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वीतराग विज्ञान पाठमाला : भाग २

Chapter 1: उपासना

सच्चे देव-शास्त्र-गुरु ही इस जीव के परम इष्ट हैं, परम शरण हैं, जो इस जीव को संसार सागर में नाव सामान उपकारी हैं और जिनके स्वरुप को लख कर, उनके द्वारा बताये हुए मार्ग पर जब जीव चलता हैं, अपने स्वभाव में लीन हो जाता हैं, तब जीव अनंत सुखी होता हैं। ऐसे देव-शास्त्र-गुरु की पूजन हमे नित्य करनी चाहिए और इसीलिए वीतराग-विज्ञान पाठमाला २ में पहिले ही देव-शास्त्र-गुरु पूजन का पाठ हैं।

केवलज्ञानरूपी सूर्य किरणों से जिनका अंतर प्रकाशित हैं ऐसे निर्मल देव (अरिहंत, सिद्ध परमेष्ठी), उनके द्वारा बताया गया मोक्षमार्ग ऐसे शास्त्र (जिनवाणी) और जो इस बताये गए मार्ग में आगे बढ़ रहे हैं और भविष्य के सिद्ध होने की तलहटी पर हैं, जो भव्य जीवो को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं ऐसे गुरु (आचार्य, उपाध्याय और साधु) को शत-शत नमन करके इस पूजन का प्रारम्भ होता हैं।

चलिए, अब पूजन के अष्ट द्रव्य देव शास्त्र को अर्पित करते-करते कैसे अलौकिक भाव भरे हैं उसे देखते हैं:

१. जल: इन्द्रिय के भोग मधुर-विष सम हैं, उससे जीव की तृष्णा कभी नहीं मिटती; 'मिथ्या'मल धोने के भाव से जल अर्पित करता हुँ

२. चन्दन: प्रतिकूल संयोगो में 'क्रोधित' होकर जीव ने संसार बढ़ाया हैं; इस संतप्त ह्रदय को चंदनसम शीतल करने के लिए चन्दन अर्पित करता हुँ

३. अक्षत: जड़ अनुकूल लगता हैं तो उसमे अभिमान किया, और उस पर झुक कर चेतन का मार्दव धर्म नष्ट होता हैं; शाश्वत अक्षय निधि पाने के लिए अक्षत अर्पित करता हुँ

४. पुष्प: अंतर में ऋजुता नहीं हैं, और चिंतन-संभाषण-क्रिया में 'माया' के कारण विपरीतता हैं; स्थिरता निज में पाने के लिए पुष्प अर्पित करता हुँ

५. नैवेद्य: तृष्णा की खाई खूब भरने पर भी वह पूर्ण नहीं हो सकी, इस अनादि के इच्छा-सागर में गोते खाता आया हुँ; पंचेन्द्रिय व मन के विषय को त्यागने की भावना से नैवेद्य अर्पित करता हुँ

६. दीप: जग का दीप तो नश्वर हैं, केवलज्ञान रुपी दीप से निज आत्म में तत्वज्ञान का दीप जलने की भावना से दीप अप्रीत करता हुँ

७. धूप: मोह-राग-द्वेष रूप भावकर्म वही भावमरण हैं, ऐसा मरण सदियों से करता आया हुँ, पर अब निज आत्मा की सुगंध से पर में सुगंध भासित होती हैं, उसे जलाने की भावना से धूप अर्पित करता हुँ

८. फल: इच्छा से आकुल-व्याकुल होता हैं और व्याकुल होने का फल व्याकुलता ही हैं; यह मोह रुपी शत्रु पर विजय पाना ही पूजन की सार्थकता हैं और इसी भावना से फल अर्पित करता हुँ

९. अर्घ्य: एक क्षण में ही जब चेतन निजरस को पीता हैं तो मिथयामल धूल जाते हैं, कषायिक भाव विनष्ट कर के आनंद पाता हैं; अरिहंत अवस्था जानकार, अपने गुण की महिमा गाऊ; और निश्चित अरिहंत जैसा पद पाऊ ऐसी भावना से अर्घ्य अर्पित करता हुँ

अष्टक के पश्चात, इस पूजन की जयमाला भी अनुपम हैं और सुन्दर वैराग्यमयी भावो से भरी हैं। पहले १२ भावना का चिंतवन हैं और उसके पश्चात देव-शास्त्र-गुरु की स्तुति की गयी हैं; जिसमे से भी जो कुछ अत्यंत वैराग्य-रस से भरपूर पंक्तियाँ हैं उनका उल्लेख:

१. भव-वन में जी भर घूम चूका, कण कण को जी भर-भर देखा  (अनादि से पांच परावर्तन-मय संसार में जीव भटक रहा हैं)

२. जिसके श्रृंगारो में मेरा यह महंगा जीवन घुल जाता (यह अमूल्य नर-भव शरीर की प्रीति में ही व्यर्थ होता हैं)

३. शुभ और अशुभ की ज्वाला से झुलसा हैं मेरा अंतस्तल (शुभ-अशुभ भावो से अंतर अशांत हैं, और इसका उपाय की योग्यता अब चित्त में जग रही हैं )

४. फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़िया टूट पड़े (तप से कर्म निर्जरित हो जाते हैं)

५. निज लोक हमारा वासा हो, शोकांत बने फिर हमको क्या (निश्चय से हमारा वास निज शुद्ध आत्मा में ही हैं; और इससे ही शोक का अंत होता हैं )

६. सोचा करता हुँ भोगो से बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला, परिणाम निकलता हैं लेकिन मानो पावक में घी डाला

७. अथवा वह शिव के निष्कंटक पथ में विष्कन्टक बोता हो (जग में संयोगो की इच्छा और विषय वांछा से जीव अपने सहज मोक्षमार्ग (कांटो के बिना का शिव पथ) में अपने से ही विषरुपी कंटक (इच्छा) बोता हैं )

८. दिनरात लुटाया करते हो सम-शम की अविनश्वर मणियाँ (समता और शांति का सुख निरंतर शुद्धात्मा के अवलम्बन से मुनिराज भगवंत भोगते हैं)

इस प्रकार हमने देव-शास्त्र-गुरु की पूजन का मर्म समझने का प्रयास किया और हम भी मुमुक्षु के लिए परम उपकारी देव-शास्त्र-गुरु के द्वारा बताये मार्ग से पूर्ण दशा प्रगट करे ।

Chapter 2: देव-शास्त्र-गुरु

‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ ग्रन्थ के आधार से वीतराग-विज्ञान पाठमाला २ का दूसरा पाठ लिखा गया हैं। मोक्षमार्ग में चलने वाले जीवो के लिए देव-शास्त्र-गुरु का अनंत अनंत उपकार हैं। जैसी दशा पानी हैं, जैसा सुख पाना हैं वैसे ही तो आराध्य होंगे! पूर्ण सुखी होना हैं तो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का स्वरुप जानना आवश्यक हैं। जिनागम में किसे देव कहा हैं, कौनसे शास्त्र पढ़ने-समझने योग्य हैं और गुरु कैसे होते हैं; ये बातो को इस पाठ में समझाया गया हैं।

सच्चे देव के लक्षण:

  • वीतराग (मोह-राग-द्वेष से रहित हो)
  • सर्वज्ञ (समस्त लोकालोक के सर्व पदार्थो की भुत-भविष्य-वर्तमान की सभी अवस्था को एक समय में प्रत्यक्ष जानते हो)
  • हितोपदेशी हो (जो आत्महित का उपदेश देते हैं)

सच्चे शास्त्र के लक्षण:

  • जिसमे वीतरागता का पोषक हो
  • जिसमे जिनेन्द्र प्रारूपित तत्त्व का उपदेश हो
  • तत्त्व का परस्पर विरोध कभी आता नहीं हैं

सच्चे गुरु (आचार्य, उपाध्याय और साधु) का लक्षण:

  • नग्न दिगंबर वेश हो जिनका
  • सर्व परिग्रहो से विरक्त हो
  • आत्मज्ञानी हो
  • आगम अनुकूल बाह्य आचरण (२८ मूलगुण, आवश्यक, समिति, गुप्ति वगेरे का निर्दोष पालन)

इस प्रकार हमने देव-शास्त्र-गुरु का स्वरुप संक्षिप्त में जाना।

Chapter 3: सात तत्त्व सम्बन्धी भूल

तद् भावस्तत्त्वम् ।

"जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्त्व है।"

  • सर्वार्थसिद्धि , आचार्य पूज्यपाद

ये सात तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान न होने से ही, अर्थात वस्तु का जो भाव हैं वह न मानकर, विपरीत भाव मानने के कारण ही जीव अनंत दुखी हैं, मिथ्यादृष्टि हैं। सात तत्त्व के यथार्थ श्रद्धान का नाम ही सम्यक्त्व हैं।

मिथ्यादृष्टि जीव तत्त्व सम्बन्धी क्या-क्या भूल करता हैं, चलिए उसे हम दृष्टांत के साथ देखते हैं -

१. जीव तत्त्व :

जीव ज्ञान-दर्शन स्वभावी हैं, उसे वैसा न मानकर अन्यथा श्रद्धान होना वह जीव तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।

  • ये शरीर मेरा हैं, उसकी देखभाल करना मेरा काम हैं
  • मैंने रोटी बनाई
  • मैं इन्द्रियों से ज्ञान करता हुँ
  • शरीर, स्त्री, पुत्र आदि संयोग मुझे सुखी कर सकते हैं

२. अजीव तत्त्व :

अजीव स्पर्श-रस-गंध-वर्ण आदि गुण वाला हैं, उसे वैसा न मानकर अन्यथा श्रद्धान करना वह अजीव तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।

  • शरीर में ज्ञान हैं
  • शरीर के उपजने से जीव का जन्म मानना और उसके नाश से जीव का नाश मानना
  • संयोगो में सुख मानना

३. आस्त्रव तत्त्व:

आस्त्रव हेय हैं, दुःख देने वाला हैं, उसमें सुखबुद्धि या विपरीत मान्यता ही आस्त्रव तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं। जैसे -

  • शुभ राग में धर्म मानना
  • पाप भावो से भयभीत न होके पाप करना
  • विषयों और भोगों में सुख भासित होना
  • इच्छा की पूर्ति में सुख मानना

४. बंध तत्त्व :

पुण्य-पाप का उदय जीव को सुखी-दुखी नहीं करता, शुभ-अशुभ कर्म बंध दोनों हानिकारक हैं, इससे विपरीत श्रद्धा करना बंध तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।

  • पर में सुखबुद्धि करना
  • पुण्य के उदय में अपने आप को सुखी मानना और पाप में दुःखी
  • शुभ कर्म और अशभ कर्म दोनों स्वर्ण-लोहे की बेड़ी समान हैं, दोनों बंध रूप हैं

५. संवर तत्त्व:

आत्मज्ञान और उसके सहित का वैराग्य संवर हैं जो सुखदायी हैं, पर उसे दुखदायी मानना संवर तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं।

  • ज्ञानी संयमी जीव को दुःखी मानना
  • त्याग आदि क्रिया में सुख न मानकर परिग्रह में सुख मानना

६. निर्जरा तत्त्व:

आत्मज्ञान पूर्वक इच्छा का अभाव वह ही सुख का स्त्रोत हैं, वह कारण हैं निर्जरा का, ऐसा न मानकर इच्छा की पूर्ति में सुख मानना निर्जरा तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं

  • पर में कर्तापन का भाव होने से इच्छा होना
  • इच्छा की पूर्ति में सुख और जब तक पूर्ति न हो तब तक आकुलता होना, पर फिर भी वह सुखाभास को सच्चा सुख मानना
  • दिगम्बर निर्दोष चरित्र धर्म और तप से निर्जरा होना न मानना

७. मोक्ष तत्त्व:

अनंत निराकुल सुख मोक्ष दशा में ही हैं, बाकी कही नहीं; ऐसा श्रद्धान न होना मोक्ष तत्त्व सम्बन्धी भूल हैं

  • मोक्ष में अनंत सुख होगा की नहीं ? ऐसी शंका होना
  • वाणी से तो 'मोक्ष में अनंत सुख हैं ऐसा बोलना' पर रात-दिन सिर्फ भोगों से ही सुख प्राप्त करने की चेष्टा करना

इस प्रकार हमने सात तत्त्व सम्बन्धी भूल को जाना।

Chapter 4: चार अनुयोग

"प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः।"

  • क्रियाकलाप में समाधिभक्ति

वीतराग-पोषक जैनागम कथन पद्धति की अपेक्षा से चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग

ये चार अनुयोग जिनागम रुपी रथ के चार पहियों की तरह हैं; एक भी पहिया ठीक से न चलता हो तो रथ आगे नहीं बढ़ सकता। सभी अनुयोग की न्यारी शैली हैं, पद्धति हैं, उसे यथायोग्य सम्यक ग्रहण करके जिनवाणी के चारों अनुयोग का अध्यन कोई भी पक्ष-पात बिना करना चाहिए।

अब हम प्रत्येक अनुयोग की विषय वस्तु को संक्षिप्त में जानेंगे -

प्रथमानुयोग

  • ६३ शलाका पुरुष की जीवनगाथा
  • जीवंधर स्वामी, जम्बू स्वामी आदि महापुरुषों का जीवनचरित्र
  • रक्षाबंधन, श्रुत-पंचमी, वीरशासन जयंती, दीपाली आदि घटनाओ का वर्णन

करणानुयोग

  • लोक के स्वरुप, काल चक्र, चार गति का वर्णन
  • कर्म की अवस्थाएँ, गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि
  • जीव आदि ६ द्रव्यों का सुक्ष्म वर्णन

चरणानुयोग

  • श्रावक, व्रती और मुनि सभी के पालन करने योग्य चरित्र का निर्देशन
  • ८ मूलगुण, ६ आवश्यक, ८ अंग, ३ मूढ़ता आदि का वर्णन
  • समिति, गुप्ति, धर्म, षोडषकारण भावना आदि

द्रव्यानुयोग

  • जीव अजीव ७ तत्त्व का वर्णन
  • बंध-मोक्ष तथा भावश्रुतरूपी प्रकाश का विस्तार

Chapter 5: तीन लोक

तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता ।

शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकैं॥

तीन लोक में उत्तम वस्तु, आनंद-स्वरुप और मोक्ष के कारण राग-द्वेष रहित केवलज्ञान को तीन योग को सम्हाल कर नमस्कार करता हुँ।

  • छहढाला मंगलाचरण, प. दौलतरामजी

समस्त तीन लोक में जो सारभूत ऐसा एक शुद्ध आत्मा ही जीव को आश्रयरूप हैं, और उसके आश्रय से ही मोक्ष की प्राप्ति होती हैं।

जो सिर्फ शुद्धतम का ध्यान करने से ही मुक्ति हैं, तो फिर आचार्यदेव ने हम मंदबुद्धि जीवो के लिए तीन लोक का वर्णन क्यों लिखा? जब तक इस जीव को जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताई बात की रूचि, श्रद्धा न हो तो सम्यक्त्व कैसे हो सकता हैं?

