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बारह भावना (भोर की स्वर्णिम छटा…)

Introduction

भावना भवनाशिनी हैं या भववर्द्धिनी ये तो उस पर निर्भर हैं के हम किसकी भावना भा रहे हैं। हम संसार से अभी तक क्यों नहीं छूटे इसका उत्तर हमारी अनादि से भाई हुई संसार बढ़ाने वाली भावना ही हैं। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के उपकार से संसार में दुःख और मोक्ष में सुख का निर्णय हुआ, तो फिर वह आत्मार्थी अब संसार के गीत क्यों गावेगा? आत्मार्थी को तो भवनाशनहारी, वैराग्य और समता की जननी, सुखदायक बारह भावना का ही चिंतन निरंतर रहता हैं। ये बारह अनुप्रेक्षाएँ संसार से वैराग्य उत्पन्न करके अपने परम शरणभूत ध्रुव शुद्ध आत्मा में ही लीन होने का उद्यम कराती हैं। आत्मा में ही सच्चा सुख हैं, शांति हैं; शायद इसलिए इन बारह भावना को मोक्षार्थी का प्रिय मानसिक भोजन भी कहा गया हैं। अपितु बारह भावना का निरंतर चिंतन तो धन्य मुनिराज भगवंत ही करते हैं, पर निचली भूमिका के ध्रुवार्थी जीव भी इन भावनाओं को भाकर मोक्षमार्ग में आगे बढ़ सकते हैं। यह बारह भावना वैराग्यमयी तो हैं, परन्तु इनका सम्यक चिंतन न हो, स्वरुप ख्याल न हो तो यह द्वेष, क्लेश, दुःख, आदि उत्पन्न करनेवाली भासित हो सकती हैं। वास्तव में, वैराग्य तो पर से भिन्न स्व का लक्ष्य कराता हैं।

जैन साहित्य में आचार्य, विद्वान, कवि आदि सभी धर्मात्मा जीवों ने कही न कही किसी रूप में बारह भावना प्रस्तुत की हैं। इन्ही की श्रंखला में डॉ. प. हुकमचंदजी भारिल्ल जी द्वारा रचयित बारह भावना के ऊपर संक्षिप्त में कुछ चर्चा प्रस्तुत करते हैं। ये रचना की विशेषता ये हैं के इसमें सभी भावनाओं में आत्मा आराधना को अग्र रखकर बात प्रस्तुत की हैं।

बारह भावना को देखा जाए तो २ भागो में विभाजित किया जा सकता हैं। १-६ भावना वैराग्यप्रेरक हैं जो रत्नत्रय उत्पन्न हेतु भाव-भूमि को उपजाऊ करती हैं और ७ से १२ भावना तत्त्वप्रेरक हैं जो उनमे बीज बोकर, वृद्धि कराकर अंत में मोक्षरूप स्वाभाविक दशा में फलीभूत करती हैं।

कोई पूछे के “सर्व प्रकार के बारह भावना के चिंतन का सार क्या हैं”? तो कहते हैं - “ध्रुवधाम की आराधना ही आराधना का सार हैं”, ये पंक्ति आपको सभी भावना के छंद के अंत में प्राप्त होगी।

अनित्य भावना

  • जग में कुछ भी नित्य नहीं हैं - शुद्धात्मा ही नित्य हैं
  • पर्याय का स्वरुप ही बदलना हैं - द्रव्य का स्वरुप नित्यता हैं
  • अपने को पर्याय-मात्र देखकर जीव दुःखी होता हैं
  • अनिष्ट संयोग और इष्ट वियोग से दुखी न होकर वस्तु की अनित्यता का चिंतन करना चाहिए

अनित्य भावना में संयोगो की अनित्यता दर्शाई जाती हैं। यह मनुष्यभव भी एक न एक दिन पूरा हो जाएगा; इसलिए उससे पहले के ये शरीर बता दे के मैं अनित्य हूँ, इससे भेदविज्ञान करके नित्य अपना ध्रुवधाम भगवान आत्मा की आराधना कर लेनी चाहिए।

अशरण भावना

  • जो डूबती हुई नाव का नाविक ही आपको मजधार में डूबा दे तो फिर इस संसार में कौन किसको शरण दे सकता हैं?
  • पर्याय को बदलने में कौन समर्थ हैं? पर्याय को टकाने की शक्ति किसमें हैं?
  • जब इस जीव की आयु का क्षय हो जानेवाला हो तो कौन इस जीव को बचाने में सक्षम हैं? आयु बाकी हो तो कौन इसे मार सके? जन्म मरण दोनों अशरण ही हैं
  • असहाय भावना भी इसे कहते हैं
  • एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को शरण देने, कुछ सुधार-बिगाड़ करने में समर्थ नहीं हैं
  • कोई बचाता नहीं हैं ऐसा नहीं हैं; कोई बचा नहीं सकता हैं ऐसा हैं
  • व्यवहार से ५ परमेष्ठी और निश्चय से एक शुद्धात्मा ही शरणभूत हैं
  • संयोग अशरणभूत - ध्रुवधाम शरणभूत
  • पर्याय नाशवंत - पर्याय शाश्वत

