ लिखकर अनंत उपकार किया हैं। चार अभाव जैसे विषयो की चर्चा उसमे प्राप्त हैं।
एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ में अस्तित्व न होना ‘अभाव’ हैं
अभाव ४ प्रकार के हैं -
१. प्राग-अभाव: पूर्व पर्याय का वर्तमान पर्याय में अभाव होना (दूध का दही में अभाव - प्रागभाव हैं)
२. प्रध्वंस-अभाव: वर्तमान पर्याय का भविष्य पर्याय में अभाव होना (दही का छाछ में अभाव - प्रध्वंसाभाव हैं)
३. अन्योन्य-अभाव: एक पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय में दूसरे पुद्गल द्रव्य की वर्तमान पर्याय का अभाव (निम्बू के खट्टेपन और चीनी के मीठेपन में परस्पर अभाव - अन्योन्याभाव हैं)
४. अत्यंत-अभाव: एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव होना (जीव का पुद्गल में अभाव - अत्यन्ताभाव)
४ अभाव को न मानने से क्या होगा?
- सारी पर्याय अनादि से चली आने वाली हो जाएगी
- सारी पर्याय अनंतकाल तक रहने वाली हो जाएगी
- पुद्गल एकमेक होकर सर्वात्मक हो जायेंगे
- सभी द्रव्यों की स्वतंत्रता का अभाव हो जायेगा
४ अभाव जानने से लाभ:
- एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ कर्ता-हर्ता नहीं हैं
- सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं ऐसा श्रद्धान होता हैं
- भूतकाल का शोक नहीं, भविष्य की चिंता नहीं - क्योंकि आश्रय द्रव्य का लेने पर वर्तमान में ही आनंद आता हैं
इस प्रकार ४ अभाव को जानकार स्व-पर भेदविज्ञान करके स्वभाव को प्राप्त करे ऐसी भावना।
Chapter 8: पांच पांडव
‘महाभारत’ को आज कौन नहीं जानता? जो लोग भारतीय इतिहास के बारे में कुछ विशेष ख्याल हो न हो, महाभारत युद्ध और श्रीकृष्ण-अर्जुन के बारे में तो थोड़ा बहुत पता होता ही हैं! मार्केट ही ऐसे किया गया हैं न! पहले के जमाने में टीवी सीरियल से और आज के युवाओ को सोशल मीडिया से!
दावे के साथ मैं ये कह सकता हूँ की गिने चुने ही लोग होंगे जिन्होंने महाभारत को सचमे पढ़ा होगा। ज़्यादातर लोग तो जो टीवी में दिखाते हैं और अखबार में पढ़ते हैं उसे ही सत्य मान लेते हैं !
वैसे लोग जो भी करे, इससे कोई फायदा या नुक्सान हैं नहीं। पर जैन होकर, मोक्षमार्गी होकर जो ऐसी मिथ्या मान्यताएँ इतिहास के सन्दर्भ में हैं तो उसे दूर करना हमारा कर्तव्य बनता हैं। जो वास्तविक सत्य को जानने और परखने की कोशिश न करे तो फिर ऐसी काल्पनिक बात ही सत्य लगने लगेगी और फिर तो जैन लोग भी ईश्वर के अवतार और कर्ता-धर्ता होने पर विश्वास करने लगेंगे!
धन्य हैं वे दिगम्बर मुनि भगवंत, जिन्होंने करुणा करके ये सब मिथ्या कथाएँ का निराकरण रूप प्रथमानुयोग ग्रंथ गुंथे, जिसमे तीर्थंकर कौन थे, राम कौन थे, श्रीकृष्ण कौन थे आदि का वर्णन बहुत सुन्दर रीती से दिया गया हैं।
प्रथमानुयोग का एक महान ग्रन्थ हैं - ‘हरिवंश पुराण’ जो आचार्य जिनसेन ने १०००-१२०० वर्ष पहले लिखकर हम पर अनंत उपकार किया हैं। इसी के आधार से ५ पांडवो की चर्चा यहाँ की गयी हैं, और इसी ग्रंथ में जैन महाभारत का भी वर्णन प्राप्त हो सकता हैं।
५ पांडवो की कथा में से कुछ चिंतन बिंदु -
- ७ व्यसन में से एक ‘जुआ’ खेलने का व्यसन महा दुखकारी हैं। इसीसे ही तो ५ पांडव ने राज्य गवाया और १२ वर्ष वन में रहना पड़ा
- कौरवों में पांडवों को मारने के ल िए लाक्षागृह जैसे अनेक विचित्र षड्यंत्र किये पर जब तक आयु कर्म का उदय हैं, कोई जीव का बाल भी बांका नहीं कर सकता
