वीतराग विज्ञान पाठमाला : भाग २
Chapter 1: उपासना
सच्चे देव-शास्त्र-गुरु ही इस जीव के परम इष्ट हैं, परम शरण हैं, जो इस जीव को संसार सागर में नाव सामान उपकारी हैं और जिनके स्वरुप को लख कर, उनके द्वारा बताये हुए मार्ग पर जब जीव चल ता हैं, अपने स्वभाव में लीन हो जाता हैं, तब जीव अनंत सुखी होता हैं। ऐसे देव-शास्त्र-गुरु की पूजन हमे नित्य करनी चाहिए और इसीलिए वीतराग-विज्ञान पाठमाला २ में पहिले ही देव-शास्त्र-गुरु पूजन का पाठ हैं।
केवलज्ञानरूपी सूर्य किरणों से जिनका अंतर प्रकाशित हैं ऐसे निर्मल देव (अरिहंत, सिद्ध परमेष्ठी), उनके द्वारा बताया गया मोक्षमार्ग ऐसे शास्त्र (जिनवाणी) और जो इस बताये गए मार्ग में आगे बढ़ रहे हैं और भविष्य के सिद्ध होने की तलहटी पर हैं, जो भव्य जीवो को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं ऐसे गुरु (आचार्य, उपाध्याय और साधु) को शत-शत नमन करके इस पूजन का प्रारम्भ होता हैं।
चलिए, अब पूजन के अष्ट द्रव्य देव शास्त्र को अर्पित करते-करते कैसे अलौकिक भाव भरे हैं उसे देखते हैं:
१. जल: इन्द्रिय के भोग मधुर-विष सम हैं, उससे जीव की तृष्णा कभी नहीं मिटती; 'मिथ्या'मल धोने क े भाव से जल अर्पित करता हुँ
२. चन्दन: प्रतिकूल संयोगो में 'क्रोधित' होकर जीव ने संसार बढ़ाया हैं; इस संतप्त ह्रदय को चंदनसम शीतल करने के लिए चन्दन अर्पित करता हुँ
३. अक्षत: जड़ अनुकूल लगता हैं तो उसमे अभिमान किया, और उस पर झुक कर चेतन का मार्दव धर्म नष्ट होता हैं; शाश्वत अक्षय निधि पाने के लिए अक्षत अर्पित करता हुँ
४. पुष्प: अंतर में ऋजुता नहीं हैं, और चिंतन-संभाषण-क्रिया में 'माया' के कारण विपरीतता हैं; स्थिरता निज में पाने के लिए पुष्प अर्पित करता हुँ
५. नैवेद्य: तृष्णा की खाई खूब भरने पर भी वह पूर्ण नहीं हो सकी, इस अनादि के इच्छा-सागर में गोते खाता आया हुँ; पंचेन्द्रिय व मन के विषय को त्यागने की भावना से नैवेद्य अर्पित करता हुँ
६. दीप: जग का दीप तो नश्वर हैं, केवलज्ञान रुपी दीप से निज आत्म में तत्वज्ञान का दीप जलने की भावना से दीप अप्रीत करत ा हुँ
७. धूप: मोह-राग-द्वेष रूप भावकर्म वही भावमरण हैं, ऐसा मरण सदियों से करता आया हुँ, पर अब निज आत्मा की सुगंध से पर में सुगंध भासित होती हैं, उसे जलाने की भावना से धूप अर्पित करता हुँ
८. फल: इच्छा से आकुल-व्याकुल होता हैं और व्याकुल होने का फल व्याकुलता ही हैं; यह मोह रुपी शत्रु पर विजय पाना ही पूजन की सार्थकता हैं और इसी भावना से फल अर्पित करता हुँ
९. अर्घ्य: एक क्षण में ही जब चेतन निजरस को पीता हैं तो मिथयामल धूल जाते हैं, कषायिक भाव विनष्ट कर के आनंद पाता हैं; अरिहंत अवस्था जानकार, अपने गुण की महिमा गाऊ; और निश्चित अरिहंत जैसा पद पाऊ ऐसी भावना से अर्घ्य अर्पित करता हुँ
अष्टक के पश्चात, इस पूजन की जयमाला भी अनुपम हैं और सुन्दर वैराग्यमयी भावो से भरी हैं। पहले १२ भावना का चिंतवन हैं और उसके पश्चात देव-शास्त्र-गुरु की स्तुति की गयी हैं; जिसमे से भी जो कुछ अत् यंत वैराग्य-रस से भरपूर पंक्तियाँ हैं उनका उल्लेख:
१. भव-वन में जी भर घूम चूका, कण कण को जी भर-भर देखा (अनादि से पांच परावर्तन-मय संसार में जीव भटक रहा हैं)
२. जिसके श्रृंगारो में मेरा यह महंगा जीवन घुल जाता (यह अमूल्य नर-भव शरीर की प्रीति में ही व्यर्थ होता हैं)
३. शुभ और अशुभ की ज्वाला से झुलसा हैं मेरा अंतस्तल (शुभ-अशुभ भावो से अंतर अशांत हैं, और इसका उपाय की योग्यता अब चित्त में जग रही हैं )
४. फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़िया टूट पड़े (तप से कर्म निर्जरित हो जाते हैं)
५. निज लोक हमारा वासा हो, शोकांत बने फिर हमको क्या (निश्चय से हमारा वास निज शुद्ध आत्मा में ही हैं; और इससे ही शोक का अंत होता हैं )