संसार भावना

  • विकारी भाव = संसार
  • ४ गति में परिभ्रमण = संसार
  • भ्रमरोग के वश से भव भव में परिभ्रमण = संसार का आधार
  • संयोग दंद फंद - आत्मा आनंद कंद
  • संसार में से सुख मिलना असम्भव हैं
  • जो संसार में सुख होता तो तीर्थंकर आदि महापुरुष इसे क्यों त्यागते?
  • जीव संसार में नहीं, जीव में संसार हैं - पुरुषार्थ से जीव मोक्ष अवस्था प्राप्त कर सकता हैं
  • संसार आसार - निज आत्मा सार
  • संसार का पर्यायवाची दुःख - आत्मा सुखमय
  • संसार पर्याय में हैं - निज आत्मा में नहीं

एकत्व भावना

  • एकत्व वस्तु का स्वरुप हैं, सभी वस्तु अपन स्वचतुष्टय में रहती हैं
  • एक अपने से अन्य सभी द्रव्य न मेरे कभी थे न कभी हो सकते हैं
  • संयोग सर्वत्र हैं इस लोक में पर साथ देनेवाला अर्थात सहयोग करने वाला कोई नहीं हैं
  • एकत्व को जो नकारे - बहिरात्मा, पहिचाने वह अंतरात्मा और जम जावे वह परमात्मा
  • एकत्व दुखमय तभी लगता हैं जब अन्य से सुख की कांक्षा हो, सुखमय तब लगता हैं जब स्वयं का स्वरुप ख्याल में हो
  • व्यवहार में भले अकेले रहने में दुःख आदि बताये जाते हो पर निश्चय से एकत्व ही एक सत्य हैं, सुन्दर हैं और शान्ति का स्थान हैं

अन्यत्व भावना

  • देह ही जब आत्मा से अन्य हैं तो फिर सभी दूसरे संयोग कैसे मेरे हो सकते हैं?
  • आत्मा में उतपन्न होने वाली विभावरूप पर्याय भी मेरी कैसे हो सकते हैं? शुद्ध भावरूप पर्याय भी मेरे ध्रुव स्वभाव से अन्य हैं!
  • सर्व प्रकार के भेद-प्रभेद से भिन्न मेरा अभेद स्वरुप हैं ऐसा अन्यत्व भावना का मूल सार हैं

अशुचि भावना

  • शरीर का स्वरुप महा अशुचिमय हैं, यह जीव इसमें प्रीति अज्ञानवश, मोहवश होकर ही करता हैं
  • देह तो जड़रूप हैं, पर हैं, उसका स्वरुप जानकर रागद्वेष न करके - शौच स्वभावी भगवान आत्मा को भिन्न जानना चाहिए
  • इस शरीर से आज तक कोई संतुष्ट हो पाया हैं क्या? इसलिए तो सुख की खोज में यह देह का पुजारी सिर्फ अपनी ही नहीं अन्य देहों को देखकर, भोगकर सुख होना चाहता हैं - पर सभी उपाय व्यर्थ हो जाते हैं।
  • इसके पोषण करने में आयी सभी चीजे अशुद्धता को प्राप्त हो जाती हैं; चाहे वह भोजन हो या हमारा उपयोग
  • देह में एकत्व ही संसार का आधार हैं
  • देह का स्वभाव मलिन हैं, इस मलिनता में रचपच कर इस जीव की परिणति भी मलिन हो गयी हैं। चूँकि जीव का वास्तविक स्वभाव तो शुद्ध ही हैं, स्व की दृष्टि करके उसमे लीन होने से वह स्वभावरूप शुद्धता को प्राप्त कर सकता हैं और यही इस भावना का सार हैं

आस्रव भावना

  • आस्रव दुःखरूप हैं ऐसा चिंतन आस्रव भावना हैं
  • आत्मा और आस्रव का भेदविज्ञान जरूरी हैं
  • इस भेद से अपरिचित बहिरात्मा हैं, पहिचानने वाला अंतरात्मा और जमने वाला परमात्मा हैं
  • पाप तो हेय हैं ही पर पुण्य भी आस्रव होने से हेय ही हैं
  • विकारी भावों से भिन्न शुद्धात्मा का चिंतन मनन ही आस्रव भावना हैं
  • आस्रव भावना का चिंतन संवर तत्त्व हैं, आस्रव तत्त्व नहीं
  • शुभाशुभ भाव हेय - शुद्ध आत्मा उपादेय

