वीतराग विज्ञान पाठमाला : भाग १
Chapter 1: देव स्तुति
पंडित-प्रवर दौलतरामजी की एक अनुपम रचना का आस्वादन वीतराग-विज्ञान पाठमाला - १ में सर्व प्रथम ही देव स्तुति के माध्यम से आत्मार्थी जीवो को प्राप्त होता हैं।
'बारह अंगों में से एक अंग के उपसंहार का नाम स्तुति है'
- धवला 9/4,1,55/263/3
इससे ये स्पष्ट ज्ञात होता हैं के स्तुति सिर्फ संक्षिप्त काव्य का नाम नहीं हैं, परन्तु जिनवाणी के अंग की 'summary/precis' (उपसंहार) को स्तुति कहते हैं, फिर वो शास्त्र के रूप में हो या फिर कुछ पदों की काव्य के रूप में।
वास्तव में, स्तुति तो जिनेन्द्र देव (अरिहंत, सिद्ध) , उनके द्वारा बताया गया मार्ग (जिनवाणी) और उस पर चलने वाले साधु (आचार्य-उपाध्याय-साधु) का गुणानुवाद हैं। पहले तो परीक्षाप्रधानी बन कर यह निर्णय करना चाहिए के 'स्तुत्य' कौन हैं, वह स्तुत्य क्यों हैं, ऐसे कौनसे गुण हैं उनमे जो उन्हें स्तुत्य बनाते हैं और फिर हम भी उस 'स्तुत्य' दशा को कैसे प्राप्त करे उस मार्ग का सम्यक निर्णय व ज्ञान करके उस पद को पाने का पुरुषार्थ करते हैं।
सर्व प्रथम तो जो वीतराग-सर्वज्ञ-हितोपदेशी ऐसे अरिहंत परमेष्ठी को नमन व उनके गुणों को प्रकाशित करने वाली पंक्तियाँ हैं। कैसे हैं अरिहंत परमेष्ठी? तो कहते हैं की जो समस्त लोकालोक जिनके ज्ञान का विषय हैं जिनका, जो मोह-राग-द्वेष-अज्ञान रुपी अन्धकार को हरनेवाले रवि सामान हैं, जो अनंत चतुष्टय से सुशोभित हैं और अपने आत्मानंद में लीन हैं। और कैसे हैं जिनेन्द्र देव? जिनकी शांत मुद्रा भव्य जीवो को आत्मानुभूति में निमित्त हो, जिनकी दिव्यध्वनि भव्य जीवो का भव-भ्रमण टालती हैं, कहा भी हैं -
"कल्पद्रुम यह समवशरण है, भव्य जीव का शरणागार।
जिनमुख घन से सदा बरसती, चिदानन्दमय अमृत धार।।"
गुणों का चिंतवन और गान जगत में लोग २ कारण से करते हैं -
१. किसी की प्रशंसा करने, आभार व्यक्त करने के लिए
२. किसी के गुणों का गान करके अपना स्वार्थ सिद्ध करने
पर यहाँ तो जिनेन्द्र-देव का भक्त, जो भगवान बनने की भावना रखता हैं; वह तो उनके गुणों का चिंतन करता हैं तब वह श्रेष्ठ स्वरुप को लख कर स्व-पर भेदविज्ञान करता हैं। और कैसे हैं वीतरागी प्रभु? जो सर्व प्रकार के दोषो (१८ दोष) से रहित हैं, विकल्पों से प्रविमुक्त हैं, जगत के आभूषण समान हैं, अनूप हैं, जिनकी परिणति स्वभाव से मिल गयी हैं, जो कभी फिर क्षीण-संसारी दशा को नहीं भोगेंगे और महा मुनि व गणधर आदि आपकी सेवा कर (आपके बताये मार्ग को अपनाना) अत्यंत हर्ष का अनुभव करते हैं; ऐसे भगवानने भूतकाल में अनंत जीवो को संसार रुपी खारा समुद्र से पार लगाया हैं और आगे भी लगते रहेंगे।
यह कहकर फिर भक्त अपनी व्यथा बताते हुए अपने संसार भ्रमण की कथा बताता हैं, कैसे वह पुण्य-पाप में फसा हैं, इष्ट-अनिष्ट कल्पना, अज्ञानता में अंध और कर्ता बनकर अनंत दुःख भोग रहा हैं और चार गति में मृग सामान जल की शोध में व्याकुल हो रहा हैं।
पर महा-पुण्य से आज वीतरागी प्रभु का समागम प्राप्त हुआ हैं, लगता हैं काल-लब्धि आ गयी हो और संसार का किनारा अब आ ही गया हो; ऐसे प्रसन्नता का अनुभव व्यक्त करता हैं। बस यही भावना भाता हैं ही आपके चरणों का कभी वियोग न हो और आपके बताये मार्ग पर पुरुषार्थ-वान बनना चाहता हैं। हम सब पढ़ते भी हैं -
"तब तक चरणों में ध्यान रहे, जब तक न प्राप्त हो मुक्ति सदन"
और
"‘बुध’ जाचहूँ तुव भक्ति भव भव, दीजिए शिवनाथजी"
