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धर्म के दश लक्षण

  • आ. डॉ. प. हुकमचंदजी भारिल्ल

‘धर्म’ शब्द कान पे पढ़ते ही लोगो के मन में पूजा, आरती, माला, कथा आदि का चित्र बन जाता हैं। कुछ लोग तो कहते हैं की ‘धर्म’ अर्थात कर्त्तव्य; और सभी को अपना कर्तव्य निष्ठा से निभाना चाहिए ऐसा उपदेश देते हैं। पर क्या आपको ज्ञात हैं की वास्तव में धर्म किसका नाम हैं?

वस्तुस्वभावत्वार्द्धम:

“वस्तु का स्वभाव धर्म है।”

  • प्रवचनसार (तत्त्वप्रदीपिका)

वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं; जैसे अग्नि का धर्म उष्णता हैं, जल का धर्म शीतलता हैं; वैसे ही आत्मा का धर्म उसका स्वभाव अर्थात अनंत गुण - ज्ञान, दर्शन, सुख आदि हैं।

आत्मा के धर्म / स्वभाव के परिप्रेक्ष में कुछ आगम प्रमाण प्रस्तुत हैं -

अहिंसालक्षणो धर्म:।

“धर्म अहिंसा आदि लक्षण वाला है।”

  • राजवार्तिक

देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवर्हणम् । संसारदु:खत: सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।

जो प्राणियों को संसार के दु:ख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग सुख) में धारण करे उसे धर्म कहते हैं। वह धर्म कर्मों का विनाशक तथा समीचीन है।

  • रत्नकरंड श्रावकाचार

इस प्रकार जिनागम में अनेक जगह पर निश्चय और व्यवहार धर्म की चर्चा की गई हैं। धर्म का लक्षण बताते हुए आचार्य लिखते हैं -

दशलक्ष्मयुत: सोऽयं जिनैर्धर्म: प्रकीर्तित:।

“जिनेंद्र भगवान् ने धर्म को दश लक्षण युक्त कहा है”

  • ज्ञानार्णव

जिनेन्द्र देव ने धर्म को दश लक्षण वाला बताया हैं। मुख्यरूप से यह दश लक्षण धर्म का कथन मुनिराज भगवन्तो की प्रधानता से किया जाता हैं; परन्तु श्रावक को भी इनका अपनी शक्ति और आगम अनुसार सेवन करना चाहिए।

जिनशासन में पर्व ३ प्रकार के बताये गए हैं

१. शाश्वत (त्रैकालिक)

२. सामयिक (तात्कालिक) -> १. व्यक्ति विशेष और २. घटना विशेष

‘दश लक्षण पर्व’ ‘शाश्वत पर्व’ हैं; जो अनादि अनंत काल तक रहने वाला हैं।यह साल में तीन बार आता हैं १. भाद्रपद सुद ५ से १४

२. माह सुद ५ से १४

३. चैत्र सुद ५ से १४

‘धर्म के दश लक्षण’ पुस्तक के रचइता डॉ. प. आदरणीय हुकमचंद जी भारिल्ल हैं; जिन्होंने अपनी अत्यंत सरल, स्पष्ट और तर्कयुक्त शैली से सबको धर्म के वास्तविक स्वरुप का निरूपण किया हैं।

दश लक्षण महापर्व को सही रूप से कैसे मनाना चाहिए और उसको अपने जीवन में कैसे उतारना चाहिए वह इस पुस्तक में बहुत सुन्दर रीती से बताया गया हैं। और कितना कहे? यह पुस्तक की और आ. पंडितजी की बहुत प्रशंसा पूज्य गुरुदेवश्री कांजी स्वामी ने अनेको बार की थी! तो चलिए अब हम भी पंडितजी के शब्दों से देश लक्षण धर्म के विषय को जानने का प्रयत्न करते हैं।

धार्मिक पर्वो का मुख्य प्रयोजन चित्त में वीतराग भाव की वृद्धि करवाना ही हैं। पर्व का अर्थ ‘मंगल काल/अवसर’ होता हैं; जिससे ये ज्ञात होता हैं जब जीव अपने आत्मस्वरूप की प्रतीति पूर्वक वीतरागदशा को प्रगट करता हैं - वही वास्तव में पर्व कहलाता हैं।

चूँकि धर्म वस्तु का स्वभाव हैं; पर्याय में उस स्वभाव का प्रगटपना ही धर्म प्रगट होना कहते हैं। इसलिए -

“धर्म का आधार तिथि नहीं, आत्मा हैं”

आत्मा में उत्पन्न क्रोध मान माया लोभ आदि कषाय रूप विभाव भाव आत्मा के चारित्र गुण की विकारी पर्यायें हैं; और इससे विपरीत इन कषायों का एकदेश/सर्वदेश उपशम/क्षय आत्मा के चारित्र गुण की एकदेश/सर्वदेश शुद्ध पर्याय हैं। इससे यह स्पष्ट हैं कि -

“उत्तम क्षमा आदि दशलक्षण धर्म आत्मा के चारित्र गुण की निर्मल पर्याय का नाम हैं”      

उत्तम शब्द सम्यक्त्व/सम्यग्दशन का सूचक हैं जो धर्म का मूल कहा जाता हैं। सम्यग्दशन बिना इस जीव को सच्चे आत्मा में दश धर्म का प्रगट होना असंभव हैं; क्योंकि सम्यग्दशन होने पर ही तो अनंतानुबंधी कषाय का नाश होता हैं और सम्यक्त्व चारित्र प्रगट होता हैं!

उत्तम क्षमा

क्षमा आत्मा का स्वभाव हैं। यहाँ एक सुन्दर बात बताते हैं कि - मुख्य रूप से ऐसा कहा जाता हैं की क्रोध का उत्पन्न न होना उत्तम क्षमा हैं। पर थोड़ा चिंतन करने पर ज्ञात होता हैं कि उत्तम क्षमा के अभाव में इस जीव को क्रोध होता हैं!

