राम कहानी
विराजै ‘रामायण’ घट माँहि,
मर्मी होय मर्म सो जाने, मुर्ख माने नहीं,
विराजै ‘रामायण’ घट माँहि।
सच ही हैं, जो मर्मी हैं वह ही भीतर बिराजमान आतम राम का मर्म जान सकता हैं, मुर्ख तो मोहवश उसे मानने से इनकार ही करेगा।
“रामायण” को कौन नहीं जानता हैं? समस्त भारतवर्ष में मुख्यतः सभी धार्मिक दर्शन में “राम” के पात्र को एक आदर्श के रूप में निर्विवादरूप से स्वीकारा गया हैं। उनके जीवन चरित्र से हमें कितनी ही अच्छी बाते सिखने को मिलती हैं - एक आदर्श राजा, एक आदर्श पुत्र, एक आदर्श पति, एक आदर्श भाई आदि अनेक अनेक बाते हैं।
प्रश्न हैं के क्या रामायण सिर्फ इतने तक सिमित हैं? सिर्फ रामचंद्र जी का जीवन चरित्र हमे लोक व्यवहार में आदर्श होने में ही कार्यकारी हैं? इस उपरान्त, लोक में रामायण के तो कितने ही भिन्न भिन्न और परस्पर विरोध रखते हुए अनेक ग्रंथ व पुराण प्राप्त होते हैं। तो किसे सत्य माना जाए?
सत्य तो वीतराग सर्वज्ञदेव द्वारा प्रकाशित तत्त्व को ही मानना। सत्य तो द्वादशांगमयी स्याद्वादमयी परस्पर विरुद्ध रहित अनुलंघ्य ऐसी जिनवाणी माँ की बात को ही मानना। सत्य तो सत्यमहाव्रत धारी, आत्मानंद को पिने वाले, महा तप ध्यान को धारण करे हुए हैं ऐसे दिगंबर जैन संतो की वाणी को ही मानना उचित हैं।
अन्य पाखंडी, लोभी, मिथ्याद्रष्टिओ की बात को मानना उचित नहीं क्योंकि न तो वह जीव का वीतराग-विज्ञानरूप प्रयोजन सिद्ध करनेवाला हैं न तो उनकी बातों पर विश्वास करने योग्य कोई ख़ास तर्क प्राप्त होता हैं। इसलिए सिर्फ सच्चे देव शास्त्र गुरु की बात को ही सत्य मानना।
आचार्य रविषेण स्वामी ने ६-७ शताब्दी में हम जीवों पर अनंत करुणावश “पद्मपुराण” अर्थात जैन रामायण की रचना करके पूर्व में चली आ रही रामायण के विषय में मिथ्या कल्पना और मान्यता का खंडन किया हैं।
पद्मपुराण प्रथमानुयोग का ग्रंथ हैं। “प्रथमानुयोग” में “प्रथम” शब्द “अव्युत्पन्न” अर्थ ात (जिसका किसी विज्ञान या शास्त्र में अच्छा प्रवेश हो) मिथ्यादृष्टि को सूचित करता हैं। जिसका अभी तक कोई भी शास्त्र-तत्व में प्रवेश रूचि आदि नहीं हुई हैं उसके लिए प्रथमानुयोग ग्रंथ उन्हें वीतरागता और वैराग्य का पोषण करके मोक्षमार्ग में प्रवेश करवाता हैं।