जगत में तो भक्त भगवान से कैसा कैसा मांगता हैं, महा मोह से लोलुपी एक समय भी भगवान के स्वरुप को जानने का विचार नहीं करता; और बस अपने स्वार्थ अनुसार भगवान के सामने मिथ्या-वांछा करता रहता हैं। पर जिनेन्द्रदेव का सच्चा भक्त बस तो यही चाह रखता हैं कि पंचेन्द्रिय विषय सेवन, कषाय आदि जो आत्मा का अहित करते हैं उनका नाश हो जाये, स्वाधीनता प्रगट हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, मोह तप का नाश हो।
निश्चय से, इस जगत में वीतरागी जिन के अलावा कोई और सुख देने वाला नहीं है ं। जो अनंत सुखी हैं वही तो अनंत सुख का मार्ग बताएँगे न, और कौन बताएगा? यह स्तुति अपने आप में अद्भुत हैं क्योंकि यहाँ न सिर्फ सच्चे देव का गुणानुवाद किया हैं परन्तु उस पद को कैसे पाया जाए उस मार्ग के सन्दर्भ में चिंतन का भी समावेश किया गया हैं।
अंत में दौलतरामजी लिखते हैं कि आप के गुण-रुपी मणि को गिनने में गणधरदेव भी समर्थ नहीं हैं तो मेरे जैसा मंदबुद्धि उन गुणों को कैसे बता पाए? इसलिए मैं आपके चरणों में मन-वचन-काय से बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
Chapter 2: आत्मा और परमात्मा
आचार्य ब्रह्मदेवकृत परमात्मप्रकाश टिका का मंगलाचरण:
चिदानंदेक रूपाय जिनाय परमात्मने,
परमात्म प्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः
आचार्य योगिन्दुदेव द्वारा रचित 'परमात्मप्रकाश' के आधार से 'आत्मा और परमात्मा' के विषय का अब हम ज्ञान करेंगे। 'प्रभाकर भट्ट' (जो आचार्यदेव के शिष्य थे), उनके प्रश्नो के उत्तर रूप में आचार्यदेव ने इस शास्त्र में प्रारम्भ की कुछ गाथाओं गूँथी हैं।
मुख्यरूप से इस पाठ में अवस्था अपेक्षा से आत्मा के ३ प्रकार बताये गए हैं -
१. बहिरात्मा (सर्वथा हेय)
जो आत्मा से अभी बाहिर जो शरीर आदि संयोगो में इष्ट-अनिष्ट कल्पना करके सुख पाने के जूठे उपाय करता हैं; वह बहिरात्मा हैं। दूसरे शब्दों में, जिसे सात तत्वों का सच्चा श्रद्धान नहीं हैं वह 'मिथ्यादृष्टि' जीव बहिरात्मा हैं। गुणस्थान अपेक्षा से १,२ और ३ गुणस्थानवर्ती जीव बहिरात्मा हैं।
२. अंतरात्मा (कथंचित उपादेय)
जो अंतर में विराजित भगवान आत्मा में अंतर्दृष्टि सव-पर भेदविज्ञान से पूर्ण दशा पाने का पुरुषार्थ करता हैं वह अंतरात्मा हैं। दूसरे शब्दों में, जो जीवादि सात तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करे, शुद्ध आत्मा को साधे वह 'सम्यग्दृष्टि' जीव अंतरात्मा हैं।
अंतरात्मा के ३ प्रकार हैं -
१. जघन्य (४ थे गुणस्थानवर्ती जीव)
२. माध्यम (५ वें से ११ वें गुणस्थानवर्ती जीव)
३. उत्तम (१२ वें गुणस्थानवर्ती जीव)
३. परमात्मा (सर्वथा उपादेय)
जो आत्मा की परम कृत-कृत्या दशा को प्राप्त हो गए हैं, वह परमात्मा हैं। दूसरे शब्दों में, जो अंतरात्मा जीव गृहस्थपना त्याग कर, जिन मुद्रा धारण कर, अनंत पुरुषार्थ से श्रेणी मांडकर - अनंत ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य चतुष्टय को प्रगट कर लेता हैं वह परमात्मा हैं।
परमात्मा के २ प्रकार हैं -
१. सकल (१३वें गुणस्थानवर्ती अरिहंत परमेष्ठी)
२. निकल (१४वें गुणस्थान व गुणस्थानातीत सिद्ध परमेष्ठी)
बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा - ये तीनो तो जीव की भिन्न दशा ( पर्याय), द्रव्य-दृष्टि से तो एक शुद्ध आत्मा ही परम श्रद्धेय हैं । हम सब भी 'बाहिर' से 'अंतर' आकर, 'परम' दशा पा जावे ऐसी भावना।
Chapter 3: सात तत्त्व
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥2॥
- श्री तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ, आचार्य उमास्वामी
तत्व - जो पदार्थ जिस रूप अवस्थित में हैं, उसका उस रूप में होना (भाव)