जैसे सूर्य के प्रकाश के अभाव में रात्रि का अन्धकार होता हैं; पर इसका उल्टा - रात्रि के अन्धकार के अभाव में सूर्य का प्रकाश होता हैं ऐसा कहना योग्य नहीं भासित होता;

वैसे ही आत्मा के क्षमा स्वभाव के अभाव में क्रोध होता हैं; पर इसका उल्टा - क्रोध के अभाव में आत्मा का क्षमा स्वभाव प्रगट होता हैं ऐसा कहना निश्चय से योग्य नहीं हैं!

कामभोगबंधन की कथा इस जीव ने अनादि से सुनी हैं; इसलिए ही तो उसे व्यवहार (उल्टा कहकर) से  सीधी बात (निश्चय) का उपदेश दिया जाता हैं!

क्रोध तो आत्मा का विभाव हैं; और विभाव ही निर्बलता हैं - और इस निर्बलता से जीव विवेक शून्य हो जाता हैं, मन वचन और काय से दुसरो को दुःख पहुंचने की चेष्टा करता हैं; और कषाय जो ज़्यादा तीव्र हो तो अपनी जान भी जोखिम में डालकर क्रोध आदि करता हैं, विष खा के भी अपने क्रोध का पोषण करता हैं! क्रोध सामान आत्मा का कोई दूसरा शत्रु नहीं हैं! हिंसा का जनक क्रोध कषाय ही हैं!

पंडितजी कहते हैं कि - क्रोधी जीव अपने सामने कभी नहीं देखता, सिर्फ जिसपर क्रोध आया हो उसको देखता हैं। जो उसकी कोई वीडियो बनवाई जाए तो पता चले कि यह जीव क्रोध की अग्नि में कितना दुखी और मुर्ख बन रहा हैं! और कहते हैं कि कभी कभी परिस्थिति और शक्तिहीनता के कारण वह समय क्रोध दिखाने में व्यक्ति असमर्थ हो तो वह बदला लेने की भावना के साथ उस क्रोध को अपने ह्रदय में स्थान देता हैं और निरंतर वैर भाव के साथ सही समय की राह देखता हैं विष्टा (क्रोध) करने के लिए!

क्रोध कषाय के चार प्रकार हैं - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन

मिथायदृष्टि - सभी का सद्भाव होता हैं

४थे गुणस्थानवर्ती जीव - अनंतानुबंधी क्रोध का अभाव

५वे गुणस्थानवर्ती जीव -  अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यान क्रोध का अभाव

६ठे से १०वे तक (मुनिदशा)- अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध का अभाव

आत्मा की अरुचि ही कषाय का कारण हैं। पण्डितप्रवर टोडरमलजी कहते हैं पर वस्तु में इष्ट-अनिष्टता भासना ही मिथ्यात्व हैं; और मिथ्यात्व के नाश से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता हैं; और आत्मानुभवन के आश्रय से सम्यक्चारित्र प्रगट होता हैं जो अनंतानुबंधी क्रोध को मूल से नाश कर देता हैं; यही तो सच्ची उत्तम क्षमा हैं!

और कहते हैं कि - जिसे आत्मा के दर्शन की रूचि नहीं हैं, चर्चा पसंद नहीं हैं उसे अपने से अनंत क्रोध हैं! और यही तो अनंतानुबंधी क्रोध कषाय हैं! आत्मा के दर्शन के बिना उत्तम क्षमा कैसी? सिर्फ बाह्य अहिंसा के पालन का नाम उत्तम क्षमा नहीं हैं!

अविरत सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, महाव्रती और अरिहंत भगवान की उत्तम क्षमा का परिमाणात्मक भेद हैं, परन्तु गुणात्मक भेद नहीं हैं।

इस प्रकार, उत्तम क्षमा का इतना सुन्दर वर्णन ‘धर्म के दश लक्षण’ पुस्तक में पंडितजी ने किया हैं; उस उत्तम क्षमा धर्म को हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम मार्दव

मार्दव आत्मा का स्वभाव हैं। मान कषाय के अभाव से ही उत्तम मार्दव धर्म प्रगट होता हैं। घमंड, अविनय, अभिमान आदि इसके ही रूप हैं। मानी जीव अपने आप को ऊँचा दिखाना चाहते हैं; अपनी चापलूसी करने वालो को पास में रखता हैं और निरंतर अपना मान पोषता रहता हैं।

प. टोडरमल जी कहते हैं कि इस मान कषाय के कारण अपने को ऊँचा और दुसरो को निचा दिखने की इच्छा करता रहता हैं। अपनी प्रशंसा और दुसरो की निंदा में ही लीन रहता हैं; जो सम्मान आदि न मिले, निंदा हो तो वह दुसरो को भय दिखाता हैं, हिंसा करता हैं, छल कपट करता हैं और मानभंग हो जाए तो तीव्र कषाय से आत्मघात भी कर लेता हैं!

क्रोध और मान दोनों द्वेषरूप कषाय हैं। अब मान का स्वरुप और स्पष्ट करते पंडितजी लिखते हैं कि - जगत में जो निंदा करे उस पर यह क्रोध करता हैं और जो प्रशंसा हो तो मान करता हैं। बात यह हैं की जीव को क्रोध तो बुरा भासित होता हैं और शत्रुता करता हैं; परन्तु मान को तो वह बुरा मानता ही नहीं और उससे मित्रता करके अनंत दुःखी होता हैं! सच ही कहा हैं - प्रशंसा निंदा से अधिक खतरनाक हैं!