६. सोचा करता हुँ भोगो से बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला, परिणाम निकलता हैं लेकिन मानो पावक में घी डाला
७. अथवा वह शिव के निष्कंटक पथ में विष्कन्टक बोता हो (जग में संयोगो की इच्छा और विषय वांछा से जीव अपने सहज मोक्षमार्ग (कांटो के बिना का शिव पथ) में अपने से ही विषरुपी कंटक (इच्छा) बोता हैं )
८. दिनरात लुटाया करते हो सम-शम की अविनश्वर मणियाँ (समता और शांति का सुख निरंतर शुद्धात्मा के अवलम्बन से मुनिराज भगवंत भोगते हैं)
इस प्रकार हमने देव-शास्त्र-गुरु की पूजन का मर्म समझने का प्रयास किया और हम भी मुमुक्षु के लिए परम उपकारी देव-शास्त्र-गुरु के द्वारा बताये मार्ग से पूर्ण दशा प्रगट करे ।
Chapter 2: देव-शास्त्र-गुरु
‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ ग्रन्थ के आधार से वीतराग-विज्ञान पाठमाला २ का दूसरा पाठ लिखा गया हैं। मोक्षमार्ग में चलने वाले जीवो के लिए देव-शास्त्र-गुरु का अनंत अनंत उपकार हैं। जैसी दशा पानी हैं, जैसा सुख पाना हैं वैसे ही तो आराध्य होंगे! पूर्ण सुखी होना हैं तो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का स्वरुप जानना आवश्यक हैं। जिनागम में किसे देव कहा हैं, कौनसे शास्त्र पढ़ने-समझने योग्य हैं और गुरु कैसे होते हैं; ये बातो को इस पाठ में समझाया गया हैं।
सच्चे देव के लक्षण:
- वीतराग (मोह-राग-द्वेष से रहित हो)
- सर्वज्ञ (समस्त लोकालोक के सर्व पदार्थो की भुत-भविष्य-वर्तमान की सभी अवस्था को एक समय में प्रत्यक्ष जानते हो)
- हितोपदेशी हो (जो आत्महित का उपदेश देते हैं)
सच्चे शास्त्र के लक्षण:
- जिसमे वीतरागता का पोषक हो
- जिसमे जिनेन्द्र प्रारूपित तत्त्व का उपदेश हो
- तत्त्व का परस्पर विरोध कभी आता नहीं हैं
सच्चे गुरु (आचार्य, उपाध्याय और साधु) का लक्षण:
- नग्न दिगंबर वेश हो जिनका
- सर्व परिग्रहो से विरक्त हो
- आत्मज्ञानी हो
- आगम अनुकूल बाह्य आचरण (२८ मूलगुण, आवश्यक, समिति, गुप्ति वगेरे का निर्दोष पालन)
इस प्रकार हमने देव-शास्त्र-गुरु का स्वरुप संक्षिप्त में जाना।
Chapter 3: सात तत्त्व सम्बन्धी भूल
तद् भावस्तत्त्वम् ।
"जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है।"
- सर्वार्थसिद्धि , आचार्य पूज्यपाद
ये सात तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान न होने से ही, अर्थात वस्तु का जो भाव हैं वह न मानकर, विपरीत भाव मानने के कारण ही जीव अनंत दुखी हैं, मिथ्यादृष्टि हैं। सात तत्त्व के यथार्थ श्रद्धान का नाम ही सम्यक्त्व हैं।
मिथ्यादृष्टि जीव तत्त्व सम्बन्धी क्या-क्या भूल करता हैं, चलिए उसे हम दृष्टांत के साथ देखते हैं -
१. जीव तत्त्व :
जीव ज्ञान-दर्शन स्वभावी हैं, उसे वैसा न मानकर अन्यथा श्रद्धान होना वह जीव तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।
- ये शरीर मेरा हैं, उसकी देखभाल करना मेरा काम हैं
- मैंने रोटी बनाई
- मैं इन्द्रियों से ज्ञान करता हुँ
- शरीर, स्त्री, पुत्र आदि संयोग मुझे सुखी कर सकते हैं
२. अजीव तत्त्व :
अजीव स्पर्श-रस-गंध-वर्ण आदि गुण वाला हैं, उसे वैसा न मानकर अन्यथा श्रद्धान करना वह अजीव तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।
- शरीर में ज्ञान हैं
- शरीर के उपजने से जीव का जन्म मानना और उसके नाश से जीव का नाश मानना
- संयोगो में सुख मानना
३. आस्त्रव तत्त्व:
आस्त्रव हेय हैं, दुःख देने वाला हैं, उसमें सुखबुद्धि या विपरीत मान्यता ही आस्त्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं। जैसे -
- शुभ राग में धर्म मानना
- पाप भावो से भयभीत न होके पाप करना
- विषयों और भोगों में सुख भासित होना
- इ च्छा की पूर्ति में सुख मानना