अर्थ - पदार्थ (भाववान)
श्रद्धान - प्रतीति
अर्थात ७ तत्व का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यक्त्व हैं, और यही मोक्षमार्ग हैं। मोक्ष दशा जो पाना हैं तो सात तत्त्व का पहले ज्ञान अनिवार्य हैं। इस पाठ में इसका ही वर्णन संक्षिप्त में दिया हैं।
१. जीव - जिसमे ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुण हो, जो चैतन्य प्राणो से जीता हो; वह जीव हैं।
२. अजीव - जिसमे स्पर्श-रस-गंध-वर्ण आदि अनंत गुण हो, जो जड़ हो, वह अजीव हैं। इतना ही नहीं, अपना आत्मा ही बस जीव हैं, बाकी सभी जीवादि द्रव्य भी अजीव तत्त्व में गर्भित हैं।
३. आस्त्रव - कर्मो का आना वह द्रव्य आस्त्रव और जीव के शुभ-अशुभ भाव की उत्पत्ति होना वह भाव आस्त्रव।
४. बंध - कर्मो का आत्मप्रदेशों से चिपक जाना, बंध जाना; द्रव्य बंध; और शुभाशुभ भावो का बना रहना भाव बंध।
५. संवर - कर्मो का आना रुक जाना द्रव्य संवर हैं और शुद्ध भावो की उत्पत्ति भाव संवर हैं।
६. निर्जरा - कर्मो का एकदेश खीर जाना द्रव्य निर्जरा हैं और शुद्ध भावों की वृद्धि होना भाव निर्जरा हैं।
७. मोक्ष - कर्मो का संपूर्ण नष्ट होना जाना द्रव्य मोक्ष हैं और शुद्ध स्वभाव की पूर्णता भाव मोक्ष हैं।
हेय, ज्ञेय और उपादेय सम्बन्धी विचार:
जीव - परम उपादेय
अज ीव - गेय
आस्त्रव, बंध - हेय
संवर, निर्जरा - एकदेश उपादेय
मोक्ष - प्रगट करने योग्य उपादेय
एक उदाहरण से ७ तत्त्व का विषय को और स्पष्ट करते हैं -
एक दुकानदार (जीव और उसका शरीरादि संयोग अजीव) के वहाँ सामान पहले आता हैं (आस्त्रव), फिर वह सामान को गोडाउन में रख दिया जाता हैं। (बंध)
जब भी ग्राहक आता हैं, तब सामान निकालकर दुकानदार गोडाउन से निकालकर सामान बेचता हैं। (कर्म का उदय और सामान बेचना वह यहाँ कर्म का निर्जरित होना)
फिर सामान आता हैं, फिर बेचता हैं, और ऐसे ही उसका धंधा चलता रहता हैं।
एक दिन, दुकान से त्रस्त, शान्ति के लिए दुकान बंध करने का विचार किया। उसने नया सामान लेना बंध किया (संवर) और किसी व्यापारी ने गोडाउन से सामान निकालना शुरू किया (निर्जरा); और थोड़े ही समय में पूरा गोडाउन खाली हो गया (मोक्ष); और दुकानदार पूर्ण रूप से निर्भार हो गया।
इस प्रकार हमन े सप्त तत्त्व के विषय में थोड़ी बाते जानी। यदि दुःख से छूटना हैं तो सात तत्त्व के यथार्थ श्रद्धान के फल से मोह-राग-द्वेष (शुभाशुभ भाव) शीघ्र ही त्यागने योग्य हैं और शुद्ध भाव में लीन होकर मोक्ष-पद अर्थात अपना स्वपद प्रगट करने का उद्यम करना चाहिए।
Chapter 4: षट आवश्यक
देवपूजा गुरुपास्ति, स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानञ्चेति गृहस्थानां, षट् कर्माणि दिने दिने।।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र
प्रत्येक ज्ञानी श्रावक के जीवन का एकमात्र उद्देश्य संसार से छूटने का होता हैं। साधक अवस्था में गृहस्थ क्रियाओं में मोह-राग-द्वेष के 'वश' में न आ जावे, इसलिए श्रावक की ऐसी क्रियाएँ जिससे वह 'अवश्य' रहे, उसे श्रीगुरु 'आवश्यक' बत ाते हैं।
मूलाचार में आचार्य कुंदकुंददेव कहते हैं:
“जो कषाय राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है, उस अवश का जो आचरण वह आवश्यक है।”
आचार्य नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह में श्रावक कौन हैं उसको बताते हैं -
“जो श्रद्धा पूर्वक गुरु आदि से धर्म श्रवण करता है वह श्रावक है।”
यह आवश्यक ज्ञानी श्रावक की 'आर्य-क्रियाएँ' और करने लायक 'नित्य कर्त्तव्य' हैं। पर क्या-क्या हैं ये आवश्यक जो हम श्रावक को नित्य करने चाहिए?