‘मानपत्र’ को लोग कितना संभालके रखते हैं, सबको दिखाता हैं; ज्ञानी जीव तो इसे मूर्खता जानते हैं - भला कोई आत्मा के विभाव से प्रीति क्यों करेगा? क्रोधी तो क्रोध के निमित्तो के हटाने की कोशिश करता हैं; और मानी अपने मान को पोषण करने वाले निमित्तो को अपने से दूर नहीं होने देता! कैसा विचित्र हैं यह मान का स्वरुप!

सिर्फ ‘अभिमान’ संज्ञा से ‘मान’ कषाय सिमित नहीं हैं। जो अपने को ऊँचा देखना व अनुभव मान हैं तो अपने को निचा या हीन देखना भी मान हैं! आज के समय में युवा लोग ‘inferiority complex’, ‘imposter syndrome’ आदि अनुभव करते हैं। दुसरो से अपने को कम जान कर दुःखी, चिंतित, हीन भाव लाते हैं और दूसरों की प्रशंसा, भला होते देख जल कर राख हो जाते हैं। ये जलन सिर्फ दूसरों की बढ़ती की नहीं, अपनी हीनता के दुःख की हैं! यही तो हैं अनंतानुबंधी मान कषाय!

जिनागम में मान को ‘मद’ भी कहा हैं और ८ प्रकार में मद (मान उपजाने वाले निमित्त की अपेक्षा से) का वर्णन इस रचना में दिया गया हैं। इसमें एक विचारणीय बात आती हैं कि जैसे दूध लीटर में मापा जाता हैं; वैसे आत्मा में मार्दव धर्म का सद्भाव धन, ज्ञान आदि निमित्तो से नहीं परन्तु मान कषाय कितना विद्यमान हैं उससे मापा जाता हैं। इस प्रकरण में स्वाभिमान को भी मान कषाय की शैली में रखकर अनेक तर्क से सिद्ध किया कि उसके नाम पर भी मान करना छोड़ने योग्य हैं।

अभिमान और दीनता - दोनों में अकड़न हैं और इससे विपरीत मार्दव धर्म का स्वरुप मृदुता हैं, कोमलता हैं।

सो बात की एक बात - जो मान कषाय न करना हो तो ज्ञाता द्रष्टा हो जाओ। अपने को सिद्ध सम देखो! जग के सभी जीव भी सिद्ध हैं, भगवान आत्मा हैं ऐसा देखो! जब तक आत्मा परपदार्थो में अपनापन करेगा तब तक मान कषाय होता रहेगा। मान कषाय तो क्रम से घटता जाएगा, पर मान में उपदेयबुद्धि का त्याग सम्यग्दर्शन होने पर हो जाता हैं।

निज के आश्रय से कषाय छोड़ने नहीं पड़ते, स्वयमेव ही छूट जाते हैं। अरे! जो अपना नहीं हैं ऐसा विभाव क्यों अपना साथ देगा जब हम उससे विपरीत सम्यक स्वभाव का आश्रय ले तब?

इस प्रकार स्व के प्रति मृदुता, पर के प्रति प्रीति-अपनत्व का त्याग ही मान कषाय का नाशक हैं और स्वभावरूप उत्तम मार्दव प्रगटाने का एकमात्र उपाय हैं; उस उत्तम मार्दव धर्म को हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम आर्जव

आर्जव आत्मा का स्वभाव हैं। छल-कपट मायाचार का अभाव और मन-वचन-काय में सरलता उत्तम आर्जव धर्म हैं। माया कषाय से युक्त जीव मन में कुछ रखता हैं, बोलता कुछ हैं और करता कुछ और हैं। मृत्यु भी आ जाये तो भी मायाचारी छोड़ता नहीं हैं। आज लोग मायाचारी को smartness कहते हैं। किसीको छलने वाले आजके समय में लोग जो छला गया उसको मुर्ख होने का दोष देते हैं; और माया कषायी को तो चतुर समझते हैं। ज्ञानी जीव कहते हैं कि -

“चेतन तुम तो चतुर सयाने, कहाँ गई चतुराई ।

रंचक विषयनिके सुखकारण, अविचल ऋद्धि गमाई ।।२ ।।”

  • सुन चेतन इक बात (भजन)

कर्म सिद्धांत का जो जानकार हो उसे पता ही हैं की जो लौकिक कार्यो की पूर्ति और साधन सामग्री प्राप्त होती हैं वह वर्तमान के मायाचार से नहीं परन्तु अपने ही पूर्व में बांधे पुण्य से होती हैं। पंडितजी कहते हैं कि - कार्य सिद्धि के लिए कपट का उपयोग तो निर्बल व्यक्ति करता हैं, जो बलवान होता हैं उसे कार्य सिद्धि के लिए कपट की जरूरत नहीं पड़ती।

मायाचारी जीव हमेशा सशंक रहता हैं कि उसकी चाल की किसीको पता न चल जाए; भला कोई कपटी व्यक्ति से क्यों भरोसा करेगा? सबंध रखना तो दूर की बात है! इससे विपरीत सम्यग्दृष्टि निशंकित होता हैं; क्योंकि वह अपने आर्जव स्वभाव से संयुक्त होता हैं।

मुख्य रूप से माया कषाय के निरूपण में - मन वचन और काय से बताया जाता हैं; परन्तु सूक्ष्मता से देखने पर ज्ञात होता हैं कि सिद्ध भगवान तो मन-वचन-काय से मुक्त हैं क्या उनको आर्जव धर्म नहीं हैं? ऐसे ही, एक इन्द्रिय जीव को मन-वचन-काय का अभाव होता हैं - तो क्या उन्हें मायाचारी नहीं हैं?