भगवान की दिव्यध्वनि में ३ लोक का वर्णन ऐसा आया हैं, उसे जानकर; हम कहा हैं, गति कौनसी और कहा होती हैं, सिद्ध परमेष्ठी कहा हैं, स्वर्ग-नरक सिर्फ कल्पना तो नहीं, जीव कहा कहा पाए जाते हैं, मनुष्यभव की दुर्लभता कितनी हैं आदि शंकाओ का समाधान होता हैं।

सभी धर्म स्वर्ग-नर्क की बाते करते हैं पर सिर्फ जैन धर्म ही न्याय, तर्क और गणित से उसका सुक्ष्म वर्णन करता हैं। तीन लोक आदि शास्त्र में बताई गयी बातो पर श्रद्धा न हो तो फिर ये तो मोक्षमार्ग तो दूर ये तो केवलज्ञान का अवर्णवाद हैं।

इस लोक में हम कहा हैं?

अनंत आकाश के मध्य में १४ x ७ x ७ राजू का लोक स्थित हैं, जो ३ भागो में बटा हैं - उर्ध्व, मध्य और अधो, उर्ध्व; जिसमे १ x  १ x  १ राजू की त्रस नाड़ी हैं जिसमे त्रस जीव पाए जाते हैं। मध्य लोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, उसके ठीक बीच में ढाई द्वीप हैं जिसमे मनुष्य पाए जाते हैं। पुरा मध्यलोक १ राजू (असंख्यात योजन) विस्तार वाला हैं और ढाई द्वीप सिर्फ ४५ लाख योजन विस्तार वाला। इससे ज्ञात होता हैं कि यह पुरे मध्यलोक का कितना छोटा भाग हैं।

आगे, इस ढाई द्वीप के भी मध्य में जम्बू-द्वीप हैं जो १ लाख योजन विस्तार वाला हैं, जो ६ कुलाचल पर्वत से ७ क्षेत्रो में विभाजित हैं, उसमे से एक क्षेत्र हैं भरतक्षेत्र जो पुरे जम्बूद्वीप का भी १९०वा भाग हैं। उस भरत क्षेत्र में ६ खंड हैं, जिसमे एक आर्यखण्ड हैं और उसका एक छोटा सा भाग हैं जिसको आज लोग 'earth' कहते हैं।

तीन लोक का विस्तार तो बहुत बड़ा हैं, उसे अवश्य हमें रुचिपूर्वक स्वाध्याय में लेना चाहिए और आतम स्वरुप का विचार करना चाहिए। बारह भावना में आता हैना -

लोक स्वरुप विचारिके आतम रूप निहारी

  • प. जयचंद जी कृत बारह भावना

Chapter 6: सात व्यसन

जुआ आमिष मदिरा दारी

आखेट चोरी परनारी

एहि सात व्यसन दुःखदायी

दुरित मूल दुर्गतिके भाई।

दर्वित ये सातों व्यसन, दुराचार दुःखधाम,

भावित अंतर कल्पना, मृषा मोह परिणाम।

  • कविवर बनारसीदास

अध्यात्म और काव्य क्षेत्र में सर्वौच्च कविवर बनारसीदास जी द्वारा उपर्युक्त कुछ मार्मिक पंक्तियाँ हमें सात व्यसन को त्यागने तो दूर, उनका चित्त में विकार आना भी दुःखदायी भासित होता हैं। ये सात व्यसन जीव को परलोक में तो दुःख देनेवाले हैं ही, परन्तु इस लोक में भी अपयश और दुःखी करनेवाले हैं।

असत्प्रवृत्तियों में रति । ये सात होते हैं । उनके नाम है—जुआ, मांस, मद्य, वेश्यागमन, शिकार, चोरी और परस्त्रीगमन । इनमें मद्य, मांस और शिकार क्रोधज तथा जुआ, चोरी, वेश्यागमन और परस्त्रीरमण कामज व्यसन है।

  • महापुराण 59.75, 62.441

ये सात व्यसन का त्याग के बिना पुरुष नामधारी जैन कहलाने के भी लायक नहीं हैं; जिनेन्द्रदेव की पूजा करने, जिनवाणी सुनने और गुरु का योग्य शिष्य बनने का पात्र बनना तो दूर की बात रही।

केवल इतने ही व्यसन नहीं हैं, किंतु दूसरे भी बहुत से हैं । कारण कि अल्पमति पुरुष समीचीन मार्ग को छोड़कर कुत्सित मार्ग में प्रवृत्त हुआ करते हैं