४. बंध तत्त्व :
पुण्य-पाप का उदय जीव को सुखी-दुखी नहीं करता, शुभ-अशुभ कर्म बंध दोनों हानिकारक हैं, इससे विपरीत श्रद्धा करना बंध तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।
- पर में सुखबुद्धि करना
- पुण्य के उदय में अपने आप को सुखी मानना और पाप में दुःखी
- शुभ कर्म और अशभ कर्म दोनों स्वर्ण-लोहे की बेड़ी समान हैं, दोनों बंध रूप हैं
५. संवर तत्त्व:
आत्मज्ञान और उसके सहित का वैराग्य संवर हैं जो सुखदायी हैं, पर उसे दुखदायी मानना संवर तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।
- ज्ञानी संयमी जीव को दुःखी मानना
- त्याग आदि क्रिया में सुख न मानकर परिग्रह में सुख मानना
६. निर्जरा तत्त्व:
आत्मज्ञान पूर्वक इच्छा का अभाव वह ही सुख का स्त्रोत हैं, वह कारण हैं निर्जरा का, ऐसा न मानकर इच्छा की पूर्ति में सुख मानना निर्जरा तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं
- पर में कर्तापन का भाव होने से इच्छा होना
- इच्छा की पूर्ति में सुख और जब तक पूर्ति न हो तब तक आकुलता होना, पर फिर भी वह सुखाभास को सच्चा सुख मानना
- दिगम्बर निर्दोष चरित्र धर्म और तप से निर्जरा होना न मानना
७. मोक्ष तत्त्व:
अनंत निराकुल सुख मोक्ष दशा में ही हैं, बाकी कही नहीं; ऐसा श्रद्धान न होना मोक्ष तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं
- मोक्ष में अनंत सुख होगा की नहीं ? ऐसी शंका होना
- वाणी से तो 'मोक्ष में अनंत सुख हैं ऐसा बोलना' पर रात-दिन सिर्फ भोगों से ही सुख प्राप्त करने की चेष्टा करना
इस प्रकार हमने सात तत्त्व सम्बन्धी भूल को जाना।
Chapter 4: चार अनुयोग
"प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः।"
- क्रियाकलाप में समाधिभक्ति
वीतराग-पोषक जैना गम कथन पद्धति की अपेक्षा से चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।
ये चार अनुयोग जिनागम रुपी रथ के चार पहियों की तरह हैं; एक भी पहिया ठीक से न चलता हो तो रथ आगे नहीं बढ़ सकता। सभी अनुयोग की न्यारी शैली हैं, पद्धति हैं, उसे यथायोग्य सम्यक ग्रहण करके जिनवाणी के चारों अनुयोग का अध्यन कोई भी पक्ष-पात बिना करना चाहिए।
अब हम प्रत्येक अनुयोग की विषय वस्तु को संक्षिप्त में जानेंगे -
प्रथमानुयोग
- ६३ शलाका पुरुष की जीवनगाथा
- जीवंधर स्वामी, जम्बू स्वामी आदि महापुरुषों का जीवनचरित्र
- रक्षाबंधन, श्रुत-पंचमी, वीरशासन जयंती, दीपाली आदि घटनाओ का वर्णन
करणानुयोग
- लोक के स्वरुप, काल चक्र, चार गति का वर्णन
- कर्म की अवस्थाएँ, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि
- जीव आदि ६ द्रव्यों का सुक्ष्म वर्णन
चरणानुयोग
- श्रावक, व्रती और मुनि सभी के पालन करने योग्य चरित्र का निर्देशन
- ८ मूलगुण, ६ आवश्यक, ८ अंग, ३ मूढ़ता आदि का वर्णन
- समिति, गुप्ति, धर्म, षोडषकारण भावना आदि
द्रव्यानुयोग
- जीव अजीव ७ तत्त्व का वर्णन
- बंध-मोक्ष तथा भावश्रुतरूपी प्रकाश का विस्तार
Chapter 5: तीन लोक
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता ।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥
तीन लोक में उत्तम वस्तु, आनंद-स्वरुप और मोक्ष के कारण राग-द्वेष रहित केवलज्ञान को तीन योग को सम्हाल कर नमस्कार करता हुँ।
- छहढाला मंगलाचरण, प. दौलतरामजी
समस्त तीन लोक में जो सारभूत ऐसा एक शुद्ध आत्मा ही जीव को आश्रयरूप हैं, और उसके आश्रय से ही मोक्ष की प्राप्त ि होती हैं।
जो सिर्फ शुद्धतम का ध्यान करने से ही मुक्ति हैं, तो फिर आचार्यदेव ने हम मंदबुद्धि जीवो के लिए तीन लोक का वर्णन क्यों लिखा? जब तक इस जीव को जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताई बात की रूचि, श्रद्धा न हो तो सम्यक्त्व कैसे हो सकता हैं?