निष्कर्ष यह हैं कि आर्जव धर्म का माप माया कषाय से हैं;  इन्द्रिय या मन से नहीं। एक इन्द्रिय जीव का माया कषाय तो केवलज्ञान-गम्य हैं। ‘मन में हो सो वचन उचारए’ पंक्ति का भी सुन्दर विश्लेषण किया हैं और मन को पवित्र बनाने की प्रेरणा दी हैं।

जो माया कषाय को छोड़ना हैं तो आत्मा के सरल शांत स्वभाव का आश्रय लेना पड़ेगा। रागादि आस्रव को दुःखरूप मानना और आत्मा को सुखरूप मानना; पर वस्तु को अपनी इच्छा योग्य परिणमन करवाने का भाव ही कुटिलता हैं और इसके उपाय रूप क्रमबद्ध का श्रद्धान करने से ही वस्तु स्वरुप का निर्णय करना चाहिए।

इस प्रकार उत्तम आर्जव धर्म जो स्वभाव की सरलता के लक्ष्य से उत्पन्न होता हैं, जिससे सारी वक्रता, छल-कपट और मायाचारी का सम्पूर्ण अभाव हैं; उस उत्तम आर्जव धर्म को हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम शौच

शौच आत्मा का स्वभाव हैं। लोभ के अभाव में जो अंतर में पवित्रता का प्रगट होना ही सुखकारी हैं। लोभी जीव सदा ही दुखी होता हैं; उसकी इच्छा की सीमा को कोई नहीं नाप सकता! लोभ वश होकर ही जीव सारे पाप करता हैं - इसलिए तो उसको पाप का बाप कहते हैं!

लोभ करना और जिसका लोभ करना वह दोनों अलग अलग हैं। जिसका ये जीव को लोभ हैं (पैसा, नाम, रूप आदि) वह तो पुण्य के आधीन हैं और इससे विपरीत जो लोभ हैं वह कषाय भाव हैं; आत्मा का विकारी भाव हैं और इससे जीव आकुलित तो होता ही हैं पर साथ में नविन पाप भी बांधता हैं।

आज दुनिया में लोग लोभ को सिर्फ पैसो के साथ जोड़ देते हैं! पर लोभ तो पांचो इन्द्रिय विषयो का होता हैं; उसकी पूर्ति के लिए की गई तीव्र इच्छा ही लोभ हैं! लोभी जीव क्या नहीं करता अपने लोभ को पोषने के लिए? लोभ के चार प्रकार का भी उल्लेख इस पुस्तक में ‘तत्वार्थसार’ शास्त्र आधार से दिया गया हैं।

परमात्मप्रकश ग्रन्थ का आधार से एक अत्यंत सुन्दर उदहारण भी इस पुस्तक में पंडितजी ने दिया हैं जो लोभ के विषयो को त्यागने की प्रेरणा देता हैं।

यहाँ एक और चीज पर ध्यान डोरा हैं और वह हैं ‘प्रेम’। लोग ‘प्रेम’ के नाम पर भगवान से प्रेम करते हैं; अपने प्रियजन, मित्र, परिवार आदि को प्रेम करते हैं ऐसा कहते हैं और उसमे अपने को बहुत बड़े दिल वाले या अपने को भक्त (मीरा बाई जो कृष्ण के प्रेम में अंधी थी या ‘Jesus loves you’)  अनुभवते हैं! पर वास्तव में देखे तो यह आकर्षण लोभ कषाय ही हैं!

स्वर्गादि की वांछा भी लोभ हैं, राग और शुभ भाव भी लोभ हैं! बहुत सूक्ष्म बाते इस प्रकरण में बताये गयी हैं। पूजा, दान, भक्ति आदि भी एक प्रकार से धर्म का लोभ ही हैं; जिसमे उपदेयबुद्धि छोड़ना चाहिए।

निष्कर्ष बस इतना ही हैं की पवित्रता तो स्वभाव के आश्रय से ही प्रगट होती हैं; आत्मा की शुचिता लोभ के अभाव से होती हैं। शरीर तो स्वभाव से ही अपवित्र हैं; उसकी शुद्धि का नाम आज शौच दे दिया हैं। परन्तु शौच धर्म का सम्बन्ध तो आत्मा से हैं; जो अस्नानवर्ती महामुनिराज को उत्तम शौच धर्म होता हैं!

जब पर्याय निज शुद्ध आत्म द्रव्य को स्पर्श करती हैं, उसमे डुबकी लगाती हैं तब ही वह पूर्ण पवित्र हो जाती हैं; और फिर जहा लोभ का अभाव हो गया हैं वहाँ अपवित्रता कैसी? इस प्रकार, उत्तम शौच धर्म को हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम सत्य

सत्य आत्मा का स्वभाव हैं। बाहर में आज मुख्यरूप से सत्यवचन को ही सत्यधर्म

मानकर बैठ जाते हैं। पर सत्यधर्म और सत्यवचन दोनों अलग-अलग हैं। ‘सत’ लक्षण वाला द्रव्य के आश्रय से जो आत्मा में शांति उत्पन्न होती हैं वही सत्यधर्म हैं; उत्तम शब्द जोड़ने पर सम्यक्त्व सहित होना और मिथ्यात्व के अभाव में ये धर्म होता हैं ऐसा सूचित करता हैं।

सत्यवचन को सत्यधर्म मानने में अनेक विरोध आते हैं -

१. सत्यवचन सत्य-अणुव्रती, सत्य-महाव्रती, भाषा समिति और वचन गुप्ति धारी को ही हो सकता हैं; परन्तु सत्यधर्म तो ४थे गुणस्थानवर्ती जीव जो अव्रती हैं; उसको भी होता हैं!

२. वचन जिनको हैं नहीं ऐसे एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय जीव को सत्यधर्म का अभाव कैसे होता हैं यह सिद्ध करना असंभव हो जायेगा

३. सिद्ध भगवान भी वचन से रहित हैं; तो क्या उन्हें उत्तम सत्य धर्म होता?

४. वाणी तो पुद्गल हैं; और धर्म तो आत्मा का स्वभाव हैं - तो फिर वचन कैसे धर्म हो सकता हैं?