आवश्यक ६ बताये गए हैं -
१. देव पूजा २. गुरु उपासना ३. स्वाध्याय ४. संयम ५. तप ६. दान
प्रत्येक आवश्यक को निश्चय और व्यवहार दोनों नय-पक्षों से जानना और योग्य आचरण में लेना चाहिए।
आवश्यक आचरण के पीछे का मुख्य प्रयोजन राग-द्वेष से वश नो हो, अवश्य रहना अर्थात शुद्ध भाव की वृद्धि होना हैं। इसलिए, निश्चय आवश्यक ज्ञानी श्रावक को योग्य आंशिक शुद्धि होना हैं। इसे सभी में लगाना चाहिए। आगे व्यवहार आवश्यक का वर्णन देखते हैं।
१. देवपूजा:
भाव: सच्चे देव का स्वरुप निर्णय कर, जिनेन्द्र देव के गुणों का स्तवन करना
द्रव्य: अष्ट-द्रव्यों से जिनेन्द्र देव का पूजन करना वह द्रव्य देवपूजा हैं।
२. गुरु उपासना: सच्चे गुरु का स्वरुप निर्णय कर, गुरु (आचार्य, उपाध्याय, साधु) की योग्य सेवा, उपासना करना
३. स्वाध्याय: जिनेन्द्र प्रथित तत्वों का अध्ययन, चिंतन करना
४. संयम: षट-काय जीवों की हिंसा का भूमिका योग्य त्याग और ५ इन्द्रियों की वासना पर विजय का पुरुषार्थ
५. तप: मोह से उत्पन्न इच्छा के निरोध का उद्यम और उसके निमित्तभूत बाह्य क्रिया जैसे अनशन आदि करना
६. दान: स्व-पर के लाभ के हेतु के लिए आहार, ज्ञान, औषध और अभय का दान
इस तरह हमने ६ आवश्यक का स्वरुप जाना।
आज- कल की व्यस्त जीवनशैली में जिनमंदिर तक जाना मनो दुर्लभ हो गया हैं, ६ आवश्यक की तो बात ही दूर रही! निश्चय बिना व्यवहार तो नहीं होता, यह बात तो सत्य हैं; पर शुद्धता पाने के लक्ष्य से की गयी बाह्य शुभ क्रियाएँ विशुद्ध परिणाम में निमित्तभूत अवश्य होती ही हैं। विशुद्धि के बिना जीव शुद्धता की ओर कैसे बढ़े? जिनेन्द्रपूजा करने में ये 'शुभ-भाव / क्रिया-कांड हैं' ऐसा तर्क देता हैं और पूरा दिन T.V देखता रहता हैं ! धर्म का मर्म समजना चाहिए, शुभ भाव हेय हैं शुद्ध भाव प्रगट करने की अपेक्षा से।
अघ अँधेरे-आदित्य नित्य स्वाध्याय करिज्जे,
सोमोपम संसारतापहर तप कर लिज्जे।
जिनवारपूजा नियम करहु नित मंगलदायनि
बुध संजम आदरहु धरहु चित श्रीगुरु पांयनि।
निजवित सामान अभिमान विन, सुकर सुपत्तहि दान कर।
यों सनि सुधर्म षट्कर्म भनि, नरभौ लाहौ लीजिए।
- जैन शतक महाकवि प. भूदरदासजी
उपर्युक्त सुन्दर काव्य में सपष्ट रूप से पंडितजी हमे कह रहे हैं की प्रतिदिन यह ६ क्रियाएँ करना श्रावक के लिए आवश्यक हैं ! इसी भावना से, हम भी हमारे जीवन में ६ आवश्यक का नित्य पालन हो (व्यवहार) और शुद्ध (निश्चय) आत्मा का आश्रय लेकर रत्नत्रय प्रगटे जिससे हमारा मनुष्यभव सफल हो।
Chapter 5: कर्म
भारतीय दर्शन शास्त्र में लगभग सभी मतों में 'कर्म' को मान्य किया हैं; 'जिसने जैसा बीज बोया हैं, वह ऐसा फल पता हैं' - इस बात की स्वीकृति तो सभी को होती हैं; भला कौन न्याय को न चाहे? क्यों कोई अपने पुरुषार्थ का फल न चाहे? पर खेद की बात यह हैं कि सिर्फ प्रकृति (या ईश्वर) अपने किये कर्मों का फल देता हैं, वह अधूरा अधूरा सा लगता हैं। विचार करने पर निम्न प्रश्न चित्त में उठते हैं -
१. लोक में तो जो कुकर्म करता हैं वह ज़्यादा सुखी दिखाई देता हैं, इसका क्या तर्क हैं?