  • पद्मनंदी पंचविंशतिका/1/16, 32

इससे ये ज्ञात होता हैं कि ये व्यसन सिर्फ ७ ही नहीं होते हैं परन्तु जहाँ-जहाँ मोह-कषाय की तीव्रता से जीव न्याय-अन्याय का विचार छोड़कर इन्द्रिय विषय सेवन में धुत्त होता हैं वे सब व्यसन ही हैं। और कितना कहे? वास्तव में निश्चय नय से देखा जाए तो -

१. जुआ - पर में हर्ष-शोक

२. मांस - पर में एकत्व

३. मदिरा - पर में मोहित

४. वेश्यागमन - पर विषय में लीन

५. शिकार - पर में रमकर अपने चैतन्य प्राणों का घात

६. परस्त्रीगमन - पर परिणति में रमने का भाव

७. चोरी - पर को ग्रहण / भोगने का भाव

आज बढ़ती आधुनिकता में जाने-अनजाने में हम इन ७ व्यसन का सेवन करते हैं उनका संक्षिप्त निर्देश -

१. जुआ - Betting apps, games खेलना, Stock market, Lottery

२. मांस - बाजार का खाना मांस भक्षण हैं, veg-nonveg जहा साथ में बनता हो वैसी जगह

३. मदिरा - Movies, Parties में देखकर-जाकर भले ही मुँह से न सेवन करे पर उसके सेवन का भाव करना

४. वेश्यागमन - Online सोशल मीडिया वगेरे internet, movies पर विकारी भाव करना

५. शिकार - Violent movies और games देखना-खेलना और उसमे भाव से हजारों जीवो को मार देना, Zoo, Circus आदि देखना

६. परस्त्रीगमन - Online सोशल मीडिया वगेरे internet, movies पर विकारी भाव करना

७. चोरी - इंटरनेट पर Private information/data को leak करना, किसी और का credit खुद लेकर प्रतिष्ठा पाना

इस प्रकार हमने ७ व्यसन का स्वरुप जानकार उनके अहितकारी होने का भावभासन किया।

Chapter 7: अहिंसा

'अहिंसा', ये शब्द सुनते ही लोग महात्मा गाँधी को याद करते हैं। अभी गर्व से याद करते हैं या नहीं ये तो लोग ही जाने। आज के नवयुवक तो अहिंसा को कायरता से जोड़ते हैं। जब भी जैन धर्म की चर्चा आती हैं तब मुख्यरूप से दुनिया का ध्यान अहिंसा शब्द पे जाता हैं।

पर क्या जैन धर्म की अहिंसा सिर्फ रात्रि-भोजन त्याग और शाकाहारी भोजन पर ही सिमित हैं क्या? सिर्फ कंदमूल न खाना और पटाखे न फोड़ना ही जैन धर्म की अहिंसा हैं क्या?

कितने ही प्रश्न लोग उठाते हैं जैसे -

१. किसीने तुमपे हुम्ला किया तो क्या उसे न मारने में ही तुम्हारा धर्म हैं?

२. जमीन पर, हवा में भी कितने सारे जीव होते हैं, उनकी हिंसा का पाप नहीं लगता क्या?

३. हिरन घास खाता हैं, शेर हिरन को खाता हैं, यही हैं प्रकृति; तो फिर मांस खाने में क्या दोष?

ये सब सवाल चित्त में इसलिए हैं क्योंकि अब तक अहिंसा का सच्चा अर्थ जाना ही नहीं हैं।

आचार्य अमृतचन्द्रदेव पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ में कहते हैं की

रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा हैं

कितनी अद्भुत बात कही हैं! निश्चय से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और बाहर प्रमाद-कषाय वश होकर जीव हिंसा कार्यों में प्रवर्तन करता हैं। और भी अनेक आचार्यों ने उनके रचित शास्त्रों में यही बताया हैं

रागादोणमणुप्पा अहिंसगत्तं त्ति देसिदं समये। तेसिं चे उप्पत्ती हिंसेत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठा।

शास्त्र में यह उपदेश है कि रागादिक का नहीं उत्पन्न होना अहिंसा है। तथा जिनदेव ने उनकी उत्पत्ति को हिंसा कहा है।

  • सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/22/363/10

अहिंसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभावं बिना न संभवति।

धर्म अहिंसा लक्षणवाला है, और वह अहिंसा जीव के शुद्ध भावों के बिना संभव नहीं।

  • परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 2/68

जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो।

जो यह मानता है कि अपने द्वारा मैं (पर) जीवों को दुखी सुखी करता हूँ, वह मूढ (मोही) है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है वह ज्ञानी है।

  • समयसार / 253

उपर्युक्त प्रमाणों से ये स्पष्ट ज्ञात होता हैं कि चैतन्य प्राणों का जो घात करे वह हिंसा हैं। अनादि से मोहरूपी शत्रु इस चेतन का घात कर रहा हैं, और राग-द्वेष रूप विभावो से अनंत दुःख भोग रहा हैं। जब दृष्टि सम्यक होवे तब ही आंशिक अहिंसा प्रगट होती हैं; और पुरुषार्थ से जीव जब वीतराग दशा को प्राप्त होता हैं तब क्योंकि राग आत्मा से अलग हो गया हैं, जीव पूर्ण रूप से अहिंसक हो जाता हैं।