प्रथमानुयोग में जो कथाएँ हैं वो तो वैसी की तैसी जानना और जो प्रसंग हैं वह कही कही तो जैसी की तैसी हैं; और कही ग्रंथकर्ता के विचार अनुसार होते हैं पर प्रयोजन अन्य नहीं हैं
- मोक्षमार्ग प्रकाशक - अधिकार ८
इससे यह सिद्ध होता हैं के राम कहानी का प्रयोजन कोई लोक व्यवहार सिखाने तक सिमित नहीं हैं; अपितु इसका मुख्य प्रयोजन तो महापुरुष की गाथा से वैराग्य और वीतरागता का पोषण करना ही हैं। जैन रामायण की यही विशेषता हैं।
उसमे भी आज की व्यस्थ जीवनशैली की वजह से पुराण ग्रंथो को पूर्ण पढ़ना न बने तो उसके लिए “राम कहानी” जैसी पुस्तक अति कार्यकारी सिद्ध होती हैं। डॉ शुद्धात्मप्रभा जी द्वारा रचित इस पुस्तक में पुरे पद्मपुराण का सार समाहित किया गया हैं।
चलिए अब हम इस “राम कहानी” के आधार कौनसी परिस्थिति से क्या-क्या बोध मिलता हैं वह देखते हैं:
१. राम, सीता और लक्षमण जी का वनवास
बलभद्र राम का पात्र अपने आप में बहुत प्रेरणादायी हैं। आत्मज्ञानी जीवो का जीवन आदर्श ही होता हैं। पिता के एक आवाज़ पे उन्होंने राज पाठ का मोह छोड़कर वनवास की ओर चल पड़े। पिता की और कुल की प्रतिष्ठा का ध्यान रखने के लिए उन्होंने ऐसा कठोर फैसला अत्यंत आसानी से ले लिया। उनको वस्तु-व्यवस्था का ज्ञान था, परद्रव्य में सुखबुद्धि नहीं थी इसलिए बहुत ही सरलता से परिस्थति का स्वीकार किया। उनके भाई लक्ष्मण का भी उनको उतना ही सहयोग प्राप्त हुआ। सीता जी भी अपने पति के सुख दुःख में भागीदार बनती एक विकल्प भी न करते हुए वन की ओ र चल पड़ी! कैसी अद्भुत तत्वश्रद्धा होगी!
वनवास में भी अनेक परिस्थिति का सामना करना पड़ा होगा न? पर उसे भी सहजता से स्वीकार करते हुए उन परिस्थिति का सामना किया।
२. राजा इंद्र की दीक्षा
राजा इंद्र जिनको कोई भी हराने में समर्थ नहीं था, जिनके आगे सभी राजा आधीन थे, जिसने लंका पर राज्य किया था और जो रावण के पूर्वजो को कष्ट देने के कारण रावण का प्रबल शत्रु भी था वह भी रावण से पराजय को प्राप्त हुआ। रावण जब उसे अपने पूर्वज के समक्ष ले गया और फिर उसे हांसी करके माफ़ कर दिया और राज्य भी दिया। इससे राजा इंद्र को बहुत लज्जा महसूस हुई। जिस राज्य आदि के लिए इतने वर्ष मान किया वह एक क्षण में लूट गया और उस राज्यपने की उसकी हांसी हो गयी? इससे उन्हें वैराग्य आया और घोर तप करके मोक्ष को प्राप्त हुए!