२. कर्म के फल कौन देता हैं? यदि ईश्वर देता हैं तो फिर जैसा बोया हैं वैसा मिलेगा, उसकी पूजा क्यों करते हैं, वस्तुएँ क्यों मांगते हैं लोग?
३. मैंने इतनी मेहनत की, किसी का बुरा नहीं किया, शुभ कार्य भी किया, तो भी मेरे साथ ही क्यों बुरा होता हैं?
४. ये कर्म कोई 'philosophy' ही हैं क्या? ऐसा हैं तो ऐसी तो कितनी ही कैसी भी philosophy होगी! विश्वास कैसे करे?
५. मोक्ष क्या हैं? कौनसे कर्म करने से ये मिलता हैं? जो अच्छे कर्म करने से अच्छा फल मिलता हैं तो फिर कोई हरी नाम लेके मुक्त कैसे हो सकता हैं, क्योंकि फल मिलना ही तो संसार हैं?
६. ऊंच-नीच, धनवान-गरीब, गोरा-काला, यश-अपयश, सुख-दुःख, बुद्धिशाली-मंदबुद्धि, पशु-मनुष्य अवस्था, आयुष्य आदि भेद के पीछे कारण क्या हैं?
ऐसे अनेक प्रश्नों से जीव झुझता हैं; और सही ज्ञान न मिलने पर श्रद्धा भी नहीं कर पाता।अरे! हमारे महा भाग्य से जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित मोक्षमार्ग मिला हैं; आचार्यों ने बहुमूल्य ग्रन्थ लिखकर हम तत्वपिपासु जीवो पर अनंत उपकार किया हैं कि हमे जैन धर्म का कर्म सिद्धांत सरल और स्पष्ट रूप में प्राप्त हुआ हैं। कर्म सिद्धांत तो जिनागम का ह्रदय हैं, जिसका उल्लेख (या वर्णन) प्रत्येक अनुयोग में, प्रत्येक शास्त्र में आये बिना रहता नहीं हैं; इसके सन्दर्भ में इस पाठ में संक्षिप्त में चर्चा की गयी हैं।
षट्खंडागम - प्रथम श्रुत-स्कंध की गंगा बहते-बहते ९वीं सदी के महान आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती तक पहुंची। चामुंडराय के प्रश्न का निमित्त पाकर 'पंचसंग्रह' की रचना की। 'गोम्मटसार-कर्मकांड' ग्रन्थ की रचना से कर्म के संबंध की सर्व जिज्ञासाों का समाधान किया हैं, ऐसे महान नेमिचंद्राचार्य को कोटि कोटि वंदन।
मेरे म त में कर्म को philosophy गलत हैं। philosophy का अर्थ तो 'मान्यता / जीवन के बारे में विचार' को कहते हैं। जिन धर्म तो वस्तु स्वरुप को बताता हैं, 'कर्म' सिद्धांत हैं, fact हैं, reality हैं, ऐसा वस्तु का स्वरुप हैं, और इस कर्म बंधन से मुक्त होना मोक्षमार्ग हैं।
जिससे बंधे हैं, उसका ज्ञान तो होना अति आवश्यक हैं - वो कहते हैना - "Keep your friends close, and enemies closer", कर्म तो हमारा शत्रु हैं, उस के निमित्त से हम दुखी हैं, तो उसको समझेंगे तो ही उससे बचेंगे और उससे छूटने का उपाय भी कर पाएंगे न!
तो कर्म हैं क्या? कर्म के मुख्यरूप से ३ प्रकार का हैं -
१. द्रव्य कर्म - पुद्गल का स्कंध
२. भाव कर्म - जीव का राग, द्वेष और मोह परिणाम
३. नो कर्म - शरीरादि संयोग
"भाव कर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल स्कंध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बँधते हैं यह बात केवल जैनागम ही बताता है, अन्य कोई दर्शन नहीं"
दूसरे शब्दों में, द्रव्य कर्म एक प्रकार की वस्तु हैं, कोई philosophy या कल्पना नहीं! पुद्गल की २३ वर्गणा में से एक वर्गणा हैं 'कार्माण वर्गणा' (वर्गणा का स्थूल अर्थ पुद्गल परमाणु का समूह लेना चाहिए), और जब जीव मोह-राग-द्वेष आदि विकारी परिणाम करता हैं, अपने स्वभाव से च्युत हो विभावरूप परिणामता हैं तब ये द्रव्य कर्म जीव के प्रदेश के साथ चिपक जाते हैं, बंध जाते हैं; और जब उन बंधे कर्मो का उदय आता हैं तब बाहर संयोगरूप नोकर्म दिखाई देते हैं। मूढ़ जीव इन संयोगो में फिरसे कर्तापना करके भाव कर्म करता हैं और उससे नवीन द्रव्य कर्म बंध जाते हैं और ऐसे ही ये cycle अनादि से चलती आ रही हैं। जो जीव पुरुषार्थ से शुभाशुभ भाव को रोक (संवर) कर शुद्ध स्वभाव में लीं हो तो भाव कर्म नहीं होता और नवीन द्रव्य कर्म भी नहीं बंधते और अतीत काल में बंधे कर्मों उदय में आकर खीर जाते हैं (निर्जरा) और कर्मों का संपूर्ण नाश हो जाना ही मोक्ष कहलाता हैं!