इस प्रकार अनेक तर्कों से सिद्ध हुआ की सत्यवचन सत्यधर्म नहीं हैं। वस्तु स्वरुप का यथार्थ श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित का वीतरागभाव ही उत्तम सत्य हैं। इस जगत में असत वस्तु कुछ हैं नहीं; सब सत ही हैं! असत्य तो दृष्टि में हैं। जैसा हैं वैसा जानना सत्य हैं और उसमे राग-द्वेष करना असत्य हैं।

अंतर में विद्यमान ज्ञानानंदस्वभावी त्रिकाली ध्रुव आत्मतत्त्व ही परम सत्य हैं और उसके आश्रय से उत्पन्न ज्ञान, श्रद्धा और वीतराग परिणति ही उत्तम सत्यधर्म हैं।

वस्तुतत्त्व के सम्बन्ध में भी समन्वय अर्थात एकता की स्थापना करते हैं - भला अग्नि को एक पक्ष ठंडा बोले और एक पक्ष गरम बोले तो अग्नि की सत्य स्वभाव पर कोई आंच आती हैं क्या? इसी तरह वस्तु के स्वभाव में समन्वय का कोई स्थान नहीं हैं।

सत्य स्वरुप को जानने की रूचि आज किसको हैं? चमत्कार को नमस्कार हैं आज तो। जो चमत्कारी तत्त्व के सत का अनुभव करता हैं, वही सत्य धर्म को निश्चय से पालता हैं; ऐसे उत्तम सत्य धर्म को हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम संयम

संयम आत्मा का स्वभाव हैं। संयम का अर्थ करते हुए कहते हैं कि ‘संयमन’ ही संयम हैं। भला ये संयमन क्या हैं ? संयमन अर्थात उपयोग को पर-पदार्थ से हटाकर आत्मसन्मुख करना, अपने में जोड़ना और एकाग्र होने का नाम संयम हैं। व्यवहार से पांच व्रतों का धारण होना, क्रोधादि कषायो का निग्रह, ३ दंड का त्याग और ५ इन्द्रिय विषय को जीतना संयम हैं। ‘उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन को सूचित करता हुआ संयम के वृक्ष की जड़ रूप हैं।

अनेक शास्त्रों के प्रमाण देकर पहले तो यह सिद्ध किया कि सम्यक्त्व बिन संयम कार्यकारी नहीं हैं। एक मात्र मनुष्यभव में ही संयम पल सकता हैं, इसलिए इसे रत्न का विशेषण दिया हैं और उसे संभलके रखने को भी कहा हैं। देव लोग भी इस संयम को धारण करने में तरसते हैं! इस प्रकरण में ही देवो और संयमी मनुष्यो के भोग की तुलना करके संयम धारण करने का माहात्म्य प्रगट किया हैं।

संयम सम्यग्दर्शनपूर्वक आत्मा के आश्रय से प्रगट परम पवित्र वीतराग परिणति का नाम हैं।

आगे जाके संयम के दो मुख्य भेद -

१. इन्द्रिय संयम

२. प्राणी संयम

की व्याख्या करते हैं।

इनमे अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के भेद होते हैं। अंतरंग के साथ बहिरंग की व्याप्ति का नियम होता हैं।

प्राणी संयम के प्रकरण में छह काय के जीव रक्षा का भाव होता हैं; वह तो ठीक हैं परन्तु क्या हम अपने को जीव मानते हैं? अनादि से पर की रक्षा से पुण्य बाँधा पर क्या अब तक स्व की रक्षा विभावो से की?

इन्द्रिय संयम के प्रकरण में इन्द्रिय को जीतने की बात की गयी हैं। इन्द्रिय को जीतना इसलिए हैं क्योंकि ये जीव ५चो इन्द्रिय का गुलाम बांके रह गया हैं। जो इन्द्रियों का गुलाम हो वो इंद्र सामान आत्मा को कैसे पहचान सकता हैं? पंडितजी स्पष्ट करते हैं कि इन्द्रिय ज्ञान में निमित्त तो हैं पर यह ज्ञान हैं ही नहीं! क्योंकि ज्ञान तो सम्यक्त्व होने पर ही होता हैं, बाकी सब अज्ञान हैं - मिथ्यात्व हैं।

आत्मा स्व-पर प्रकाशक हैं तो फिर पर जो जानने में क्या दोष?

जानने में दोष नहीं हैं; परन्तु उसमे राग द्वेष करने पर बंध होता हैं। इन्द्रिय ज्ञान आत्मज्ञान में बाधक हैं, साधक नहीं।

आत्मज्ञान ही ज्ञान हैं, शेष सभी अज्ञान,

विश्वशांति का मूल हैं, वीतराग विज्ञान।

  • डॉ भारिल्ल, वीतराग विज्ञान प्रशिक्षण निर्देशिका, मंगलचरण

और कहते हैं कि संयम की सर्वोत्कृष्ट दशा ध्यान हैं। आत्मज्ञान और आत्मध्यान इन्द्रियातीत होता हैं। सच में, जिसे आत्मा भ गया हैं उसे अमर्यादित असंयम का जीवन में स्थान नहीं होता।

‘असंयमित जीवन बिना ब्रेक की गाडी हैं’

  • ब्र. प. रविंद्र जी आत्मन

आत्मा के आश्रय से उत्पन्न जो अंतर-बाह्य उत्तम संयम को हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम तप

तप आत्मा का स्वभाव हैं। इच्छा का निरोध ही तप हैं। रागादि विभावो का त्याग पूर्वक आत्मा में लीन होकर समस्त विकारो पर विजय प्राप्त करना ही तप हैं। ‘उत्तम’ शब्द सम्यग्दर्शन का सूचक हैं। जीव करोडो वर्ष तक भी तप कर ले पर सम्यक्त्व रहित हो तो वह मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।

