वीतराग विज्ञान पाठमाला : भाग ३
Chapter 1: सिद्ध पूजन
जो अपने वास्तविक अवस्था को स्वयं से सिद्ध कर रहे हैं, जिन्हें अब कोई भी और सिद्धि प्राप्त करनी शेष नहीं हैं; अर्थात सर्व-सिद्धि को प्राप्त होते हुए कृत-कृत्य दशा को अनंत काल तक भोगने वाले हैं, अनंत ज् ञान आदि ८ गुण अनादि के कर्म के विनाश से प्रगट हुए हैं जिनके, और जिसके जैसी उत्तम दशा को पाना मेरा एक मात्र लक्ष्य हैं; ऐसे परम आराध्य, परम अनुसरणीय और परम पद - जो सिद्ध परमेष्ठी हैं, उनको मेरा मन-वचन-काय से बारम्बार नमस्कार हो।
सिद्ध भगवान के गुणों का गुणानुवाद ही सिद्ध पूजन हैं; और भव्य जीव नित्य ही जिनेन्द्र देव को ऐसी अनर्घ्य-पद प्राप्ति हेतु अष्ट द्रव्यों से पूजन करते हैं। आ. प. हुकमचंदजी भारिल्ल जी द्वारा रचित ‘सिद्ध’ पूजन का पाठ करने का लाभ हमें वीतराग विज्ञान ३ के प्रथम में ही मिलता हैं।
इस पूजन के अष्टक और जयमाला अपने आप में अद्भुत और भावविभोर करनेवाली हैं। वैसे तो इसके प्रत्येक शब्द में सिद्ध भक्ति और वैराग्य बसा हैं, परन्तु फिर भी उसमे से कुछ पंक्तियों को यहाँ निचे उल्लेख करके हम इस पूजन को संक्षिप्त में जानेंगे -
- ‘थी आश कि प्यास बुझेगी अब, पर यह तो सब मृग-तृष्णा निकली’
- ‘होकर निराश सब जग भर से अब सिद्ध शरण में मैं आया’
- ‘हो हार जगत के वैरी की, क्यों नहीं आनंद बढ़े सबका’
- ‘जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुमपर मुझको स्वाभाव का भान हुआ’
जयमाला में भी अनेक विशेषण सहित सिद्ध भगवान का निश्चय और व्यवहार दोनों पक्षों से गुणानुवाद किया हैं। सिर्फ भक्ति से ही थोड़ी सिद्ध दशा प्रगट होगी? तत्त्व चिंतवन और निर्णय का स्थान बहुत महत्व का हैं। यह जयमाला की अनेक पंक्तियों से ज्ञात होता हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के प्रश्न, चिंतवन, अज्ञानी जीव की भूल और अब कैसे मोक्षमार्ग में आगे बढ़ा जाय उन सब बातों का जयमाला में सुन्दर रीती से समझाया हैं।
“सिद्धो से मिलनेका मार्ग ध्यान हैं… आतम से मिलने का मार्ग ध्यान हैं”
पुरुषार्थ और ध्यान अग्नि के बल से कर्मों को नष्ट कर हम भी ऐसी कृत-कृत्या परमात्मा दशा को प्राप्त हो ऐसी मंगल भावना।
Chapter 2: पूजा, विधि और फल
अब हम पूजन, उसकी विधि और उसका फल जानने के लिए रमन और मगन का वार्तालाप सुनते हैं। मगन मंदिरजी पूजन करने के लिए जा रहा होता हैं और वह अपने मित्र रमन को भी चलने का आग्रह करता हैं।
रमन: पूजा-पाठ तो बूढ़े-बुजुर्ग लोग करते हैं; तुम कहाँ युवानी में इन सब चक्कर में पड़ रहे हो?
मगन: अरे रमन, पूजा क्या होती हैं क्या तुम्हे यह भी पता हैं? जैन धर्म में तो हम सभी क्रियाएँ सही अभिप्राय को जानकार ही करते हैं!
रमन: अच्छा, फिर बताओ; कैसे होती हैं तुम्हारी पूजा?
मगन: ‘कैसे’ और ‘क्यों’ प्रश्नो से पहले यह जानना जरूरी हैं कि किसकी पूजा होती हैं। इष्ट देव अर्थात जो वीतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो, उनकी ही पूजा होती हैं, अन्य कोई हमारे लिए पूजनीय नहीं!
रमन: ऐसा क्यों की तुम वीतरागी हो ही पूजते हो?
मगन: राग और द्वेष में तो आकुलता हैं। वास्तव में जो सुखी होना हैं तो निराकुलता का मार्ग अपनाना पड़ेगा। जिन्होंने यह कार्य पूर्ण किया हो, हम उनके जैसे बनने के लिए ही तो पंच परमेष्ठी को पूजते हैं!
रमन: यह तो बड़ी उचित बात लगती हैं। मुझे भी जिनमंदिर ले चलो, मैं भी पूजन करूँगा। मेरे घर पर कुछ पूजन के फूल पड़े होंगे, वह भी साथ में ले चलता हूँ !
मगन: भाई, हर्ष हुआ कि तुम्हे भी तीन लोक के नाथ की पूजन करनी हैं। परन्तु सभी कार्यों को करनेकी एक विधि होती हैं, कुछ नियम आदि होते हैं। पहले तो हम शुद्ध वस्त्र पहनकर प्रासुक जल से जिनेन्द्रदेव का प्रक्षाल करते हैं, उसके पश्चात अष्ट प्रासुक द्रव्य अर्थात जिनमे कोई भी जीवो की हिंसा न होती हो, शुद्ध हो ऐसे द्रव्यों से पूजन करते हैं। फूल तो एकेन्द्रिय जीव हैं, उ सकी हिंसा करके हम पूजन कैसे कर सकते हैं?
