वीतराग विज्ञान पाठमाला : भाग ३
Chapter 1: सिद्ध पूजन
जो अपने वास्तविक अवस्था को स्वयं से सिद्ध कर रहे हैं, जिन्हें अब कोई भी और सिद्धि प्राप्त करनी शेष नहीं हैं; अर्थात सर्व-सिद्धि को प्राप्त होते हुए कृत-कृत्य दशा को अनंत काल तक भोगने वाले हैं, अनंत ज्ञान आदि ८ गुण अनादि के कर्म के विनाश से प्रगट हुए हैं जिनके, और जिसके जैसी उत्तम दशा को पाना मेरा एक मात्र लक्ष्य हैं; ऐसे परम आराध्य, परम अनुसरणीय और परम पद - जो सिद्ध परमेष्ठी हैं, उनको मेरा मन-वचन-काय से बारम्बार नमस्कार हो।
सिद्ध भगवान के गुणों का गुणानुवाद ही सिद्ध पूजन हैं; और भव्य जीव नित्य ही जिनेन्द्र देव को ऐसी अनर्घ्य-पद प्राप्ति हेतु अष्ट द्रव्यों से पूजन करते हैं। आ. प. हुकमचंदजी भारिल्ल जी द्वारा रचित ‘सिद्ध’ पूजन का पाठ करने का लाभ हमें वीतराग विज्ञान ३ के प्रथम में ही मिलता हैं।
इस पूजन के अष्टक और जयमाला अपने आप में अद्भुत और भावविभोर करनेवाली हैं। वैसे तो इसके प्रत्येक शब्द में सिद्ध भक्ति और वैराग्य बसा हैं, परन्तु फिर भी उसमे से कुछ पंक्तियों को यहाँ निचे उल्लेख करके हम इस पूजन को संक्षिप्त में जानेंगे -
- ‘थी आश कि प्यास बुझेगी अब, पर यह तो सब मृग-तृष्णा निकली’
- ‘होकर निराश सब जग भर से अब सिद्ध शरण में मैं आया’
- ‘हो हार जगत के वैरी की, क्यों नहीं आनंद बढ़े सबका’
- ‘जब दृष्टि पड़ी प्रभुजी तुमपर मुझको स्वाभाव का भान हुआ’
जयमाला में भी अनेक विशेषण सहित सिद्ध भगवान का निश्चय और व्यवहार दोनों पक्षों से गुणानुवाद किया हैं। सिर्फ भक्ति से ही थोड़ी सिद्ध दशा प्रगट होगी? तत्त्व चिंतवन और निर्णय का स्थान बहुत महत्व का हैं। यह जयमाला की अनेक पंक्तियों से ज्ञात होता हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के प्रश्न, चिंतवन, अज्ञानी जीव की भूल और अब कैसे मोक्षमार्ग में आगे बढ़ा जाय उन सब बातों का जयमाला में सुन्दर रीती से समझाया हैं।
“सिद्धो से मिलनेका मार्ग ध्यान हैं… आतम से मिलने का मार्ग ध्यान हैं”
पुरुषार्थ और ध्यान अग्नि के बल से कर्मों को नष्ट कर हम भी ऐसी कृत-कृत्या परमात्म ा दशा को प्राप्त हो ऐसी मंगल भावना।
Chapter 2: पूजा, विधि और फल
अब हम पूजन, उसकी विधि और उसका फल जानने के लिए रमन और मगन का वार्तालाप सुनते हैं। मगन मंदिरजी पूजन करने के लिए जा रहा होता हैं और वह अपने मित्र रमन को भी चलने का आग्रह करता हैं।
रमन: पूजा-पाठ तो बूढ़े-बुजुर्ग लोग करते हैं; तुम कहाँ युवानी में इन सब चक्कर में पड़ रहे हो?
मगन: अरे रमन, पूजा क्या होती हैं क्या तुम्हे यह भी पता हैं? जैन धर्म में तो हम सभी क्रियाएँ सही अभिप्राय को जानकार ही करते हैं!
रमन: अच्छा, फिर बताओ; कैसे होती हैं तुम्हारी पूजा?