इस प्रकरण के आरम्भ में ही सम्यक्त्व रहित के तप को मोक्षमार्ग में अकार्यकारी सिद्ध करने के अनेक आगम उल्लेख देकर स्पष्ट किया गया हैं। तप की महिमा बताने वाले भी अनेक पद को भी यहाँ बताया गया हैं। कहते हैं कि तप को तो देव लोग भी चाहते हैं पर कभी कर नहीं पाते! संयम जितना दुर्लभ हैं, वैसा ही दुर्लभ रत्न सामान तप हैं - जिसे तपने से कर्मो की निर्जरा हो जाती हैं और जीव मोक्ष प्राप्त करता हैं।

तप के भेद प्रभेद की चर्चा आगे करते हैं।

१. बहिरंग - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश

२. अंतरंग - प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्ति, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान

इसमें व्यवहार और निश्चय तप को सुन्दर रीती से बताया हैं।

बाह्य तप की विशेष चर्चा कि गयी हैं और निष्कर्ष रूप शुद्धोपयोग बढे उसके लिए ही बहिरंग तप कार्यकारी हैं। ज्ञानी कोई रिकॉर्ड तोड़ने के लिए तप नहीं करते। आज हम ऐसी होड़ को तो देखते ही हैं जो उपवास आदि के रिकॉर्ड बनाते हैं और लोग इन लोगो को महा तपस्वी कह देते हैं - परन्तु वास्तव में वे मान का पोषण करते हो तो ये सब तप कोई काम का नहीं!

अंतरंग तप के प्रकरण में भी एक एक तप को बहुत बारीकी से अर्थघटन किया हैं। जैसे विनय तप कोई माता-पिता के विनय का नाम नहीं हैं, सच्ची वैयावृत्ति तो स्व-पर को आत्महित रुपी शुद्धोपयोग में लगाना ही हैं, स्वाध्याय (स्व + अधि + अय = अपना ज्ञान प्राप्त होना) परम तप हैं, स्वाध्याय के भेद क्रमिक हैं और क्रम से ही उसका अध्ययन होना चाहिए आदि।

अंत में कहते हैं कि - ध्यान तप स्व में उपयोग एकाग्र होने का नाम हैं; और यह शुद्धोपयोग रुपी ध्यान ही कर्म को काटकर सिद्ध दशा प्रगटाता हैं।

सभी तप का सार ध्यान तप ही हैं, यह सर्वोत्कृष्ट तप हैं।

कहा भी हैं न -

सिद्धो से मिलने का मार्ग ध्यान हैं,

आतम से मिलने का मार्ग ध्यान हैं ****

संसार के विषयो से संतप्त चित्त जब तप की पवित्रता को प्राप्त होता हैं, तो जरूर से सिद्ध दशा प्रगट होती हैं - उस उत्तम तप धर्म को हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम त्याग

त्याग आत्मा का स्वभाव हैं। किसका त्याग? निज शुद्धात्मा के ग्रहणपूर्वक बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग; जो सम्यक्त्व सहित होता हैं उत्तम त्याग धर्म कहते हैं।

मुख्यरूप से जब-जब त्याग धर्म की बात आती हैं तब दान देने की प्रेरणा दी जाती हैं। दान कुछ बुरी चीज नहीं हैं, आवश्यक हैं - परन्तु उसे त्याग कहना ठीक भासित नहीं होता हैं।

त्याग कोई पर-वस्तु का नहीं परन्तु परद्रव्य के मोह का होता हैं।

त्याग और दान का भेद बताते हुए पंडितजी ने इस लेखनी में अनेक तर्क दिए हैं -

  • दान अपनी वस्तु का दिया जाता हैं, पर-वस्तु ही मेरी नहीं तो दान किसका?
  • त्याग वस्तु को तुच्छ जानकार किया जाता हैं, जबकि दान दूसरे के लिए उपयोगी मानकर दिया जाता हैं
  • त्याग के लिए कोई नहीं चाहिए, दान के लिए देनेवाला, लेनेवाला और वस्तु चाहिए

त्याग के दो भेद बताये हैं - निश्चय और व्यवहार; जिसमे व्यवहार त्याग में दान को कहा हैं। पर जो दान को ही त्याग मान लेंगे तो फिर मुनिराज को आहार दान संभव नहीं होने से उन्हें त्याग धर्म भी नहीं होगा! बात ऐसी हैं कि निश्चय त्याग-धर्म वस्तु ही दान भिन्न हैं!

दान कुछ बुरा थोड़ी हैं? पर उसे त्याग धर्म कहना कितने हद तक ठीक हैं उसका निर्णय जरूरी हैं। योग्य पात्र को ही दान देना चाहिए। विशुद्धि के बिन संक्लेश परिणाम युक्त दान तो पाप का कारण बनता हैं। भले ही दान त्याग धर्म के अंतर्गत नहीं हैं, तो भी प्रसंग पाकर इसका सुन्दर पंडितजी ने यहाँ विश्लेषण किया हैं।

त्याग धर्म हैं और दान पुण्य हैं। त्याग कैसे करना चाहिए? त्यागने के बाद उसका विकल्प भी न आये वही सच्चा त्याग हैं। पर द्रव्य में अपनत्व का त्याग, परिग्रह से निर्वृत्ति और आत्मस्वभाव का ग्रहण जब होता हैं, वही चारित्र दशा ही उत्तम त्याग धर्म हैं, वह हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम आकिंचन्य

अकिंचन्य आत्मा का स्वभाव हैं। ज्ञानंदस्वभावी भगवान् आत्मा से अतिरिक्त कुछ भी न सुहाए, किंचित मात्र भी परपदार्थ में मोह-राग-द्वेष उत्पन्न हो, पुरे जग से अत्यंत विरक्ति का भाव ही उत्तम अकिंचन्य धर्म हैं। अकिंचन्य और ब्रह्मचर्य को सभी धर्मो का सार कहा हैं!