अहिंसा कायरता थोड़ी हैं? ये तो शूरवीरो का कार्य हैं ! अहिंसा कोई मनुष्य या तिर्यंच, जात-पात, बच्चे-बूढ़े से सम्बन्ध थोड़ी रखती हैं? वह तो सभी के लिए एक सामान हैं। राग ही हिंसा हैं, वीतरागता ही अहिंसा हैं, और वीतरागी धर्म ही वास्तव में सच्चा अहिंसक धर्म हैं।

जैन धर्म में सच्चे रूप से अहिंसक बनने का उपदेश हैं। भूमिका अनुसार जितना हो सके उतना बाहर में जीव संयम पालकर अहिंसा भाव रखता हैं। सारा सम्बन्ध पर्याय के राग-द्वेष की तीव्रता का हैं। जितनी-जितनी कषाय का अभाव उतने-उतने प्रमाण में वीतरागता और उतने ही प्रमाण में अहिंसा का पालन।

ये हैं जैन धर्म की महानता का लक्षण। सिद्धांत उसे कहते हैं जो सभी को अपने अंदर समा ले और कोई लक्षणदोष न हो। इस प्रकार, हमने अहिंसा के इस सिद्धांतिक परिभाषा देखकर सत्य रूप से अहिंसा क्या हैं वह जाना। हमे भी पूर्ण अहिंसक बनने की भावना भानी चाहिए

Chapter 8: अष्टाह्निका महापर्व

सरव परव में बड़ो अठाई परव है,

नन्दीश्वर सुर जाहिं लेय वसु दरब है,

हमैं सकति सो नाहिं इहां करि थापना

पूजैं जिनगृह-प्रतिमा है हित आपना।।

मध्यलोक के असंख्यात द्वीप-समुद्रों में कुल ४५८ अकृत्रिम जिनालयों का वर्णन शास्त्रों में पाया जाता हैं। अकृत्रिम अर्थात नैसर्गिक; जो अनादि-अनंत हो, शाश्वत हो ऐसे चैत्यालय इस मध्यलोक में पाए जाते हैं। उनमें से आठवां द्वीप हैं 'नंदीश्वर द्वीप'; जहा ५२ मनोहारी अकृत्रिम चैत्यालय विद्यमान हैं।

देव-गति के जीव इन जिनालयों की पूजन धूमधाम से करते हैं। हम मनुष्यों में तो ऐसी शक्ति नहीं के व्यक्तरूप से वहाँ जाकर पूजन कर सके, परन्तु वहाँ साक्षात ही पूजन कर रहे हो ऐसी उत्तम भावना भाते हैं।

आराधना पाठ में आता हैं न -

"मैं नित अठाई पर्व चाहूँ, महामंगल रीति सों॥"

पर अष्टाह्निका पर्व कब मनाया जाता हैं? तो कहते हैं -

कार्तिक फागुन आषाढ़ के अंत-आठ-दिन माँहि,

नंदीश्वर सुर जात हैं, हम पूजें इह ठांहि ।।

चूँकि नंदीश्वर द्वीप में स्थित जिनालय शाश्वत हैं, त्रैकालिक हैं, इसलिए 'अष्टाह्निका महापर्व' भी शाश्वत पर्व हैं, त्रैकालिक पर्व हैं। इन आठ दिन पूरा जैन समाज धर्मलाभ लेता हैं । जगह-जगह पर विधान होते हैं, विद्वानों द्वारा स्वाध्याय का लाभ मिलता हैं और शक्ति अनुसार व्रत-संयम का भी पालन करते हैं।

इस प्रकार, इस त्रैकालिक महापर्व पर, हम उन अकृत्रिम जिनबिम्ब का स्वरुप लख महा-वैराग्य परिणाम उपजाए; और अपने त्रैकालिक अकृत्रिम द्रव्य-स्वभाव के आश्रय से शाश्वत पद प्राप्त करे ऐसी मंगल भावना।

Chapter 9: भगवान पार्श्वनाथ

हे पार्श्वनाथ ! हे पार्श्वनाथ ! तुमने हमको यह बतलाया,

निज पार्श्वनाथ की स्थिरता से निश्चय सुख होता सिखलाया ।

तुमको पाकर मैं तृप्त हुआ ठुकराऊ जग नई निधि नामी,

हे रविसम स्वपर प्रकाशक प्रभु, मम ह्रदय विराजो हे स्वामी।।

  • श्री पार्श्वनाथ पूजन, ब्र. प. रविंद्र जी आत्मन

भगवान पार्श्वनाथ का पूर्ण जीवन चरित्र विशेष वैराग्य और समता से भरपूर हैं। उनके पूर्वभव के वैरी ने न जाने कितने भवों तक निरंतर कितने सारे उपसर्ग किये, पर आत्मज्ञान और पुरुषार्थ के बल से सदैव समता-भाव की ही धारा उनके ह्रदय में बहती रही। सच में, वैराग्य हो तो ऐसा हो, समता हो तो ऐसी हो, आदर्श हो तो ऐसे हो !