कर्म जीव के लिए अहितकारी हैं क्योंकि वह जीव के स्वभाव को पूर्ण रूप से उत्पन्न नहीं होने देते हैं, या उस कार्य में बाधा रूप होते हैं । स्वभाव पूर्ण प्रगट हो जाए तो ही जीव सुखी होता हैं, और इसिलए यह सिद्ध होता हैं की मोक्ष दशा में ही जीव अनंत सुखी हो सकता हैं। अब हम द्रव्य कर्म पर थोड़ा प्रकाश डालते हैं।
द्रव्य कर्म २ प्रकार के हैं -
१. घाती कर्म -
जो जीव के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त बने (ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य गुण का घात करे, पूर्ण प्रगट न होने दे)
ये ४ प्रकार के हैं:
१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. मोहनीय ४. अंतराय
२. अघाती कर्म -
जो जीव के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त न बने
ये भी ४ प्रकार के हैं:
१. वेदनीय २. आयु ३. नाम ४. गोत्र
अब इनका स्वरुप जानने के लिए गोम्मटसार आदि आगम में दिए उदाहरण से समझेंगे -
१. ज्ञानावरण - पर्दा (क्योंकि ये जीव के ज्ञान को ढंकने में निमित्त होता हैं )
२. दर्शनावरण - द्वारपाल (क्योंकि ये जीव के दर्शन गुण पर आवरण डालने में निमित्त हैं )
३. मोहनीय - मदिरा (क्योंकि ये जीव को मोह-राग-द्वेषरुपी मदिरा में धुत्त ४ गति में भटकाने में निमित्त होता हैं )
४. अंतराय - खजांची (क्योंकि ये जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग आदि प्राप्त करने में अंतरायरूप होने में निमित्त होता हैं )
५. वेदनीय - शहद से लिपटी तलवार (क्योंकि साता और असाता के उदय रूप संयोगो में जीव सुख-दुख बुद्धि, इष्ट-अनिष्टता से दुखी होता हैं )
६. आयु - बेड़ी (क्योंकि ये जीव को ४ गति में बंधा रखता हैं)
७. नाम - चित्रकार (क्योंकि ये जीव को भिन्न-भिन्न शरीर सम्बन्धी संयोग में निमित्त होता हैं )
८. गोत्र - कुम्हार (क्योंकि अलग-अलग ऊंच-नीच घड़े रूप कुल जीव को प्राप्त होने में निमित्त होता हैं )
हमारे सभी प्रश ्नो का उत्तर इस सिद्धांत से सहज प्राप्त होते हैं, शंका का कोई स्थान नहीं हैं! अरे! कैसा अद्भुत हैं यह जैन धर्म का कर्म सिद्धांत, जो हमें पूर्ण रूप से निराकुल कर देता हैं! तत्त्व निर्णय होने पर, पूरा लोक सुव्यवस्थित इसीलिए तो भासित होता हैं; क्योंकि जैसा हैं वह वैसा जानना ही तो सम्यग्ज्ञान हैं! और कितना कहे कर्म सिद्धांत जानने का उपकार? आचार्य कुंदकुंददेव कर्म सिद्धांत जानने का प्रयोजन बताते हैं कि:
"यदि श्रमण ‘कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है’ ऐसा निश्चयवाला होता हुआ अन्यरूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।"
- प्रवचनसार
"यहाँ (मनुष्यादि नामप्रकृतियुक्त जीवोंके उत्पाद विनाशके प्रकरणमें) जो शुद्धनिश्चयनय से मूलोत्तरप्रकृतियों से रहित और वीतराग परमाह्लाद रूप एक चैतन्यप्रकाश सहित शुद्ध जीवास्तिकाय का स्वरूप है वह ही उपादेय है ऐसा भावार्थ है।"
- पंचास्तिकाय
इसीलिए हमें इस सिद्धांत यथार्थ जानकर, पर उस पर श्रद्धान करके तत्वनिर्णय से सम्यक्त्व प्राप्त कर, कर्म-रहित मोक्ष दशा प्रगट करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
Chapter 6: रक्षाबंधन
“धर्म समझकर गंगा - जमुना आदि नदियों में अथवा सागर में स्नान करना, बालू और पत्थरों आदि का ढेर करना, पर्वत से गिरकर मर जाना और अग्नि में जल जाना लोकमूढ़ता कही जाती है ।”
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र
दूसरे शब्दों में, लोक की प्रथा जो चल रही हैं, उसको अंध बन रागवश होकर पालन करना वह लोकमूढ़ता हैं; इसका सूक्ष्मरूप से विचार करने पर आज लोक में 'रक्षाबंधन' को भाई-बहन के रिश्ते का 'त्यौहार' के रूप से मनाया जाता हैं । सच में, इस उतरते काल में लोक रक्षाबंधन जैसे पावन पर्व को भी विकृत कर देते हैं! सम्यग्दृष्टि ३ मूढ़ता से रहित होता हैं, और ऐसी मिथ्या-परंपरा को मानना मूढ़ता नहीं तो और क्या हैं?