३. राजा चंद्रगति की दीक्षा
भामण्डल जो सीता पर मोहित था, उसके पिता चंद्रगति विद्याधर ने उ सके पुत्र के लिए जो चाहा वह करके सीता को भामण्डल को वरे ऐसी योजना करी। जातिस्मरण से जब ज्ञात हुआ की भामण्डल और सीता दोनों जुड़वाँ भाई बहन हैं तब उनको इस संसार के भोगो का स्वरुप क्या हैं उसका भान हुआ और दीक्षा धारण करि।
४. बालि मुनिराज पर रावण का उपसर्ग
बालि राजा दशानन की आज्ञा भंग करने लगा और उसे हारने की चेष्टा रखता था। पर उसे किसी निमित्त से वैराग्य हो गया और वे महामुनिराज बन गए। बालि मुनिराज कैलाश पर्वत पर तप कर रहे थे तब ऊपर से रावण का विमान जा रहा था वह रुक गया। रावण निचे आया और बालि मुनि पर पर्वत उठाकर फेकने का उपसर्ग करने लगा। देखो परिणामों की स्थति - रावण जो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का भक्त था वह भी सच्चे मुनि पर पूर्वाग्रह से क्रोधित होकर उनपर उपसर्ग करने लगा। बालि मुनिराज के अंगूठे को दबाते ही रावण जमीन के अंदर धस्ता गया और उसका मान चूर हो गया और रोने लगा।
५. वैश ्रवण का वैराग्य
वैश्रवण और रावण दोनों मोसेरे भाई थे। युद्धभूमि में ही वैश्रवण को भाई-प्रेम आया और उसने रावण से गले मिलने कहा। रावण ने उसे अपमानित शब्द कहे और उस ही क्षण वैश्रवण का क्रोध फिरसे जल गया। फिरसे शांत हुआ और फिरसे क्रोध आया। युद्ध में हारते ही उसे इस संसार की विचित्रता का ख्याल आया और मोक्षमार्ग में चल पड़ा।
६. पवनंजय और सती अंजना
पवनंजय अंजना पर मोहित था, २ दिन में उनकी शादी थी। अंजना को उसकी सहेली के वार्तालाप से उसे ऐसा संशय हुआ के वह किसी अन्य पुरुष को चाहती हैं। वास्तव में ऐसा नहीं था। इस संशयवश उसने शादी करने पर भी अंजना को २२ साल तक वियोग दिया। जब मिले तब लोक से छिपकर मिले। गर्भवती अंजना कैसे समझाती पवनंजय और उसके घरवालों को के उसके गर्भ में उनके ही कुल का दीपक हैं? पाप के उदय में कोई भी सहायक नहीं होता। संसार अशरण हैं ऐसा निश्चय तो था और इसी सहजता से वह वन में रहने लगी और वहां ही हनुमान का भी जन्म हुआ।
७. भरत का वैराग्य चित्त
अंतरंग में वैराग्यचित्तधारी भरत को अनेक बार दीक्षा लेने का प्रसंग आया था पर किसी न किसी कारणवश उनमे बाधा आ जाती थी। अपनी ही माता जो सबसे अधिक प्रेम करती हैं वह भी मोक्षमार्ग में बाधक हो सकती हैं। अरे एक शुभ-भाव का विकल्प भी संसार का कारण हैं तो फिर और तो क्या कहे? उन्होंने प्रण लिया था के राम के वनवास में मिलने के बाद जब वह राम का मुख फिरसे देखेंगे तब वह दीक्षा धारण करेंगे। जब राम लक्षण और सीता लंका से रावण को जीतकर लौटे तब उन्होंने अन्य विकल्प बिना दीक्षा धारण करि और मोक्ष पद प्राप्त किया।
८. सीता जी की अग्निपरीक्षा
संसार का स्वरुप विचित्र हैं। उत्तम शीलव्रती स्त्री को भी अपने शील का प्रमाण देना पड़ा। पर आत्मज्ञानी सीता जी ने तो यह परिस्थति को क्या मनःस्थिति से जीता होगा उसकी कल्पना कर ना लगभग अशक्य हैं। हमारा लक्ष तो बाहरी परिस्थिति को ठीक करने में लगा रहता हैं और ज्ञानी प्रतिसमय अपने आप को देह से भिन्न अनुभव करते हुए मस्त रहते हैं। उन्हें कर्म सिद्धांत पर पूरा श्रद्धान था के जब तक उनकी आयु का उदय हैं तब तक अग्नि भी उन्हें मार नहीं सकती। उनके शील की जयजयकार तो देवों ने भी की! फिर उन्होंने आर्यिका दीक्षा लेकर वन की ओर चल पड़ी।