पंडितजी लिखते हैं कि शुद्ध आत्मा को ही अपना जानना, मानना और अनुभव करना उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म हैं और पर वस्तु को अपना नहीं जानना, नहीं मानना और नहीं अनुभव करना ही उत्तम अकिंचन्य धर्म हैं - एक सिक्के के ही दो पहलु हैं ! अकिंचन्य नास्ति से कथन हैं और ब्रह्मचर्य अस्ति से कथन हैं।

परिग्रह के अभाव में जो शुद्ध आत्मा का अनुभव हैं वह उत्तम आकिंचन्य धर्म हैं। इसके आगे परिग्रह के भेद का वर्णन करते हैं। ‘ग्रन्थ’ का एक अर्थ परिग्रह हैं; जो अंतर और बहिरंग ग्रन्थ का त्यागी हो वह निर्ग्रन्थ कहलाता हैं। निर्ग्रंथता ही वास्तव में उत्तम आकिंचन्य धर्म हैं!

अंतरंग परिग्रह में ४ कषाय, ९ नो कषाय और १ मिथ्यात्व हैं - जिसकी बहुत गहराई से चर्चा की गई है। इसके पश्चात बहिरंग परिग्रह का भी उतना ही गहराई से चिंतवन किया गया हैं। अपरिग्रह को समझे बिना उत्तम आकिंचन्य नहीं हो सकता हैं। सर्व पापो का मूल परिग्रह होने के कारण वह सबसे बड़ा पाप हैं; और कषाय और मिथ्यात्व के अभाव होने के कारण उत्तम अकिंचन्य ही सबसे बड़ा धर्म हैं - उस उत्तम अकिंचन्य धर्म हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

उत्तम ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव हैं। सम्यक्त्व सहित शुद्ध आत्मा में रमना ही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म हैं। आत्म स्वभाव में जमना, रमना और अनुभव से जो शुद्ध भाव का अनुभव हो वही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म हैं।

आज जब भी ब्रह्मचर्य की चर्चा चलती हैं, तो पांच इन्द्रिय तो दूर, सिर्फ स्पर्शेन्द्रिय के एक क्रियाविशेष के त्याग को ही ब्रह्मचर्य कह दिया जाता हैं। वास्तव में, व्यवहार ब्रह्मचर्य समस्त इन्द्रिय के विषय ने निवृत्ति का नाम हैं।

समयसार जी में ‘स्पर्श’ और ‘रसना’ इन्द्रिय के विषयभोग को ‘काम’ कहा हैं और शेष ३ इन्द्रिय के विषयभोग को ‘भोग’ कहा हैं। यहाँ तो स्पर्श इन्द्रिय के विषय को भी पूरा न गिनकर सिर्फ एक क्रियाविशेष को ही अब्रह्मचर्य कह दिया हैं।

वैसे, स्पर्श इन्द्रिय के विषय के त्याग को व्यवहार ब्रह्मचर्य कहना गलत नहीं हैं। क्योंकि स्पर्श इन्द्रिय सर्व इन्द्रियों में व्याप्त हैं; और प्रति समय स्पर्श इन्द्रिय का विषयसेवन चालू रहता हैं। इसलिए जैसे जो देश का राजा हो, वह राज्यों का राजा तो अपनेपन हो ही जाता हैं; वैसे ही जिसने स्पर्श इन्द्रिय को जीत लिया उसने सारी इन्द्रियों को वश कर लिया।

ऐसा न मानकर सिर्फ स्पर्श इन्द्रिय के क्रियाविशेष को अब्रह्मचर्य मान लेंगे तो फिर सिद्ध भगवान जिन्हे स्पर्श इन्द्रिय नहीं हैं, वे अब्रह्मचारी हो जायेंगे; और १ इन्द्रिय जीव ब्रह्मचारी हो जाएंगे। इस प्रकार, ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध ५ इन्द्रिय के विषयसेवन के त्याग से हैं, ना की सिर्फ क्रियाविशेष से। हाँ, जो जीव काम में अंध होता हैं; विषय लोलुपी हैं, महा मूढ़ हैं - उनके चित्त में ये उत्तम ब्रह्मचर्य की बात का प्रवेश होना ही वर्जित हैं। स्पर्श इन्द्रिय, व्यवहार और निश्चय ब्रह्मचर्य की भी विशेष चर्चा यहाँ पर करने में आई हैं।

आगे बढ़कर पंडितजी ब्रह्मचर्य को व्रत में विभाजित करके विश्लेषण करते हैं कि - ब्रह्मचर्य अणुव्रत में विषयो का एकदेश त्याग होता हैं, फिर सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा में विषयो का सर्वदेश त्याग होता हैं और ब्रह्मचर्य महाव्रत में सूक्ष्म रूप से विषयो का त्याग होता हैं। पर सम्यग्दर्शन के बिना ये सब का कोई अर्थ नहीं हैं।

ब्रह्मचर्य आत्मा के अनुभव का नाम हैं; आत्मा का चारित्र गुण हैं; इतने पवित्र गुण को आज दुनिया ने दिखावे के रूप में अपवित्र बना दिया हैं। शील के नव बाढ़ की भी चर्चा यहाँ पर की गयी हैं।

ये दुनिया को क्या हो गया हैं? स्त्री को रखने में भी बेंड-बाजा चाहिए और स्त्री को छोड़ने के लिए भी!