मगन: ‘कैसे’ और ‘क्यों’ प्रश्नो से पहले यह जानना जरूरी हैं कि किसकी पूजा होती हैं। इष्ट देव अर्थात जो वीतराग सर्वज्ञ और हितोपद ेशी हो, उनकी ही पूजा होती हैं, अन्य कोई हमारे लिए पूजनीय नहीं!
रमन: ऐसा क्यों की तुम वीतरागी हो ही पूजते हो?
मगन: राग और द्वेष में तो आकुलता हैं। वास्तव में जो सुखी होना हैं तो निराकुलता का मार्ग अपनाना पड़ेगा। जिन्होंने यह कार्य पूर्ण किया हो, हम उनके जैसे बनने के लिए ही तो पंच परमेष्ठी को पूजते हैं!
रमन: यह तो बड़ी उचित बात लगती हैं। मुझे भी जिनमंदिर ले चलो, मैं भी पूजन करूँगा। मेरे घर पर कुछ पूजन के फूल पड़े होंगे, वह भी साथ में ले चलता हूँ !
मगन: भाई, हर्ष हुआ कि तुम्हे भी तीन लोक के नाथ की पूजन करनी हैं। परन्तु सभी कार्यों को करनेकी एक विधि होती हैं, कुछ नियम आदि होते हैं। पहले तो हम शुद्ध वस्त्र पहनकर प्रासुक जल से जिनेन्द्रदेव का प्रक्षाल करते हैं, उसके पश्चात अष्ट प्रासुक द्रव्य अर्थात जिनमे कोई भी जीवो की हिंसा न होती हो, शुद्ध हो ऐसे द्रव्यों से पूजन करते हैं। फूल तो एकेन्द्रिय जीव हैं, उसकी हिंसा करके हम पूजन कैसे कर सकते हैं?
रमन: मुझे आपकी बात ठीक-ठीक समाज आ गयी। तो द्रव्य चढाने से पूजन होता हैं….
मगन: नहीं भाई, क्रिया-काण्ड का नाम जैन धर्म थोड़ी हैं? भावों की मुख्यता हैं, जिनेन्द्र देव के गुणों के ध्यान की मुख्यता हैं और साथ-साथ सही विधि से द्रव्य चढ़ाकर जब हम पूजन करे तभी उसका फल मिलता हैं।
रमन: हाँ तो तो बहुत ध्यान रखना चाहिए। मुझे तो क्लास में फर्स्ट आना हैं, बस पूजा से मेरी यह मनोकामना पूर्ण हो जाये!
मगन: पूजा का फल तो पूजनीय दशा हैं! अनंत काल से भोगो को ही तो माँगा हैं। हमे वीतरागी बनना हैं; और यही भावना से पूजन करे तो ही सच्चा अनंत सुख प्राप्त हो सकता हैं!
रमन: कितना अद्भुत हैं यह जैन धर्म! चलो अब मंदिर चलते हैं और पूजा करते हैं; फिर स्वाध्याय भी तो सुनना हैं पंडितजी का!
Chapter 3: उपयोग
‘उपयोगोलक्षणम’ - जीव का लक्षण ‘उपयोग’ हैं। जो जीव के ज्ञान और दर्शन की क्रिया हैं उसे उपयोग कहते हैं और यह गुण तीन लोक के प्रत्येक जीव में पाया जाता हैं; इसीलिए तो इसे ‘लक्षण’ कहते हैं!