- द्रौपदी के ५ पति नहीं थे, उसने सिर्फ अर्जुन से ही विवाह किया था। लोक में अभी भी द्रौपदी के सन्दर्भ में मिथ्यात्व चल रहा हैं। वास्तव में द्रौपदी ने पूर्वभाव में शील की निंदा की थी, उसके ही उदयरूप उसके चरित्र पर आज भी दाग लोक में जान पड़ता हैं
- विषय मोहि कीचक कितना अंध था? ऐसे वासना में आसक्त लोग इस लोक और परलोक में निंदा को प्राप्त होते ही हैं - जैसे भीम ने उसे सबक सिखाया था।
- महाभारत का युद्ध कौरव और पांडव के बीच नहीं परन्तु श्रीकृष्ण (नारायण) और जरासंघ (प्रतिनारायण) के बीच में था
- सर्वज्ञ की वाणी तीन काल में कभी गलत नहीं हो सकती। नेमिनाथ भगवान ने १२ वर्ष पहले ही बता दिया था कि द्वारिका का दहन होगा, तो भले ही वे द्वीपायन ऋषि द्वारका से दूर रहे पर यदुव ंशी के मद्यपान का निमित्त पाकर केवली की बात सत्य ही हुई और द्वारका जल कर राख हो गयी
- शरीर से आत्मा भिन्न हैं - भले ही वैरी द्वारा उपसर्ग हुआ हो; पर ५ पांडव मुनिराज आत्मा के आश्रय ध्यान में लीन रहे
- शुभ-राग मोक्षमार्ग में बाधक हैं, साधक नहीं - नकुल और सहदेव के शुभराग के कारण वे सर्वार्थसिद्धि में गए और युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन सिद्ध पद पा गए
इस प्रकार हमने पांच पांडव की कथा को जाना और तत्व व वैराग्य का बोध लेकर सिद्ध पद प्राप्त करे ऐसी मंगल भावना।
Chapter 9: भावना बत्तीसी
आचार्य अमितगति द्वारा रचित ‘भावना द्वात्रिशंतिका’ का हिंदी अनुवाद प. युगलकिशोरजी ‘युगल’ के द्वारा किया गया हैं। इसे आज ‘सामायिक पाठ’ के नाम से भी जाना जाता हैं।
क्या हैं ये भावना बत्तीसी में? इसमें कौनसी भावना भाई गयी हैं? चलिए इस रचना की विषय वस्तु पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं:
पद-१: सभी जीवों से वात्सल्य की भावना
पद-२: आत्मा के अनंत बल की चर्चा और उसे प्राप्त करने का भाव
पद-३: समता भाव
पद-४: मोक्षमार्ग में चलने की भावना
पद-५: जीवो की विराधना हुई हो उसके आलोचना की भावना
पद-६: कषाय से मोक्षमार्ग के विपरीत प्रवर्तन हुआ हो उसके आलोचना की भावना
पद-७: अपनी निंदा-आलोचन से पाप को शांत और परिणाम विशुद्ध करने की भावना
पद-८: व्रत में अनाचार आदि लगे हो उसके आलोचना की भावना
पद-९: विषय वासना में आसक्ति से हुए अपराधों के आलोचना की भावना
पद-१०: छल-कपट पर-निंदा से हुए पाप के आलोचना की भावना
पद-११: निरभिमान और निर्मल ज्ञान की भावना
पद-१२-१७: अर्हन्त परमेष्ठी (परम देव) की भक्ति भावना
पद-१८-२१: अर्हन्त परमेष्ठी की शरण ग्रहण की भावना
पद-२२: समाधि भावना
पद-२३: हेय और उपादेय चिंतवन की भावना
पद- २७: शरीर से भिन्नत्व की भावना
पद-२८: परिग्रह त्याग की भावना
पद-२९: निर्विकल्पता की भावना
पद-३०-३१: कर्म बंधन और फल चिंतवन
पद-३२: आत्म अनुभव से निर्वाण पद प्राप्त करने की उत्तम भावना
इस प्रकार, हमने भावना बत्तीसी में भाई गयी पवित्र भावनाओं को भाया।
Myth busters
- पांच भाव के सम्बन्धी मेरी समझ इतनी स्पष्ट नहीं थी, आत्मा की अपेक्षा से भाव को समझकर आनंद हुआ
- पांच पांडव के बारे में सुना तो था पर इतना विस्तार से पढ़ा नहीं था
- ‘श्री सीमंधर पूजन’ के भावो को इतनी गहराई से कभी भाया नहीं था
- ज्ञानी श्रावक की ११ प्रतिमा के विषय में अनेक बाते नई जानने को मिली जैसे ऐलक, क्षुल्लक दशा, ब्रह्मचर्य के भेद आदि और सब का निश्चय स्वरुप