इससे अतिरिक्त क्या कहे! इस पंक्ति में ही मानो वर्तमान में चलती कुपरंपरा का निराकरण कर दिया हो।

एक और बहुत मार्मिक विषय पर चर्चा की गयी हैं जो हैं - स्त्री निंदा के विषय में।

शास्त्रकार, कवि आदि ने खूब स्त्री के रूप, शरीर की निंदा की हैं और उससे ब्रह्मचर्य की प्रेरणा दी हैं। यहाँ बस इतना समझना कि निंदा नारी की नहीं परन्तु जीव को पर पुरुष/स्त्री/नपुंसक के प्रति मोह आदि वेद कषाय के भाव की हैं। नारी को विष-बेल हैं तो पुरुष भी कुछ काम विष-वृक्ष नहीं हैं! इसलिए इतने पवित्र उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म के चिंतवन में नर/नारी के विवाद का विषय मत बनावो!

बाहर तो अनादि से दीन हो कर चार गतिओ में भ्रमण कर ही रहे हैं; जो अब अपने में विचरण करेंगे तो ही संसार भ्रमण का अंत आएगा; ऐसा उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म हम भी प्रगट करे ऐसी मंगल भावना।

क्षमावाणी पर्व

वैरभाव को त्याग एक दूसरे के प्रति क्षमाभाव धारण करने का पर्व हैं ‘क्षमावाणी पर्व’; मन की मलिनता को धोकर, पवित्र करने में समर्थ ये पर्व पूरा जैन समाज धूमधाम से मनाता हैं। बहुत ही अच्छे शब्दों से समाज में चलती हुई कुरीति पर टिपण्णी इस प्रकरण में प्राप्त होती हैं। जो पर्व उत्तम क्षमा का प्रतिक था, भावो में विशुद्धता उपजाने वाला था; व्यक्तिगत था आज वो बाजारू हो गया हैं।

क्षमा करने के लिए भी ये जीव अपनी शर्ते रख देता हैं बोलो! क्षमा जो आत्मा का स्वभाव हैं; उसमे पर से क्या अपेक्षा रखना? सिर्फ क्षमा देने से या मांगने से काम नहीं चलेगा, उस पर विशेष चिंतवन भी जरूरी हैं कि क्या हमारा कषाय घटा हैं? क्या हमारे परिणाम विशुद्ध हुए हैं? क्या बीच में जो कलह हैं वह मिटे हैं?

पंडितजी ने क्षमावाणी का और चिंतवन करके तर्क दिया कि क्षमावाणी सिर्फ क्षमा से समबन्ध नहीं रखता परन्तु सारे दश-लक्षण धर्म भाव का प्रगट रूप का ‘क्षमादिवाणी’ नाम सार्थक हैं।

क्षमा सिर्फ मनुष्य तक ही सिमित क्यों? ‘खामेमि सव्वे जीवा’ कहकर जीवमात्र के प्रति से क्षमा का भाव हैं, इस पर्व का दृष्टिकोण अत्यंत विशाल हैं!

आज अनेक जगह पर क्षमा को वीर का आभूषण मानने वाले लोग घटते जा रहे हैं और हिंसा में धर्म मैंने वाले बढ़ते जा रहे हैं। इस सन्दर्भ में कहते हैं कि क्षमा धारी के मन में कोई जीव अपराधी हैं ही नहीं! सभी परिस्थितिओं में जो क्षमा को धारण करता हैं वही सच में वीर हैं; ऐसे धन्य दिगम्बर मुनिराज ही सच्ची उत्तम क्षमा के धारक होते हैं!

अंत में अपने आप से क्षमा का भाव प्रदर्शित करते हैं। क्या हम अनादि से ८४ लाख योनि में भ्रमण करके दुखी नहीं हो रहे? क्या हम निरंतर कषाय से अपने आत्मा को कास नहीं रहे हैं? आकुलता से निराकुल स्वभाव का अपमान नहीं कर रहे? निश्चय क्षमावाणी तो स्वयं के प्रति सावधान होकर प्रवृत्ति करना ही हैं।

इस प्रका सच्ची क्षमा तो अपने आत्मा में लीनता ही हैं; और बाहर में कषाय के घटने से स्वयमेव ही सभी जीवो के प्रति क्षमा के भाव उद्योत होते हैं; ऐसा क्षमावाणी पर्व हमारे चैतन्य सदन में हमेशा ही मनाया जाता रहे ऐसी मंगल भावना।

धर्म के दश लक्षण पर कुछ पंक्तिया -

उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच,
संयम तप अरु त्याग आकिंचन्य लख।
ब्रह्मचर्य भ्रम नाशक ब्रह्म में नित रमण,
धर्म वही जो इन लक्षण से युक्त हो।।
उत्तम क्षमा क्षमा उपजावे, उत्तम मार्दव विनय प्रकाशे,
उत्तम आर्जव सरलता लावे, उत्तम शौच निर्लोभी बनावे,
उत्तम सत्य सत्य श्रद्धावे, उत्तम संयम निज में सीमें,
उत्तम तप निर्जरा करावें, उत्तम त्याग अपनत्व मिटावे,
उत्तम आकिंचन यह कहता - ज्ञानी को परिग्रह ही कैसा?
उत्तम ब्रह्मचर्यमय आतम, वही तो हैं बस एक सारभूत,
‘उत्तम’ हैं सम्यक्त्व सूचक, ‘उत्तम’ पर-निवृत्ति निरूपक,
उत्तम हैं मंगलमय धर्म, शरणागत हो प्रगटाये दश धर्म।।
दश लक्षण रूपी आत्म के, भेद कहे जिनदेव,
लक्ष्य बना अभेद का, अनुभव कर सब जान।

Myth busters

Myth तो नहीं परन्तु सभी धर्मोँ के बारे में इतने तार्किक और सूक्ष्म रूप से चिंतवन करने का इस पुस्तक में मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। जैसे -

  • सत्यधर्म और सत्यवचन में जमीन आसमान का अंतर
  • त्याग और दान में भेद
  • क्षमावाणी का असली अर्थ
  • ब्रह्मचर्य में स्त्री-निंदा के विषय में सुन्दर चिंतन