उपयोग के मुख्यरूप से २ भेद हैं -
१. दर्शन-उपयोग
२. ज्ञान-उपयोग
दर्शन उपयोग अर्थात ‘सामान्य प्रतिभास’ और ज्ञान उपयोग अर्थात ‘स्व-पर भिन्नता अवभासन’।
एक कक्षा में १०० विद्यार्थी हो; और एक शिक्षक राउंड लगाने आये;
जब उसे यह प्रतिभास हो की कुछ विद्यार्थी हैं; वह ‘सामान्य प्रतिभास’ का दृष्टांत और
जब उसे यह ज्ञान हो कि १०० विद्यार्थी हैं, उनमे से कुछ छात्र हैं और कुछ छात्राएं; यह विशेष भिन्न करके जाना ‘ज्ञान’ का दृष्टांत हैं।
ऐसे ही दर्शन उपयोग और ज्ञान उपयोग के सन्दर्भ म ें जानना चाहिए।
ज्ञान के ८ भेद -
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान।
मति, श्रुत और अवधि विभंग ज्ञान हैं, तो वे मिथ्यात्व के साथ हो तो उन्हें ‘कु’ से जोड़कर ‘कुमति’, ‘कुश्रुत’ और ‘कुअवधि’ कहा जाता हैं।
दर्शन उपयोग के ४ भेद हैं -
१. चक्षु
२. अचक्षु
३. अवधि
४. केवल
इस प्रकार हमने उपयोग के भेद-प्रभेद जाने।
Chapter 4: गृहीत, अगृहीत मिथ्यात्व
तत्रोपदेशमंतरेण मिथ्यात्वकर्मोदयवशाद् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नैसर्गिकम्। परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधम्।
जो परोपदेश के बिना मिथ्यादर्शन कर्म के उदय से जीवादि पदार्थों का अश्रद्धानरूप भाव होता है, वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेश निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है।
- सर्वार्थसिद्धि
अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।
शरीरधारी जीवों को मिथ्यात्व के समान अन्य कुछ अकल्याणकारी नहीं है।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार
आलंबंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा। आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यक्त्वरिक्ता:।
भले ही महाव्रतादि का आलंबन करें या समितियों की उत्कृष्टता का आश्रय करें तथापि वे पापी ही हैं, क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यक्त्व से रहित हैं।
- समयसार
मिथ्यात्व के सन्दर्भ में तो जितना कहे उतना कम हैं। आचार्यों ने मिथ्यात्व को नाश करने का उद्यम सर्व प्रथम करने का उपदेश दिया हैं। मिथ्यात्व के नाश से ही तो सम्यक्त्व प्रगट होता हैं; और एक बार सम्यक्त्व प्रगट होने पर जीव साधिक अर्ध-पुद्गल परावर्तन काल के अंदर अंदर ही संसार में पार हो जाता हैं।
मिथ्यात्व के तो असंख्यात भेद हो सकते हैं; परन्तु उत्पाद की अपेक्षा से २ प्रकार से बताया गया हैं।
१. गृहीत - जो इस भव में नयी विपरीत मान्यता ग्रहण की हो
कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, कुशास्त्र आदि को मानना, लोक आदि ३ मूढ़ता होना। इस भाव के संयोगो को अपना मानना
२. अगृहीत - अनादि काल से जो अयर्थार्थ श्रद्धान हैं वह
शरीर को आत्मा मानना, राग-द्वेष विषयो में व्यस्त रहना आदि
मिथ्यात्व के अन्य प्रकार से भेद -
मिथ्यादर्शन दो प्रकार का है–
१. नैसर्गिक
१. परोपदेशपूर्वक
परोपदेश-निमित्तक मिथ्यादर्शन चार प्रकार का है
१. क्रियावादी
२. अक्रियावादी
३. अज्ञानी
४. वैनयिक
मिथ्यात्व के ५ प्रकार से भी भेद बताये गए हैं -
१. एकांत
२. विनय
३. विपरीत
४. संशय
५. अज्ञान
इस प्रकार हमने मिथ्यात्व और उसके भेद-प्रभेद के सन्दर्भ में जान ा।
Chapter 5: मैं कौन हूँ
‘मैं’ शब्द का प्रयोग हम पुरे दिन कितनी ही बार करते होंगे; पर ‘मैं’ शब्द किसके लिए प्रयोग हो रहा हैं, उस शब्द में ‘मै-पना’ कहाँ हैं, ‘मेरा’, ‘मुझे’, आदि जो शब्द हैं वह वास्तव में जिसके लिए व्यवहार में ले रहा हूँ, वह किसके लिए हैं; वह कौन हैं, इस विचार से जीव मोह मदिरा के नशे से शून्य हैं।
कृपालुदेव लिखते हैं न -
“मैं कौन हूँ? आया कहाँ से? और मेरा रूप क्या?