संवर भावना

  • आत्मा प्रभावों से भिन्न हैं, पर्याय और गुणभेदों से रहित हैं, ऐसे साधक की साधना का एकमात्र आधार सहजानंदी स्वरुप का चिंतन ही संवर भावना हैं
  • शुद्धात्मा की रूचि संवर हैं
  • “मैं स्वयं भगवान हूँ” ऐसा अनुपम चिंतन ही संवर भावना हैं
  • संवर भावना कारण हैं और संवर कार्य हैं
  • संवर भावना भेदविज्ञानरूप वीतराग परिणाम का नाम हैं
  • आस्रव के निरोध से संवर प्रगट होता हैं
  • संवर मोह-राग-द्वेष आदि परिणमन के अभावरूप रत्नत्रयरुपी होने से सुखमय हैं और यही मोक्ष का मार्ग हैं इसलिए संवर सुख का कारण भी हैं
  • इस शुद्धात्म तत्त्व से ही श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र और ध्यान सम्यक होते हैं
  • अनादि से यही बात की सच्ची स्वीकृति नहीं हुई के यह शुद्ध स्वभाव ही एकमात्र आधार हैं; इसका अनुसरण करने वाले विवेकी जीव सचमे धन्य हैं

निर्जरा भावना

  • शुद्धात्मा की साधना निर्जरा हैं
  • ममता रहित दशा का नाम निर्जरा हैं
  • यह निर्जरा सुखदायक हैं, वैराग्यजननी हैं और मोक्ष को प्राप्त कराने वाली हैं
  • सविपाक निर्जरा निरर्थक हैं, निज आत्मा के ज्ञान सहित अविपाक निर्जरा ही वास्तव में निर्जरा भावना हैं
  • निर्जरा संवरपूर्वक होती हैं और निर्जरा की पूर्णता ही मोक्ष हैं
  • शुद्धोपयोग से युक्त १२ प्रकार के तप आदि निर्जरा के साधन हैं
  • निर्जरा मोक्षमार्ग हैं और इसी दिशा में बढ़ने का भाव निर्जरा भावना हैं

लोक भावना

  • समता के बिना यह जीव ४ गतिरूपी लोक में भ्रमण कर रहा हैं
  • लोक में सुख नहीं हैं, सुख तो इस लोक जिसके ज्ञान में झलकता हैं उसमे हैं
  • लोक में कुछ सार नहीं हैं, सार सिर्फ अपना भगवान आत्मा हैं
  • यह लोक में सभी द्रव्य अनादिनिधन हैं, शाश्वत हैं - अर्थात मैं भी अनादिनिधन वस्तु हूँ, अविनाशी तत्त्व हूँ
  • लोकस्वरूप विचारिके आतम रूप निहारि
  • इसलिए आत्मा ही वास्तव में लोक हैं और स्वलोक में लीन होने से ही सच्चे सुख की प्राप्ति होती हैं
  • इसप्रकार से लोक के स्वरुप का स्वात्मलक्षी सम्यक चिंतन ही लोक भावना हैं

बोधिदुर्लभ भावना

  • पंचेन्द्रिय भोगों का मिलना सुलभ हैं, आत्मा को जानना ही महादुर्लभ हैं
  • सर्व प्रकार से इस नरभव को सफल करने का अवसर प्राप्त करना अति दुर्लभ हैं। इसमें भी आत्मा की साधना सबसे दुर्लभ हैं, क्योंकि इसे सिर्फ पुरुषार्थवंत जीव ही कर पाते हैं
  • इस रत्नत्रय को दुर्लभ जानकर उसका आदर करना योग्य हैं क्योंकि वह हमारा ध्येय हैं
  • पर जिसे जानना महादुर्लभ कहा हैं, वह तो मैं ही हूँ; किसी अन्य की आवश्यकता ही नहीं हैं तो वह कैसे दुर्लभ हो सकता हैं? इसलिए देखा जाए तो मोक्ष अवस्था प्रगट करना सबसे सुगम कार्य हैं
  • निज तत्त्व को जानना ही इस बोधिदुर्लभ भावना का मर्म हैं

धर्म भावना

  • अपने आत्मा को जानना, पहिचानना, साधना और आराधना ही धर्म हैं
  • कल्पवृक्ष आदि से याचना किये बिना कुछ प्राप्ति नहीं हो सकती और धर्मरुपी चिंतामणि के आश्रय से याचनावृत्ति का ही नाश हो जाता हैं और स्वाभाविक सुख उत्पन्न होता हैं - इसलिए मांगने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
  • सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्र ही धर्म हैं ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं
  • धर्म वस्तु का स्वरुप हैं इसलिए निश्चय से दर्शन ज्ञान आदि अनंत गुण ही आत्मा के धर्म निश्चय से हैं और व्यवहार से दया क्षमा आदि कहे जाते हैं। पर सच्चा सुख तो निश्चय धर्म से ही हैं। व्यवहार शुभ भाव आदि को धर्म मानना जिनमत में मिथ्यात्व कहा हैं।

बारह भावना के उपसंहाररूप अंत में पंडितजी यह भाव प्रस्तुत करते हैं कि -

शुद्धात्मा की साधना ही अध्यात्म का आधार हैं
शुद्धात्मा की भावना ही भावना का सार हैं
वैराग्यजननी भावना बस एक ही आधार हैं
ध्रुवधाम की आराधना ही आराधना का सार हैं