दुःख की बात तो यह हैं कि कालदोष के कारण आज समाज में जब भी 'पार्श्वनाथ' शब्द सुनने में आये तब 'वीतरागी मूरत' के बजाए फन दिखाई देता हैं, कुदेव दिखाई देते हैं और मनोकामना, विघ्नहर्ता आदि मिथ्या-भ्रान्ति सामने आ जाती हैं। कहाँ वे पार्श्वनाथ जो सब कुछ त्याग कर वीतरागी हो गए, और कहाँ ये आजके भक्त जो सांसारिक वांछाओं से अतृप्त भगवान से उनकी पूर्ति मांगते हैं!

एक बार नाग-नागिन को मरते देख कर करुणावश होक णमोकार मंत्र सुनाया था। मंद कषाय परिणाम से वे नाग-नागिन का जोड़ा देवगति में धरणेन्द्र-पद्मावती हुए। ३ ज्ञान के धारक तो वे जन्म से ही थे, और जाति-स्मरण का निमित्त प्राप्त करके उन्होंने महा-कल्याणकारी जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर वन में प्रस्थान किया। उनके पूर्वभव के वैरी ने जब उनपर उपसर्ग किया तब धरणेन्द्र-पद्मावती को रक्षा करनेका विकल्प उत्पन्न हुआ और वे अपनी शक्ति अनुसार उपाय भी करने लगे।

परन्तु वास्तव में देखा जाए तो -

मुनि पार्श्वनाथ की रक्षा का कारण उनकी आत्मा-साधना ही थी।असाता के उदय में संवर नाम के देव ने उपसर्ग किया और उसी समय साता के उदय में धरणेन्द्र-पद्मावती के रक्षा के भाव आना, यह हैं कर्मो की विचित्रता, तीर्थंकर को भी नहीं छोड़ती! और उनको क्या आकुलता जिसने संसार ही छोड़ दिया हो? उपसर्ग तो वास्तव में राग का हैं, वर्षा या पत्थर का नहीं! रक्षा वास्तव में स्व-चतुष्टय में रहने से ही होती हैं, बाहर से तो शरीर की रक्षा हैं! इस निश्चय के साथ-साथ व्यवहार से धरणेन्द्र-पद्मावती के भावों की उपेक्षा नहीं हैं। वे तो अति शुभ भाव थे, कार्य भी उत्तम था; परन्तु ये उन्हें पूजनीय थोड़ी बना देता हैं? पूजनीय तो जिनागम से पंच परमेष्ठी के अतिरिक्त कोई नहीं हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर इस घटना का चिंतवन करना चाहिए।

घोर आत्मसाधना के बाद शीघ्र ही अरिहंत अवस्था प्रगट करके भव्य जीवो को मोक्षमार्ग का उपदेश दिया और अंतिम में अविनाशी सिद्ध पद सम्मेदाचल से प्राप्त हुए; ऐसे देवाधिदेव श्री १००८ पार्श्वनाथ तीर्थंकर की जय हो !

Chapter 10: देव-शास्त्र-गुरु स्तुति

देव-शास्त्र-गुरु के यथार्थ स्वरुप का निशंकित ज्ञान कराना ही वीतराग विज्ञान पाठमाला - २ का एक महत्वपूर्ण उदेश्य जानने में आता हैं, इसीलिए तो १० में से ३ पाठ देव-शास्त्र-गुरु के स्वरुप को प्रकाशित किया गया हैं। प. हुकमचंद जी भारिल्ल द्वारा रचित ये पद्य स्तुति को इसे देव-शास्त्र-गुरु पूजन की जयमाला के रूप से भी हम जानते हैं।

इस स्तुति की कई विशेषताएँ हैं, उनमें में से कुछ बिंदु -

  • इस स्तुति के मंगलाचरण में परमागमों का उल्लेख सुन्दर रूप से किया हैं

'समयसार' अर्थात शुद्धात्मा = देव

'प्रवचन(सार)' अर्थात जिनेन्द्रदेव की वाणी = शास्त्र

 'नियमसार' अर्थात 'शुद्ध चारित्र' = गुरु

  • 'जगत स्वयं परिणमनशील' कहने से 'क्रमबद्ध पर्याय' का सिद्धांत प्रकाशित होता हैं
  • "बनकर जग का कर्ता अब तक, सत का न प्रभो सन्मान किया" कहने से आत्मा के अकर्ता-स्वाभाव का वर्णन और सत अर्थात वस्तु के स्वरुप का अयथार्थ श्रद्धान को बताया हैं
  • 'राग धर्ममय धर्म रागमय' से अनेक मिथ्या-मतों का खंडन किया हैं जो राग के पोषक हैं; मानो वीतराग धर्म ही सच्चा धर्म हैं ऐसी घोषणा की हो !
  • 'उस वाणी के अंतरतम को जिन गुरुओं ने पहचाना हैं' - सच्चे गुरु वह ही हैं को जिनेन्द्रदेव के वचन विरुद्ध कार्य नहीं करते, उस वाणी के अभिप्राय को अंतर से जानकार ही मोक्षमार्ग में कार्यरत होते हैं; ऐसे सच्चे गुरु को बारम्बार नमस्कार हैं
  • 'दिन रात आत्मा का चिंतवन, मृदु संभाषण में वही कथन' - जिन्हे आत्मा भा गया हैं वह कैसे जग प्रपंचों में उलझे? वे तो निश-दिन आत्मा का ही चिंतवन करते रहते हैं!
  • अंत में परम आराध्य और रत्नत्रय प्राप्ति में परम उपकारी ऐसे देव-शास्त्र-गुरु के चरणों में सदैव नमन हैं -