सम्बन्ध दुखमय कौन है? स्वीकृत करूँ परिहार क्या?
इसका विचार विवेकपूर्वक,शांत होकर कीजिये।
तो सर्व आत्मिक ज्ञान के,सिद्धांत का रस पीजिये।।”
मैं शरीर हूँ? यदि हूँ तो मृत्यु के बाद मैं कहा जाता हुँ?
मैं शरीर हूँ ? यदि हूँ तो इसका इतना पोषण करने पर भी दुःख क्यों देता हैं?
मैं मन हूँ ? यदि हूँ तो फिर मन मेरे काबू में क्यों नहीं आ पाता?
जो ये सब में - पोषण करने में, मृत्यु के बाद जो रहता हैं, जो मन को वश में करने के प्रयत्न कर रहा हैं; वह ज्ञान स्वभावी आत्मा मैं हूँ !
इस पाठ में सुन्दर सुन्दर दृष्टांतों तार्किक और आध्यात्मिक स्तर पर मैं कौन हूँ इसकी सिद्धि की गयी हैं।
कैसा हूँ मैं ? इसे जानना हो तो हम सब की प्रिय स्तुति का पाठ करना चाहिए -
मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ, मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूँ
मैं ही मेरा कर्ता धर्ता, मुझमें पर का कुछ का काम नहीं
मैं मुझमें रमने वाला हूं, पर में मेरा विश्राम नहीं ॥
मैं शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध एक, पर परिणति से अप्रभावी हूं
आत्मानुभूति से प्राप्त तत्व, मैं ज्ञानानंद स्वभावी हूं ॥
- प. हुकमचंद जी भारिल्ल
और कैसा हूँ मैं ?
भारत क्षेत्र के समर्थ आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि -
मैं एक, शुद्ध, सदा अरूपी, ज्ञानदृग हूँ यथार्थसे,
कुछ अन्य वो मेरा तनिक परमाणुमात्र नहीं अरे !
- समयसार (१:३८)
Chapter 6: ज्ञानी श्रावक के १२ व्रत
श्रद्धान बिना के चारित्र को आचार्यदेव ‘बाल तप’ कहकर सम्बोधित करते हैं। जब तक तत्वों के प्रति श्रद्धान असत्यार्थ हो, तब तक बाहर की सभी क्रियाएँ भूतार्थ नहीं हैं। इसलिए ‘ज्ञानी’ शब्द का प्रयोग किया गया हैं। ‘ज्ञानी’ अर्थात सम्यग्दृष्टि जीव; जो मोक्षमार्ग में पहली सीढ़ी चढ़ गया हैं। ऐसे ज्ञानी जीवो की जैसे कैसे अंतर में पुरुषार्थपूर्वक विशुद्धि की वृद्धि हैं, आनंद की अनुभूति उतनी ही वर्धमान भाव को प्राप्त होती हैं; और इसके फल स्वरुप बाहर में स्वयमेव ही व्रत आदि के परिणाम आये बिना रहते ही नहीं हैं।
व्रत की महिमा निराली हैं। व्रत के परिणाम उन्हें ही आते हैं जिनका देव आयु बंधने वाला हो ऐसा गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा हैं । (इसीलिए क्षायिक सम्यग्दृष्टि राजा श्रेणिक को व्रत के भाव नहीं आये थे क्योंकि उनका नरक आयु बंध गया था) वे व्रत कौन-कौन से हैं?