रमन: मुझे आपकी बात ठीक-ठीक समाज आ गयी। तो द्रव्य चढाने से पूजन होता हैं….
मगन: नहीं भाई, क्रिया-काण्ड का नाम जैन धर्म थोड़ी हैं? भावों की मुख्यता हैं, जिनेन्द्र देव के गुणों के ध्यान की मुख्यता हैं और साथ-साथ सही विधि से द्रव्य चढ़ाकर जब हम पूजन करे तभी उसका फल मिलता हैं।
रमन: हाँ तो तो बहुत ध्यान रखना चाहिए। मुझे तो क्लास में फर्स्ट आना हैं, बस पूजा से मेरी यह मनोकामना पूर्ण हो जाये!
मगन: पूजा का फल तो पूजनीय दशा हैं! अनंत काल से भोगो को ही तो माँगा हैं। हमे वीतरागी बनना हैं; और यही भावना से पूजन करे तो ही सच्चा अनंत सुख प्राप्त हो सकता हैं!
रमन: कितना अद्भुत हैं यह जैन धर्म! चलो अब मंदिर चलते हैं और पूजा करते हैं; फिर स्वाध्याय भी तो सुनना हैं पंडितजी का!
Chapter 3: उपयोग
‘उपयोगोलक्षणम’ - जीव का लक्षण ‘उपयोग’ हैं। जो जीव के ज्ञान और दर्शन की क्रिया हैं उसे उपयोग कहते हैं और यह गुण तीन लोक के प्रत्येक जीव में पाया जाता हैं; इसीलिए तो इसे ‘लक्षण’ कहते हैं!
उपयोग के मुख्यरूप से २ भेद हैं -
१. दर्शन-उपयोग
२. ज्ञान-उपयोग
दर्शन उपयोग अर्थात ‘सामान्य प्रतिभास’ और ज्ञान उपयोग अर्थात ‘स्व-पर भिन्नता अवभासन’।
एक कक्षा में १०० विद्यार्थी हो; और एक शिक्षक राउंड लगाने आये;
जब उसे यह प्रतिभास हो की कुछ विद्यार्थी हैं; वह ‘सामान्य प्रतिभास’ का दृष्टांत और
जब उसे यह ज्ञान हो कि १०० विद्यार्थी हैं, उनमे से कुछ छात्र हैं और कुछ छात्राएं; यह विशेष भिन्न करके जाना ‘ज्ञान’ का दृष्टांत हैं।
ऐसे ही दर्शन उपयोग और ज्ञान उपयोग के सन्दर्भ में जानना चाहिए।
ज्ञान के ८ भेद -
म ति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान।
मति, श्रुत और अवधि विभंग ज्ञान हैं, तो वे मिथ्यात्व के साथ हो तो उन्हें ‘कु’ से जोड़कर ‘कुमति’, ‘कुश्रुत’ और ‘कुअवधि’ कहा जाता हैं।
दर्शन उपयोग के ४ भेद हैं -
१. चक्षु
२. अचक्षु
३. अवधि
४. केवल
इस प्रकार हमने उपयोग के भेद-प्रभेद जाने।
Chapter 4: गृहीत, अगृहीत मिथ्यात्व
तत्रोपदेशमंतरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम्। परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्।
जो परोपदेश के बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है।
- सर्वार्थसिद्धि
अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।
शरीरधारी जीवों को मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ अकल्याणकारी नहीं है।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार
आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा। आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यक्त्वरिक्ता:।
भले ही महाव्रतादि का आलंबन करें या समितियों की उत्कृष्टता का आश्रय करें तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व से रहित हैं।
- समयसार
मिथ्यात्व के सन्दर्भ में तो जितना कहे उतना कम हैं। आचार्यों ने मिथ्यात्व को नाश करने का उद्यम सर्व प्रथम करने का उपदेश दिया हैं। मिथ्यात्व के नाश से ही तो सम्यक्त्व प्रगट होता हैं; और एक बार सम्यक्त्व प्रगट होने पर जीव साधिक अर्ध-पुद्गल परावर्तन काल के अंदर अंदर ही संसार में पार हो जाता हैं।
म िथ्यात्व के तो असंख्यात भेद हो सकते हैं; परन्तु उत्पाद की अपेक्षा से २ प्रकार से बताया गया हैं।
१. गृहीत - जो इस भव में नयी विपरीत मान्यता ग्रहण की हो
कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, कुशास्त्र आदि को मानना, लोक आदि ३ मूढ़ता होना। इस भाव के संयोगो को अपना मानना
२. अगृहीत - अनादि काल से जो अयर्थार्थ श्रद्धान हैं वह
शरीर को आत्मा मानना, राग-द्वेष विषयो में व्यस्त रहना आदि
मिथ्यात्व के अन्य प्रकार से भेद -
मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है–
१. नैसर्गिक
१. परोपदेशपूर्वक
परोपदेश-निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है
१. क्रियावादी
२. अक्रियावादी
३. अज्ञानी
४. वैनयिक
मिथ्यात्व के ५ प्रकार से भी भेद बताये गए हैं -
१. एकांत
२. विनय
३. विपरीत
४. संशय
५. अज्ञान
इस प्रकार हमने मिथ्यात्व और उसके भेद-प्रभेद के सन्दर्भ में जाना।