"'दर्शन' दाता देव हैं, आगम 'सम्यग्ज्ञान',

गुरु 'चरित्र' की खानी हैं, मैं पूजूँ धरी ध्यान'

शाकाहार

१९९१ में समग्र जैन समाज ने 'शाकाहार श्रावकाचार' वर्ष घोषित किया गया था। महान पंडित, कवि, साहित्यकार और समर्थ विद्वान प. हुकमचंदजी भारिल्ल ने उस विषय के सन्दर्भ ने 'शाकाहार' नामक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी। इस लेखनी की विशेषता यह हैं कि न सिर्फ यह तत्व और चरणानुयोग के माध्यम से शाकाहार और श्रावकाचार की प्रेरणा ही दी गयी हैं, परन्तु सामाजिक, सदाचार और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी शाकाहार का प्रचार किया गया हैं।

जितना 'शाकाहार' के प्रचार की प्रेरणा १०-२० साल पहले थी, उससे कई गुणा ज़्यादा आज हैं। जैनी भाई-बंधु भी आज जाने-अनजाने में अभक्ष्य और मांसाहार ग्रहण करते हैं! पश्चिमी संस्कृति का आज हमारी जीवन में ऐसे प्रवेश हो गया हैं कि हमारी सादगी भरी संस्कृति को अपनाना एक बहुत बड़ा बोझा लगता हैं। परन्तु इस पुस्तक के माध्यम से कई तर्क-वितर्क और आगम-अनुकूल उदाहरणों से पाठकों के ह्रदय में मांसाहार से भावनात्मक स्तर पर रसहीन बना दिया हैं ।

महत्वपूर्ण बिंदु यह हैं कि 'शाकाहार' के प्रचार में पंडितजी ने कंदमूल को ग्रहण नहीं किया हैं; 'श्रावकाचार' शब्द की महत्ता इस योजना में बढ़ जाती हैं।

शाकाहार में निम्न बिंदुओ को समावेश कर बहुत ही स्पष्ट और प्रतीतिकारक शब्दों से सभी को शाकाहार की प्रेरणा दी गयी हैं -

  • जिसमे तरस जीवों का घात होता हो वह मांस भक्षण हैं और उससे बचना चाहिए। मदिरा, मांस, मध आदि इसमें गर्भित किये हैं
  • इस उपरांत आजकल फैशन आदि में लिपस्टिक, कास्मेटिक आदि जो हैं वे भी इसमें अंतर्गत हैं
  • बाजार की वस्तुएँ भी अभक्ष्य हैं और उनमे त्रस जीवो ही हिंसा हैं; और उनके त्याग की बात की गयी हैं
  • मांस भक्षण से होनेवाली भयंकर बीमारीओं की भी चर्चा की गयी हैं
  • न सिर्फ इतना, आजकल कुतर्की लोगो की बातो में सीधे जैन सधर्मी न आ जावे इसलिए 'अंडे वेजीटेरियन हैं', 'दूध पीना या नहीं', 'मांस स्वस्थ्य के लिए हितकारी या हानिकारक?' ऐसे विषयो पर भी प्रकाश डाला हैं
  • रात्रिभोजन त्याग, छाना हुआ जल, ५ प्रकार के अभक्ष्य आदि को भी श्रावकाचार में बताया गया हैं
  • जीव हिंसा के दोष, अहिंसक आहार क्या होता हैं और तत्व सम्बन्धी विषयों को भी इस पुस्तक में सुन्दर रूप से दर्शाया गया हैं

जब तक स्थूल हिंसा से न छूटे तब तक तत्त्व समझने और सूक्ष्म हिंसा त्यागने की योग्यता ही उत्पन्न नहीं होती हैं। सम्यक्त्व की पात्रता उत्पन्न करना प्रत्येक मुमुक्षु श्रावक का परम कर्त्तव्य हैं। जब तक अभक्ष्य का त्याग न हो तब तक तो यह जीव सम्यग्दर्शन से सागरों दूर हैं।

इसीलिए, हमें भी शाकाहार का चुस्त पालन करना चाहिए, हमारे सभी साधर्मी भाई-बंधुओ को इस मार्ग में अवश्य स्थितिकरण करना चाहिए और जन-जन तक महावीर भगवान की शिक्षा पहुँचानी चाहिए।