ज्ञानी श्रावक के १२ व्रत होते हैं -
५ अणुव्रत - अहिंसादि ५ पापों के एकदेश त्याग
३ गुणव्रत - अणुव्रतों का रक्षण और उनमें वृद्धि के लिए गुणव्रत
४ शिक्षाव्रत - महाव्रत की तैयारी रूप शिक्षा
५ अणुव्रत - अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाण व्रत
३ गुणव्रत - दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत
४ शिक्षाव्रत - सामायिक, प्रोषध-उपवास, भोग-उपभोग परिमाण व्रत और अतिथि संविभाग व्रत
जो यह १२ प्रकार के व्रत को अतिचार रहित निर्दोष रूप से पालन करते हैं वे व्रती श्रावक कहलाते हैं। यह पंचम गुणस्थानवर्ती होते हैं।
व्रत के सन्दर्भ में शास्त्रों में उल्लेख -
स्वात्मना कृत्वा स्वात्मनिर्वर्तनं इति निश्चयव्रतं।
शील अर्थात् अपने आत्मा से अपने आत्मा में प्रवृत्ति करना, ऐसा निश्चय व्रत।
- परमात्मप्रकाश
पंचवदाणि जदीणं अणुव्वदाइं च देसविरदाणं। ण हु सम्मत्तेण विणा तौ सम्मत्तं पढमदाए।
मुनियों के अहिंसादि पंच महाव्रत और श्रावकों के पाँच अणुव्रत, ये सम्यग्दर्शन के बिना नहीं होते हैं, इसलिए प्रथमतः आचार्यों ने सम्यक्त्व का वर्णन किया है।
- भगवती आराधना
प्राणांतेऽपि न भंक्तव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतं। प्राणांतस्तत्क्षणे दुःखं व्रतभंगो भवे भवे
प्राणांत होने की संभावना होने पर भी गुरु साक्षी में लिये गये व्रत को भंग नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्राणों के नाश से तो तत्क्षण ही दुःख होता है, पर व्रत भंग से भव-भव में दुःख होता है।
- सागार धर्मामृत
पंचधाणुव्रतं रात्र्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतं।
पाँच प्रकार का अणुव्रत है और ‘रात्रिभोजन त्याग’ यह छठा अणुव्रत है।
- चारित्रसार
इस प्रकार हमने व्रतों के विषय को इस पाठ के निमित्त से जाना।
Chapter 7 : मुक्ति का मार्ग
इस जीव को हमेशा स्वतंत्रता का अनुभव बहुत प्रिय होता हैं; फिर वह देश के लिए हो, अपनी आजीविका हो या फिर गृहस्थी में हो; सभी जगह स्वतंत्रता में शांति और निर्भारता का अनुभव करता हैं। परतंत्रता तो मुर्ख भी न चाहे! वैसे सही ही हैं, क्योंकि ये जीव अनादि से स्व को जाने बिना पर द्रव्य में ही सुख ढूंढ़ता हुआ परतंत्र बनके भ्रमण कर रहा हैं; तो उसे शांति कैसे मिल सकती हैं? इन बोझे से मुक्ति का नाम तो सुख हैं; पर इसका वास्तविक मार्ग क्या हैं? आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा रचित ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ ग्रन्थ के आधार से यह पाठ लिखा गया हैं, जिसमे मोक्षमार्ग की चर्चा की गयी हैं।
‘एक होय त्रण काल मां, परमारथ नो पंथ’
तीन काल में मुक्ति का मार्ग केवल एक ही हैं; और वह जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित धर्म का अनुसरण करके ही प्राप्त हो सकता हैं।
कैसा हैं यह मोक्षमार्ग ?