रक्षाबंधन तो बंधन का नहीं, बंध से छूटने का पर्व हैं! यह पर्व तो अकम्पनाचार्या आदि ७०० मुनिराज के उपसर्ग दूर होने से मनाये गए हर्ष का पर्व हैं! श्रमण परंपरा की जयजयकार का पर्व हैं! विष्णुकुमार महामुनिराज के वात्सल्य और उनके उपसर्ग दूर करने के निमित्त से हुई जैन धर्म की रक्षा, उसका यह पर्व हैं! यह कोई मोज़-मस्ती या राग का नहीं, अपितु वीतरागता का त्यौहार हैं! इसीलिए, हम इस दिवस पर उस इतिहास को याद करके अपने आत्मा का कल्याण करने की भावना से उन ७०० मुनिओ की और विष्णुकुमार मुनिराज की पूजन करते हैं।
प्रथमानुयोग तो वैराग्य रास से भरा होता हैं, और उससे हमे अनेक बोध मिलते हैं। रक्षाबंधन की कथा से हमें निम्न सीख मिलत ी हैं -
१. गुरु की आज्ञा सर्वोपरि होती हैं
श्रुतसागर मुनिराज गुरु अकम्पनाचार्य की आज्ञा से अज्ञात, मंत्रीगण से वाद-विवाद किया; पर फिर जब ज्ञान हुआ तब प्रायश्चित लेकर अकेले रात्रि में तप करने चले गए। कितने निर्मल और निर्दोष परिणामी होंगे वे श्रुतसागर मुनिराज जो उनके गुरु ने बताये प्रायश्चित को बिना किसी प्रश्न ही स्वीकार कर लिया!
२. पर्याय पर नहीं, द्रव्य पर ही दृष्टि
विष्णुकुमार मुनि तो आत्म-ध्यान में लीन थे, उनको तो पता भी नहीं था कि उनके पास अनेक रिद्धि हैं ! 'बुद्धि-ऋद्धिया प्रगट जिन्हे उन्हें, पर लक्ष नहीं जिनके उनका' यह बात सार्थक कर रहे हैं!
३. शरीर और आत्मा भिन्न हैं
धन्य हैं वह ७०० मुनिराज जो बलि-कृत उपसर्ग के काल में भी आत्मा में मस्त थे! आकुलता तो बलि आदि मंत्री को थी, क्योंकि मिथ्यात्व से ही दुःख हैं! मुनिराज जो शरीर को आत्मा से भिन्न जानते हैं, उन्हें कैसी आकुलता? वे तो इन परीषहों पर आत्मबल से विजयी होते हैं!
४. शुभ-राग भी धर्म नहीं
विष्णुकुमार मुनि ने रागवश होकर सम्यक्त्व के वात्सल्य गुण को प्रकाशित किया और मुनियो की रक्षा में निमित्त बने। परन्तु ये राग भाव हैं, और इसीलिए उनको उसके पश्चात अकंपनचार्य से प्रायश्चित लेकर पुनः दीक्षा अंगीकार की, और सर्व मोह नाश कर मोक्ष को सिधाये!
इस तरह, हमें भी अपने अकम्पन स्वभाव का आश्रय लेकर अकंपनाचार्य आदि ७०० मुनि और विष्णुकुमार मुनिराज के जैसे मोक्षमार्ग में वर्धमान होना चाहिए!
Chapter 7: जम्बूस्वामी
इस काल के अंतिम केवली 'जम्बूस्वामी भगवान' की जय हो!