९. रावण का मान कषाय
रावण ने सीता जी का हरण तो कर लिया। पर उन्होंने अनंतवीर्य केवली के समवसरण में प्रतिज्ञा ली थी के वह किसी भी अन्य स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध सेवन नहीं करेंगे। तो उन्होंने सीता जी को स्पर्श मात्र भी नहीं किया। उन्होंने बहुत कोशिश की मनाने की पर सीता जी को सिर्फ राम ही इष्ट थे। रावण ने कहा के सीता चाहिए तो युद्ध करके ही ले जाओ। युद्ध के दिनों में ही उनको सीता जी की दुःखद अवस्था देखकर घोर पश्चाताप हुआ के उन्होंने ऐसी कुलीन स्त्री को इतना दुःख दिया, इतने प्रेम युगल को अलग किया, कष्ट दिया। पर मान के वश फिर भी रावण ने सीता को युद्ध के बिना छोड़ने को इनकार किया। अंतिम दिन मंदोदरी ने भी उन्हें सूचित किया के लक्षमण नारायण हैं और राम बलभद्र - और इनकी हाथों आपकी मृत्यु निश्चित हैं फिर भी अपनी प्रतिष्ठा के मान से रावण ने युद्ध करके मृत्यु स्वीकार की, झुक कर जीवन नहीं। ऐसी हैं कषाय की प्रवृत्ति। विनाश काले विपरीत बुद्धि कहो या कषायभावे विपरीत प्रवृत्ति!
१०. राम और लक्ष्मण का प्रेम
लक्षमण जो भूमिगोचरी होते हुए भी एक विद्याधर राजा को हराकर ३ खंड का अधिपति हुआ था, सभी ३ खंड के राजा उसके आधीन थे, वैसा लक्षमण जब सिर्फ एक दैवी कौतुहल के द्वारा भाई राम की मृत्यु का समाचार सुनता हैं तो वह वही अपने प्राण तज देता हैं! कैसी हैं ये शरीर की स्थिति - जिसे तलवार न मार सकी उसे २ शब्द ने मार दिया! राग का स्वरुप तो ऐसा ही हैं।
रामचंद्र जी ने ६ माह तक लक्ष्मण जी का मृत शरीर कंधे पर रखके घूमते रहे। सोचो कैसी स्थिति हुई होगी? राग के उदय में जीव क्या नहीं करता? श्रद्धान और चारित्र में अंतर हैं - श्रद्धान तो देह से भिन्न हु का हैं पर चारित्र से भाई का राग हैं उसके वश बाहरी क्रिया विपरीत हैं।
११. सीता जी के जीव का रामचंद्र जी उपसर्ग
देखो मोह की महिमा! जिस सीता जी ने रामचंद्र जी को जैन धर्म और तत्त्व का बोध दिया, मोक्षमार्ग की साधना की और मरके प्रतिन्द्र हुए - वही जीव पूर्व भव के प्रिय राम जो अभी मुनि अवस्था में हैं उन पर उपसर्ग कर रहा हैं! ऐसा सोच कर के ये भी यहाँ मेरे साथ स्वर्ग में आकर रहे! जीव प्राप्त पर्याय में तन्मय हो जाता हैं। एक बार ये भव गया तो अगले भव में अपना कल्याण करेंगे या कोई करवाएगा ऐसी आशा रखना तो मूर्खता हैं। संसार से छूटना हैं तो अभी ही पुरुषार्थ जगाना योग्य हैं क्योंकि इस प्रसंग से इतना तो स्पष्ट हैं के जीव को अपने कर्म के उदय को ही भोगना पड़ता हैं अन्य कोई सहाय बिगाड़ करने में सक्षम हैं ही नहीं।
इस प्रकार हमने भगवान रामचंद्र के जीवन चरित्र के कुछ प्रेरणादायी प्रसंग को देखा और उस पर चिंतवन किया।
सही ही कहा हैं मोक्षमार्ग प्रकाशक जी में कि - प्रथमानुयोग का अभ्यास जब तत्वज्ञान सहित करे तो यह उदाहरणरूप उपयोगी सिद्ध होता हैं।