‘सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः’
- तत्वार्थसूत्र, आचार्य उमास्वामी
सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यग्चारित्र की एक एकता का नाम ही मोक्षमार्ग हैं।यहाँ ‘सम्यक’ उपसर्ग से यथार्थ-पना बताया गया हैं।
सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन अर्थात जीवादी ७ प्रयोजनभूत तत्वों का तत्वनिर्णयपूर्वक यथार्थ श्रद्धान होता हैं, और इसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र-गुण सम्यक्पने को प्राप्त होते हैं। इसके बिना ज्ञान और चारित्र सब मिथ्या हैं। इसीलिए आत्मानुभूति के लिए पुरुषार्थ ही मुमुक्षु का सर्व प्रथम कार्य होता हैं।
सम्यग्ज्ञान जीवादी ७ प्रयोजनभूत तत्वों के यथार्थ ज्ञान का नाम हैं।वह संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि दोषों से रहित अनेकान्तात्मक होता हैं।
समस्त सावद्ययोग रहित, शुभाशुभ भावरूप कषायों से विमुक्त, निर्मल आत्मलीनता का नाम ही सम्यग्चारित्र हैं।
सम्यग्दर्शन श्रद्धा गुण की निर्मल पर्याय हैं; जो ४थे गुणस्थान से ही पूर्ण शुद्धता को प्राप्त होती हैं।
सम्यग्ज्ञान ज्ञान गुण की निर्मल पर्याय हैं, जो ४थे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन होने पर पूर्ण शुद्धता को प्राप्त होती हैं; जो सम्यग्दर्शन दीपक हैं, तो सम्यग्ज्ञान प्रकाश हैं।
सम्यग्चारित्र चरित्र गुण की निर्मल पर्याय हैं, जो समस्त मोहनीय कर्म के क्षय होने पर पूर्ण शुद्धता को होती हैं।
इस प्रकार, जितने जितने अंश में रत्नत्रय हैं; उस-उस अंश में अबंध हैं; और जितने जितने अंश में अशुद्धि हैं, उस-उस अंश में बंध हैं। इसलिए जीव को साधक अवस्था में भी बंध होता हैं; इसमें कोई विरोध नहीं हैं।
ऐसे जो ३ रत्नत्रय हैं, उनसे जीव भाव भ्रमण का नाश करके अनंत काल तक मुक्त हो जाता हैं और अविनाशी सुख भोगता हैं।
Chapter 8 : निश्चय और व्यवहार
“सच्चे निरूपण को निश्चय-नय कहते हैं; और उपचरित निरूपण को व्यवहार नय”
जो द्रव्य के भाव का जैसा हैं वैसा वर्णन करना वह निश्चय नय हैं और उपचार से उसे अन्यथा वर्णन करना वह व्यवहार नय हैं। आसान शब्दों में, व्यवहार नय निश्चय नय की भाषा को सरल करता हैं।
जैसे,
घड़ा निश्चय से माटी से बना हैं;
परन्तु व्यवहार से कहा जाय तो अपनी अनुकूलता के अनुसार “यह घड़ा रमन का हैं”, “यह घड़ा पानी का हैं” आदि कहना।
इस प्रकार, शुद्धात्मा के अनुभव को निश्चय से मोक्षमार्ग कहा हैं; और उपचार से व्रत आदि निमित्त की अपेक्षा से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा हैं;
व्यवहार अभूतार्थ हैं और निश्चय भूतार्थ हैं। व्यवहार को व्यवहार-रूप और निश्चय को निश्चय-रूप ग्रहण करना चाहिए। पर श्रद्धान तो जो भूतार्थ हैं उसका करना चाहिए; अर्थात निश्चयनय / द्रव्यदृष्टि से ही सम्यक्त्व होता हैं।
इस पाठ में एक सुन्दर उदहारण प्राप्त होता हैं जो इस प्रकार हैं -
गंगा नदी की लंबाई, चौड़ाई आदि जानने के लिए जो कोई वास्तविक नदी में जाकर उसको जानने का प्रयास करे तो वह असंभव हैं। भ ारत के नक्षे से वह सुगमता से जान सकता हैं। पर भारत के नक्षे में से जो कोई पानी पीना चाहे तो वह नहीं हो सकता। पानी पीना हो तो तो सच्ची नदी के पास ही जाना पड़ेगा।