भगवान की दिव्यध्वनि में ३ लोक का वर्णन ऐसा आया हैं, उसे जानकर; हम कहा हैं, गति कौनसी और कहा होती हैं, सिद्ध परमेष्ठी कहा हैं, स्वर्ग-नरक सिर्फ कल्पना तो नहीं, जीव कहा कहा पाए जाते हैं, मनुष्यभव की दुर्लभता कितनी हैं आदि शंकाओ का समाधान होता हैं।
सभी धर्म स्वर्ग-नर्क की बाते करते हैं पर सिर्फ जैन धर्म ही न्याय, तर्क और गणित से उसका सुक्ष्म वर्णन करता हैं। तीन लोक आदि शास्त्र में बताई गयी बातो पर श्रद्धा न हो तो फिर ये तो मोक्षमार्ग तो दूर ये तो केवलज्ञान का अवर्णवाद हैं।
इस लोक में हम कहा हैं?
अनंत आकाश के मध्य में १४ x ७ x ७ राजू का लोक स्थ ित हैं, जो ३ भागो में बटा हैं - उर्ध्व, मध्य और अधो, उर्ध्व; जिसमे १ x १ x १ राजू की त्रस नाड़ी हैं जिसमे त्रस जीव पाए जाते हैं। मध्य लोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, उसके ठीक बीच में ढाई द्वीप हैं जिसमे मनुष्य पाए जाते हैं। पुरा मध्यलोक १ राजू (असंख्यात योजन) विस्तार वाला हैं और ढाई द्वीप सिर्फ ४५ लाख योजन विस्तार वाला। इससे ज्ञात होता हैं कि यह पुरे मध्यलोक का कितना छोटा भाग हैं।
आगे, इस ढाई द्वीप के भी मध्य में जम्बू-द्वीप हैं जो १ लाख योजन विस्तार वाला हैं, जो ६ कुलाचल पर्वत से ७ क्षेत्रो में विभाजित हैं, उसमे से एक क्षेत्र हैं भरतक्षेत्र जो पुरे जम्बूद्वीप का भी १९०वा भाग हैं। उस भरत क्षेत्र में ६ खंड हैं, जिसमे एक आर्यखण्ड हैं और उसका एक छोटा सा भाग हैं जिसको आज लोग 'earth' कहते हैं।
तीन लोक का विस्तार तो बहुत बड़ा हैं, उसे अवश्य हमें रुचिपूर्वक स्वाध्याय में लेना चाहिए और आतम स्वरुप का विचार करना चाहिए। बारह भावना में आता हैना -
लोक स्वरुप विचारिके आतम रूप निहारी
- प. जयचंद जी कृत बारह भावना
Chapter 6: सात व्यसन
जुआ आमिष मदिरा दारी
आखेट चोरी परनारी
एहि सात व्यसन दुःखदायी
दुरित मूल दुर्गतिके भाई।
दर्वित ये सातों व्यसन, दुराचार दुःखधाम,
भावित अंतर कल्पना, मृषा मोह परिणाम।
- कविवर बनारसीदास
अध्यात्म और काव्य क्षेत्र में सर्वौच्च कविवर बनारसीदास जी द्वारा उपर्युक्त कुछ मार्मिक पंक्तियाँ हमें सात व्यसन को त्यागने तो दूर, उनका चित्त में विकार आना भी दुःखदायी भासित होता हैं। ये सात व्यसन जीव को परलोक में तो दुःख देनेवाले हैं ही, परन्तु इस लोक में भी अपयश और दुःखी करनेवाले हैं।