महावीर प्रभु के निर्वाण के पश्चात १०० साल में ३ अनुबद्ध केवली (एक के बाद एक) हुए। जम्बूस्वामी इस काल के अंतिम अनुबद्ध केवली हैं।
जम्बूस्वामी का जीवन चरित्र अत्यंत प्रेरणादायी हैं। जम्बूस्वामी का जन्म एक सेठ के वहां हुआ था। बालपने से ही उनका ह्रदय वैराग्य-रस से भरा था और विवाह आदि का कोई परिणाम भी नहीं था। अनेक धनवान सेठ के वहां से कन्याओं को जंबूकुमार से विवाह की इच्छा थी।
आचार्य सुधर्मास्वामी के समीप जब जम्बूस्वामी जाते हैं तब उन्हें उनके पूर्व भव का ज्ञान होता हैं और वैराग्य को प्राप्त होते हैं। सुधर्मास्वामी आज्ञा देते हैं कि अभी उनका संसार भोगना थोड़ा शेष हैं, इसीलिए दीक्षा न देकर जम्बूस्वामी को माता-पिता कहे ऐसा करने को कहते हैं। गुरु के उपदेश का मान रखकर वे पिता की आज्ञा अनुसार ४ कन्याओ से विवाह कर लेते हैं।
विवाह भी उनके वैराग्य को विचलित नहीं कर पाया। रात्रि में विद्युत चोर के निमित्त से पत्निओं के साथ तत्त् व चर्चा होती हैं; और उसके फल स्वरुप सभी - विद्युतचर चोर और ४ पत्नियाँ उनके साथ ही दूसरे दिन दीक्षित हो जाते हैं!
कैसा अद्भुत प्रताप होता हैं तत्वज्ञानी जीवों का! वे कभी अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं करते, अपितु दुसरो को सही मार्ग दिखते हैं!
इस प्रकार, जम्बू मुनि तप ने घोर तप किया और जब सुधर्मस्वामी निर्वाण सिधाये तब जम्बू स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई; और अलप समय में ही संसार से मुक्त होकर सिद्धशिला पर बिराजमान हो गए; वे जम्बू से जम्बू स्वामी हो गए!
Chapter 8: बारह भावना
मुनि सकलव्रती बड़भागी, भवभोगन तैं वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तैं अनुप्रेक्षा भाई॥
- छहढाला , प. दौलतरामजी
जो वैराग्य को उपजाने वाली जननी है, ऐसी बारह भावना का चिंतवन ज्ञानी जीव सदा करते हैं। बारह भावना या अनुप्रेक्षा जीव को महा हितकारी हैं।
"बारह प्रकार से कहे गये तत्त्व का पुनः पुनः चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।"
- तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 9/7, आचार्य उमास्वामी
प. जयचंदजी कृत बारह भावना अपने आप में एक अद्भुत रचना हैं जिसमे व्यवहार और निश्चिय दोनों नयो से चिंतवन किया गया हैं।
बारह भावना निम्न रूप से हैं -
१. अनित्य -व्यवहार से पूरा जगत अनित्य, निश्चय से एक आत्मा नित्य
२. अशरण - व्यवहार से सभी संयोग अशरण, निश्चय से शुद्धतम और ५ परमेष्ठी ही जगत में सच्चे शरण हैं
३. संसार - पर द्रव्य की प्रीति से संसार अबोध हैं, उसका चिंतवन
४. एकत्व - एक शुद्ध आत्मा ही ध्याने योग्य हैं, दूसरा कुछ भी नहीं
५. अन्यत्व - अपनी अपनी सत्ता में, सभी वस्तु अन्य-अन्य रूप हैं, उसमे ममत्व न करनेका चिंतवन
६. अशुचि - एक आत्मा ही निश्चय से शौच धर्म से शोभित हैं, व्यवहार से देह अशुचिमय हैं
७. आस्त्रव - द्रव्यदृष्टि से आत्मा केवल ज्ञानमय हैं, ऐसा निश्चय हैं; और कर्म का आना वह व्यवहार। (बंध तत्त्व को इसमें गर्भित जानना)
८. संवर - निज स्वरुप में लीनता संवर हैं निश्चय से, और समिति-गुप्ति-महाव्रत आदि से कर्मों का आना रुक जाना व्यवहार संवर भावना हैं
९. निर्जरा - पूर्व कर्म का जड़ जाना व्यवहार से निर्जरा हैं और निश्चय से निज स्वरुप को पाना निर्जरा भावना हैं (मोक्ष तत्त्व को इसमें गर्भित जानना)
१०. लोक - लोक का स्वरुप विचारकर, ४ गति के दुखों को जानकार, एक शुद्ध आत्मा को ध्यान पर लोक के शिखर पर आत्मा बिराजमान हो जाता हैं
११. बोधि-दुर्लभ - बोधि (अर्थात रत्नत्रय) दुर्लभ हैं पाना ये व्यवहार हैं; जो आत्मा रत्नत्रयरूप हैं, उसके लिए उसके स्वभाव को पाना कैसे दुर्लभ हो सकता हैं ?
१२. धर्म - ज्ञान-दर्शन आदि आत्मा के धर्म हैं निश्चय से, व्यवहार से दया, क्षमा आदि धर्म के जो अंग उनका चिंतवन धर्म भावना हैं
हम भी ऐसी १२ भावना का चिंतवन करके भाववान के भाव को प्राप्त होवे ऐसी भावना।