इस प्रकार, व्यवहार (नक्षा) निश्चय (नदी) का प्रतिपादक हैं, परन्तु निश्चय (नदी) के ग्रहण से ही प्रयोजन (पानी पीना) की सिद्धि हो सकती हैं।
निश्चय और व्यवहार जिनागम को समझने के लिए अति आवश्यक हैं। इसलिए हमे इनका ज्ञान करके अपने शुद्ध-आत्म की अनुभूति अर्थात निश्चय मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ वृद्धिंगत करना चाहिए।
Chapter 9 : दशलक्षण महापर्व
उत्तम क्षमा आदि दश लक्षण; सम्यक्त्व (उत्तम) से आभूषित आत्मा के धर्म (गुण) के गुणानुवाद, चिंतवन और प्रगटता के उपाय व पुरुषार्थ का ज ो पर्व हैं, वह दशलक्षण पर्व हैं। यह त्रैकालिक पर्व हैं, वर्ष में ३ बार इसे मनाया जाता हैं और आत्म-आराधना की जाती हैं।
दश धर्म के विषय में आगम में क्या कहा गया हैं वह जानते हैं -
निश्चयेन संसारे पतंतमात्मानं धरतीति विशुद्धज्ञान दर्शन लक्षण निज शुद्धात्म भावनात्मको धर्म:, व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेंद्रनरेंद्रादिवंद्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमादि...दशप्रकारो धर्म:।
निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे यानी रक्षा करे सो विशुद्धज्ञानदर्शन लक्षण वाला निज शुद्धात्मा की भावना स्वरूप धर्म है। व्यवहारनय से उसके साधन के लिए इंद्र चक्रवर्ती आदि का जो वंदने योग्य पद है उसमें पहुँचाने वाला उत्तम क्षमा आदि दश प्रकार का धर्म है।
- द्रव्यसंग्रह टीका
अहिंसालक्षणो धर्म:।
धर्म अहिंसा आदि लक्षण वाला है।
- राजवार्तिक
धर्म के आगे ‘उत्तम’ शब्द जोड़ने के कुछ आगम प्रमाण -
दृष्टप्रयोजनपरिवर्तनार्थमुत्तमविशेषणम् ।
दृष्ट प्रयोजन की निवृत्ति के अर्थ इनके साथ ‘उत्तम’ विशेषण दिया है।दृष्ट प्रयोजन की निवृत्ति के अर्थ इनके साथ ‘उत्तम’ विशेषण दिया है।
- राजवार्तिक
उत्तमग्रहणं ख्यातिपूजादिनिवृत्त्यर्थं।
ख्याति व पूजादि की भावना की निवृत्ति के अर्थ उत्तम विशेषण दिया है। अर्थात् ख्याति पूजा आदि के अभिप्राय से धारी गयी क्षमा आदि उत्तम नहीं है।
- चारित्रसार
उत्तम शब्द ‘निश्चय सम्यक्त्व पूर्वक’ का भी सूचक शास्त्रों में कहा गया हैं।
निश्चय बिना व्यवहार होता नहीं हैं; इसलिए व्यवहार धर्म को इस अपेक्षा से पापरूप, संसार मार्ग, मोहरूप, अकिंचित्कर, हेय आदि कहकर मोक्षमार्ग के कथंचित गौण बताया गया हैं। अपितु व्यवहार धर्म सर्वथा हेय नहीं हैं, परंपरा से तो मोक् ष में निमित्तभूत बनता हैं। निश्चय सम्यक्त्व पूर्वक ही धर्म होता हैं, अन्यथा नहीं। कहा भी हैं -
दाणं पूजा सीलं उपवासं बहुविहंपि खिवणं पि। सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्मविणा दीहसंसारं।
दान, पूजा, ब्रह्मचर्य, उपवास, अनेक प्रकार के व्रत और मुनिलिंग धारण आदि सर्व एक सम्यग्दर्शन होने पर मोक्षमार्ग के कारणभूत हैं और सम्यग्दर्शन के बिना संसार को बढ़ाने वाले हैं।
- रयणसार
इस प्रकार, दश धर्मों का निश्चय और व्यवहार दोनों स्वरुप जानकार योग्य श्रद्धान और आचरण से ही इस पर्व को मानाने की सार्थकता हैं।
Chapter 10 : बलभद्र राम
भगवान रामचन्द्र का चारित्र अति उत्तम और प्रेरणादायी हैं। उनके जीवन की प्रत्येक घटनाएं हमे अनेक तत्वज्ञान, वैराग्य और संयम की सिख देती हैं। फिर वो १४ वर्ष का वनवास हो, या फिर सीता का हरण हो, या फिर हो रावण से युद्ध सभी अवस्था में समता धारण करके भूमिका कार्य उन्होंने किया। अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण की मृत्यु हो या हो सीताजी की अग्निपरीक्षा; यह गाथा सभी प्रसंग भव्य जीवो में वैराग्य का पोषण करनेवाली हैं।
आचार्य रविषेण स्वामी द्वारा रचित पद्मपुराण संस्कृत साहित्य का सर्व प्रथम शास्त्र और प्रथमानुयोग का बहुमूल्य ग्रन्थ हैं। पद्मपुराण के आधार से लिखा गया ये पाठ हम सभी को कितनी ही शिक्षा देता हैं। इतना ही नहीं, जो समाज में “रामायण” को लेकर जो भी मिथ्या मान्यता चलती आ रही हैं, उनका निवारण करने का भी प्रयास किया गया हैं।
कुछ मिथ्या-मान्यता और उनका स्पष्टीकरण -
१. हनुमान, सुग्रीव और वानर सेना कोई ‘वानर पशु’ नहीं थे अपितु वे ‘वानर’ वंश के वंशज थे।
२. रावण कोई राक्षस नहीं था अपितु ‘राक्षस’ वंश का एक विद्याधर प्रतिनारायण राजा था।
३. रावण के १० मुँह नहीं थे, अपितु बाल्यावस्था में नवमणि हार में उसके दश मुख दिखने पर ‘दशानन’ नाम को प्राप्त हुआ
४. रामचंद्र ने रावण का वध नहीं किया, लक्ष्मण ने किया था।
ऐसी तो अनेक बाते हैं जिनकी पुष्टि जैन आगम अनुरूप रामायण पढ़ने से ज्ञात होती हैं। इस प्रकार अयोध्या में वर्षों तक राज-पाठ सँभालने के बाद, वैराग्य को प्राप्त होकर जिनदीक्षा धारण करके; हनुमान, सुग्रीव, सुडील, गव, गवाख्य, नील, महानील आदि ९९ करोड़ मुनिराजों के साथ मांगी-तुंगी सिद्धक्षेत्र से मोक्ष सिधाए।
Chapter 11 : समयसार स्तुति
निश्चय से जब जीव ‘समय’ की स्तुति करता हैं, तब वह समयसार विशेषण को प्राप्त होता हैं; ऐसे महान ग्रन्थ समयसार की स्तुति वीतराग विज्ञान ३ के अंतिम पाठ के रूप में हैं।
समयसार तो वास्तव में भगवान महावीर की दिव्यध्वनि से निकली गंगा के सामान हैं, जो आज हमें आचार्य कुन्दकुन्द और उनके ह्रदय को खोलनेवाले और समयसार की अद्भुत टिका करनेवाले आचार्य अमृतचन्द्र के उपकार से प्राप्त हैं।
‘कुंदकुंद रच्यु शास्त्र, साथिया अमृते पुर्या, ग्रंथाधिराज तारा मा भावो बह्रामंड ना भर्या’
“पंचम काल बड़ा भारी अध्यात्म की नदियाँ सुख गयी,
प्राणो की कीमत देने पर जिनवाणी लिपिबद्ध हुई”
‘समयसार’ परमागम का प्राप्त होना तो करोड़ो चिंतामणि रत्न मिल जाने से भी अधिक भाग्यशाली होना हैं। अनादि की विष-रुपी मूर्छा अब मानो समयसार के प्रताप से उतर रही हो और स्वरुप की ओर परिणति निर्मल होती हुई दौड़ रही हो।
ऐसे अनेक विशेषणों से आभूषित ये स्तुति में समयसार को ‘साधक का साथी’, ‘जगत का सूर्य’, ‘महावीर का सन्देश’, ‘निश्चयग्रन्थ’ आदि कहा हैं।
इस ग्रन्थ को सुनने से जैसे जो अनादि से बंधे कर्मरस ‘निबंध’रूप परिणमन कर रहे हो और इसे जानने से ज्ञानियों का हृदय जानने में आता हैं। जो इसकी रूचि हो गयी तो संसार में कुछ भी रुचता नहीं हैं, असारता भासती हैं और जिसको यह ग्रन्थ रिज़ जाय तो फिर आत्मानुभूति प्रगट हुए बिना रहती नहीं हैं।
इस ग्रन्थ के उपकार हेतु अंतिम में लिखते हैं प. हिम्मतलाल जी लिखते हैं कि -
बनावुं पत्र कुंदननां, रत्नोनां अक्षरों लखी;
तथापि कुंदसूत्रोनां अंकाये मूल्य ना कदि ।
समयसार ग्रंथाधिराज की जय हो